शासन व्यवस्था
यूएस' रो बनाम वेड केस 1973
प्रिलिम्स के लिये: यूएस' रो बनाम वेड केस 1973, भारत में गर्भपात संबंधी कानून मेन्स के लिये: गर्भपात, सरकारी नीतियों और हस्तक्षेप, महिलाओं से संबंधित मुद्दों, लिंग के संबंध में बहस |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजनीतिक पत्रकारिता कंपनी पोलिटिको द्वारा दी गई एक जानकारी से पता चला है कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1973 के ऐतिहासिक फैसले रो बनाम वेड, 1973 को पलटने का निर्णय लिया है, जिसने गर्भपात को संवैधानिक अधिकार बना दिया था।
रो बनाम वेड फैसला क्या था?
- वर्ष 1973 में रो बनाम वेड के ऐतिहासिक फैसले में संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के अधिकार को संवैधानिक अधिकार बना दिया, जो दुनिया भर में गर्भपात कानूनों के लिये एक बेंचमार्क स्थापित हो गया।
- इस मामले में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने कई राज्यों में गर्भपात को अवैध बनाने वाले कानूनों को रद्द कर दिया और फैसला सुनाया कि गर्भपात को भ्रूण की व्यवहार्यता के बिंदु तक अनुमति दी जाएगी, यानी वह समय जिसके बाद भ्रूण गर्भ के बाहर जीवित रह सकता है।
- रो के फैसले के समय भ्रूण की व्यवहार्यता लगभग 28 सप्ताह (7 महीने) थी, अब विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि दवाइयों की प्रगति ने इस सीमा को 23 या 24 सप्ताह (6 महीने या थोड़ा कम) तक ला दिया है।
- भ्रूण की व्यवहार्यता को अक्सर उस बिंदु के रूप में देखा जाता है जिस पर महिला के अधिकारों को अजन्मे भ्रूण के अधिकारों से अलग किया जा सकता है।
- दुनिया भर में गर्भपात कानून इस समय-सीमा पर भरोसा करते हैं लेकिन गर्भपात का विरोध करने वालों का तर्क है कि यह एक मनमानी समय-सीमा है जिसे कानूनों के माध्यम से अदालत ने अपनाया है।
गर्भपात संबंधी बहस क्या है?
- गर्भपात पर बहस प्रेरित गर्भपात की नैतिक, कानूनी और धार्मिक स्थिति को लेकर चल रही है।
- कई पश्चिमी देशों में बहस में शामिल पक्ष स्व-वर्णित ‘प्रो-चॉइस’ और ‘प्रो-लाइफ’ एक आंदोलन है।
- प्रो-चॉइस गर्भावस्था को समाप्त करने के लिये महिला की पसंद पर ज़ोर देती है।
- इसके विपरीत प्रो-लाइफ स्थिति माँ और भ्रूण दोनों की मानवता पर ज़ोर देती है, इसमें यह तर्क दिया जाता है कि भ्रूण कानूनी संरक्षण के योग्य मानवीय व्यक्ति है।
- जनता की राय को प्रभावित करने तथा अपनी स्थिति के संदर्भ मे कानूनी समर्थन प्राप्त करने के लिये प्रत्येक आंदोलन के अलग-अलग परिणाम हैं।
- बहुत से लोग मानते हैं कि गर्भपात अनिवार्य रूप से मानवीय व्यक्तित्व की शुरुआत, भ्रूण के अधिकारों और शारीरिक अखंडता से संबंधित एक नैतिक मुद्दा है।
वर्तमान मामला क्या है?
