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भारतीय राजव्यवस्था

50% कोटा सीमा पर पुनर्विचार की आवश्यकता

  • 27 Aug 2020
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामला, 103वां संविधान संशोधन, अनुच्छेद 15(4), अनुच्छेद 16(4), 102वां संविधान संशोधन

मेन्स के लिये:

50% कोटा सीमा पर पुनर्विचार की आवश्यकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने 'मराठा आरक्षण कानून' की समीक्षा करने वाली बेंच को खुद को मराठा कानून तक सीमित रखने के बजाय आरक्षण पर 50% की सीमा/सीलिंग पर ही पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • इन अधिवक्ताओं द्वारा आरक्षण पर निर्धारित 50% सीलिंग पर पुनर्विचार करने के लिये 11 ‘न्यायाधीशों की बेंच’ गठित करने का आग्रह किया गया।
  • यह मांग उस समय उठाई गई जब सर्वोच्च न्यायालय 'मराठा आरक्षण कानून' को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है।
    • यह कानून मराठा समुदाय के लिये 12 से 13 प्रतिशत कोटा प्रदान करता है।

आरक्षण सीमा की पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 1979 में मोरारजी देसाई सरकार ने बी. पी. मंडल की अध्यक्षता में ‘द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ का गठन किया गया।
  • आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट में सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार पर 3743 पिछड़ी जातियों की पहचान की गई। जिनकी कुल आबादी भारतीय आबादी की लगभग 52% थी (अनुसूचित जाति एवं जनजाति के अलावा)।
  • दस वर्ष बाद 1990 में वी. पी. सरकार द्वारा सरकारी सेवाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गई।
  • वर्ष 1991 में पी. वी. नरसिम्हा राव सरकार द्वारा 27% आरक्षण के अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई।
  • इन प्रावधानों को प्रसिद्ध ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले’ (वर्ष 1992) में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जहाँ अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षण व्यवस्था को बनाए रखा गया परंतु आर्थिक आधार पर दिये गए 10% आरक्षण के प्रावधान को निरस्त कर दिया गया।

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में निर्णय:

  • केवल कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, कुल आरक्षित सीटों का कोटा 50% की सीमा से अधिक नहीं होना चाहिये।
  • बैकलॉग के पदों को भरने में भी 50% कोटे की सीमा का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिये।
  • इस प्रावधान को 81 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से निरस्त कर दिया गया।
  • अन्य पिछड़ा वर्ग सूची में किसी जाति को जोड़ने तथा हटाने के परीक्षण के लिये एक स्थायी गैर-विधायी इकाई होनी चाहिये।

50% सीमा पर पुनर्विचार की आवश्यकता:

  • इंदिरा साहनी निर्णय का उल्लंघन:
    • सर्वोच्च न्यायालय में दायर अनेक याचिकाओं के माध्यम से यह तर्क दिया कि मराठा आरक्षण कानून वर्ष 1992 में ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले’ में सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा निर्धारित आरक्षण की 50% सीमा का उल्लंघन करता है।
    • इंदिरा साहनी मामले में दिया गया निर्णय लगभग 30 वर्ष पहले किया गया था, अत: इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
  • पिछड़े वर्गों की उच्च जनसंख्या:
    • ‘द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ के अनुसार, सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार पर लगभग 52% आबादी पिछड़ी थी (अनुसूचित जाति एवं जनजाति के अलावा)।
    • महाराष्ट्र में 85% प्रतिशत लोग पिछड़े वर्गों से संबंधित हैं। इसी प्रकार अन्य राज्यों में भी पिछड़े लोगों का प्रतिशत 50% की सीमा से अधिक है।
    • 28 राज्यों द्वारा अपने यहाँ संबंधित पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान करने के लिये 50% की कोटा सीमा का उल्लंघन किया गया है।
  • 103वाँ संविधान संशोधन:
    • इस संवैधानिक संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये 10% कोटा प्रदान किया गया है। न्यायालय को इस 10% कोटे को समाहित करते हुए कोटे पर 50% की सीमा पर फिर से विचार करना चाहिये।

आगे की राह:

  • अनुच्छेद 15 (4) और अनुच्छेद 16 (4) की व्याख्या इंदिरा साहनी (निर्णय) के संदर्भ में की जानी चाहिये।
  • 102 वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार, आरक्षण केवल तभी दिया जा सकता है जब किसी विशेष समुदाय का नाम राष्ट्रपति द्वारा तैयार की गई सूची में हो। अत: इसका पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
    • 102 वां संविधान संशोधन अधिनियम- 2018 'राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग' (NCBC) को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है।

अनुच्छेद 15(4):

  • इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने से नहीं रोका जाएगा।
  • यह प्रावधान मुख्यत: नागरिकों के ‘सशक्तिकरण’ (Empowerment) से संबंधित है।

अनुच्छेद 16 (4):

  • इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य को नागरिकों के किसी भी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये कोई प्रावधान करने से नहीं रोका जाएगा, यदि राज्य की राय में राज्य के तहत सेवाओं में उस वर्ग का पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्त्वनहीं है।
  • यह प्रावधान मुख्यत: नागरिकों के ‘रोज़गार’ (Employment) से संबंधित है।

स्रोत: द हिंदू

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