- वर्तमान मामला गर्भपात पर मिसिसिपी कानून को चुनौती देने से संबंधित है।
- वर्ष 2018 में मिसिसिपी राज्य ने 1973 के फैसले को सीधी चुनौती देते हुए 15 सप्ताह के बाद अधिकांश गर्भपात पर प्रतिबंध लगा दिया।
- वर्ष 2019 में मिसिसिपी में "हार्टबीट" नामक गर्भपात कानून पारित किया गया था, जो कि एक और भी अधिक प्रतिबंधात्मक उपाय था, इसने भ्रूण की हृदय गतिविधि का पता चलने के बाद (लगभग छह सप्ताह) अधिकांश गर्भपात पर प्रतिबंध लगा दिया।
- "हार्टबीट" में कहा गया है कि भ्रूण के ह्रदय की धड़कन का पता चलने के बाद गर्भपात करने वाले चिकित्सकों के मेडिकल लाइसेंस रद्द हो सकते हैं।
- कानून में बलात्कार या अनाचार के कारण गर्भधारण के लिये कोई अपवाद मौजूद नहीं है।
- इस कानून को भी एक ज़िला जज ने खारिज़ कर दिया था और फरवरी 2020 में न्यू ऑरलियन्स में 5वीं ‘सर्किट कोर्ट ऑफ अपील्स’ ने इस फैसले पर सहमति जताई थी।
निर्णय का प्रभाव:
- चूँकि अमेरिका में गर्भपात के अधिकार की रक्षा करने वाला कोई संघीय कानून नहीं है, इसलिये ‘रो’ को पलटने से गर्भपात कानून पूरी तरह से राज्यों पर निर्भर हो जाएगा।
- संक्षेप में ‘रो बनाम वेड’ की जाँच और संतुलन की अनदेखी तथा व्यक्तिगत एजेंसी को अक्षम करने से मामला अब महिलाओं के अधिकारों के प्रतिमान के भीतर प्रतिस्थापित नहीं किया जाएगा।
- यह मानव अधिकारों के बड़े ढाँचे को भी प्रभावित कर सकता है, यह गरीबों एवं हाशिये पर स्थित लोगों को और दूर कर देगा।
भारत में गर्भपात संबंधी कानून:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 312 के तहत गर्भपात एक अपराध है।
- हालाँकि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (MTP) और इसका संशोधन केवल अपराधीकरण को अपवाद की स्थिति प्रदान करता है।
- MTP अधिनियम, 1971 गर्भावस्था के 20 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है।
- लेकिन केवल विशेष श्रेणी की गर्भवती महिलाओं जैसे कि बलात्कार या अनाचार से प्रभावित के लिये (वह भी दो पंजीकृत डॉक्टरों की मंज़ूरी के साथ) वर्ष 2021 में एक संशोधन के माध्यम से गर्भपात की सीमा को बढ़ाकर 24 सप्ताह कर दिया गया था।
- भ्रूण की विकलांगता के मामले में गर्भपात की कोई समय-सीमा नहीं है, लेकिन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों द्वारा स्थापित विशेषज्ञ डॉक्टरों के एक मेडिकल बोर्ड द्वारा इसकी अनुमति दी जाती है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय अर्थव्यवस्था
क्रय प्रबंधक सूचकांक
प्रिलिम्स के लिये: पीएमआई, आईआईपी, जीडीपी, मुद्रास्फीति। मेन्स के लिये: वृद्धि और विकास, पीएमआई और इसका महत्त्व, अर्थव्यवस्था की स्थिति। |
चर्चा में क्यों?
एसएंडपी वैश्विक भारत विनिर्माण क्रय प्रबंधक सूचकांक (PMI) के अनुसार, भारत के विनिर्माण क्षेत्र ने नए ऑर्डर और उत्पादन में मामूली तेज़ी दर्ज की जो जो मार्च 2022 के 54 से बढ़कर अप्रैल 2022 में 54.7 हो गई।
सूचकांक की मुख्य विशेषताएँ:
- मार्च में नौ महीने के पहले संकुचन के बाद अप्रैल के आँकड़ों में नए निर्यात मांगों में एक बड़ा बदलाव देखा गया।
- संकुचन, अर्थशास्त्र में व्यापार चक्र के एक चरण को संदर्भित करता है, इस दौरान अर्थव्यवस्था में गिरावट देखी जाती है।
- संकुचन की स्थिति आमतौर पर व्यापार चक्र के शीर्ष पर पहुँचने के बाद होती है।
- इस बीच वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, रूस-यूक्रेन युद्ध और अधिक परिवहन लागत के कारण मुद्रास्फीति के बढ़ने की संभावना है।
- उत्पादक सामग्री की कीमतों में पाँच महीने में सबसे तेज़ गति से वृद्धि हुई है, जबकि उत्पाद शुल्क मुद्रास्फीति 12 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुँच गई।
- नवीनतम परिणामों के चलते मुद्रास्फीति का गंभीर दबाव देखा गया क्योंकि ऊर्जा की कीमतों में अस्थिरता, वैश्विक इनपुट की कमी और यूक्रेन में युद्ध आदि ने खरीद लागत को बढ़ा दिया था।
- रोज़गार के संदर्भ में अप्रैल 2022 के दौरान केवल मामूली वृद्धि हुई थी।
क्रय प्रबंधक सूचकांक (PMI):
- यह एक सर्वेक्षण-आधारित प्रणाली है। क्रय प्रबंधक सूचकांक (PMI) के दौरान विभिन्न संगठनों से कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं, जिसमें आउटपुट, नए ऑर्डर, व्यावसायिक अपेक्षाएँ और रोज़गार जैसे महत्त्वपूर्ण संकेतक शामिल होते हैं, साथ ही सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लोगों से इन संकेतकों को रेट करने के लिये भी कहा जाता है।
- PMI का उद्देश्य कंपनी के निर्णयकर्त्ताओ, विश्लेषकों और निवेशकों को वर्तमान एवं भविष्य की व्यावसायिक स्थितियों के बारे में जानकारी प्रदान करना है।
- यह विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों की गणना अलग-अलग करता है, फिर एक समग्र सूचकांक भी बनाता है।
- PMI को 0 से 100 तक के सूचकांक पर मापा जाता है।
- 50 से ऊपर का स्कोर विस्तार, जबकि इससे कम स्कोर संकुचन को दर्शाता है।
- 50 का स्कोर कोई बदलाव नहीं दर्शाता है।
- यदि पिछले महीने का PMI चालू माह के PMI से अधिक है तो यह इस बात को दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था संकुचित हो रही है।
- यह आमतौर पर हर महीने की शुरुआत में ज़ारी किया जाता है। इसलिये इसे आर्थिक गतिविधि का एक अच्छा अग्रणी संकेतक माना जाता है।
- PMI को IHS मार्किट द्वारा दुनिया भर में 40 से अधिक अर्थव्यवस्थाओं के लिये संकलित किया गया है।
- IHS मार्किट दुनिया भर में अर्थव्यवस्थाओं को चलाने वाले प्रमुख उद्योगों और बाज़ारों के लिये सूचना, विश्लेषण एवं समाधान हेतु एक वैश्विक मंच है।
- आईएचएस मार्किट एसएंडपी ग्लोबल का हिस्सा है।
- चूंँकि औद्योगिक उत्पादन, विनिर्माण और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि पर आधिकारिक आंँकड़े बहुत बाद में प्राप्त होते हैं,; PMI पहले चरण में उचित निर्णय लेने में मदद करता है।
- यह औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) से अलग है, जो अर्थव्यवस्था में गतिविधि के स्तर को भी मापता है।
- PMI की तुलना में IIP व्यापक औद्योगिक क्षेत्र को कवर करता है।
- हालांँकि मानक औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की तुलना में PMI अधिक गतिशील है।
PMI का महत्व:
- अर्थव्यवस्था को एक विश्वसनीय आंकड़े प्रदान करता है:
- PMI दुनिया भर में व्यावसायिक गतिविधियों को सबसे अधिक ट्रैक करने वाले संकेतकों में से एक बन रहा है।
- यह एक विश्वसनीय आंकड़ा प्रदान करता है कि एक अर्थव्यवस्था समग्र रूप से कैसे काम कर रही है विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र में।
- आर्थिक गतिविधि का संकेतक:
- यह अर्थव्यवस्था में उछाल और हलचल चक्र का एक अच्छा मापक है और अर्थशास्त्रियों के अलावा निवेशकों, व्यापारियों और वित्तीय पेशेवरों द्वारा इस पर बारीकी से नज़र रखी जाती है।
- PMI को आर्थिक गतिविधि का एक प्रमुख संकेतक भी माना जाता है क्योंकि इसे हर महीने की शुरुआत में जारी किया जाता है।
- यह औद्योगिक उत्पादन, कोर सेक्टर मैन्युफैक्चरिंग और जीडीपी ग्रोथ के आधिकारिक आँकड़ों से पहले आता है।
- निर्णय लेने में सहायक:
- PMI का उपयोग केंद्रीय बैंक की ब्याज दरें निर्धारित करने के लिये भी किया जाता है।
- इक्विटी बाज़ार की गतिविधियों को प्रभावित करने के अलावा PMI जारी बांँड और मुद्रा बाज़ारों को भी प्रभावित करता है।
- अर्थव्यवस्था को आकर्षक बनाना:
- PMI का अच्छा प्रेक्षण अन्य प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अर्थव्यवस्था के प्रति आकर्षण को बढ़ाता है।
- आपूर्तिकर्त्ता PMI के उतार-चढ़ाव के आधार पर कीमतों के बारे में निर्णय ले सकते हैं।
विगत वर्षों के प्रश्न:प्रश्न. एसएंडपी 500 किससे संबंधित है? (2008) (a)सुपर कंप्यूटर उत्तर: (d)
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स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय अर्थव्यवस्था
आरबीआई द्वारा रेपो रेट और सीआरआर में वृद्धि
प्रिलिम्स के लिये: आरबीआई, रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, मौद्रिक नीति, मौद्रिक नीति समिति (MPC)। मेन्स के लिये: मौद्रिक नीति, वृद्धि और विकास, आरबीआई और इसके मौद्रिक नीति उपकरण। |
चर्चा में क्यों?
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की मौद्रिक नीति समिति (MPC) ने तत्काल प्रभाव से नीति रेपो दर को 40 आधार अंकों से बढ़ाकर 4.40% कर दिया है और बैंकों के नकद आरक्षित अनुपात (CRR) को 50 आधार अंकों से बढ़ाकर 4.5% शुद्ध मांग और समय देयताएँ (NDTL) कर दिया है।
- RBI की ओर से मई 2020 के बाद पॉलिसी रेपो रेट में यह पहली बढ़ोतरी है।
मौद्रिक नीति समिति:
- यह विकास के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता बनाए रखने के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के तहत एक सांविधिक और संस्थागत ढाँचा है।
- RBI का गवर्नर समिति का पदेन अध्यक्ष होता है।
- MPC मुद्रास्फीति लक्ष्य (4%) को प्राप्त करने के लिये आवश्यक नीतिगत ब्याज दर (रेपो दर) निर्धारित करती है।
- वर्ष 2014 में तत्कालीन डिप्टी गवर्नर उर्जित पटेल के नेतृत्व में RBI द्वारा नियुक्त समिति ने मौद्रिक नीति समिति की स्थापना की सिफारिश की थी।
वर्तमान दरें:
- रेपो दर: 4.40%
- रेपो दर वह दर है जिस पर किसी देश का केंद्रीय बैंक (भारत के मामले में भारतीय रिज़र्व बैंक) किसी भी तरह की धनराशि की कमी होने पर वाणिज्यिक बैंकों को धन देता है। इस प्रक्रिया में केंद्रीय बैंक प्रतिभूति खरीदता है।
- स्थायी जमा सुविधा (एसडीएफ): 4.15%
- वस्तुतः इसे अधिशेष तरलता (Surplus Liquidity) को समाप्त करने एवं बैंकिंग प्रणाली की समस्या को कम करने के एक उपकरण के तौर पर देखा जा रहा है|
- यह रिवर्स रेपो सुविधा से इस मायने में अलग है कि इसमें बैंकों को फंड जमा करते समय संपार्श्विक प्रदान करने की आवश्यकता नहीं होती है।
- सीमांत स्थायी सुविधा दर: 4.65%
- MSF ऐसी स्थिति में अनुसूचित बैंकों के लिये आपातकालीन स्थिति में RBI से ओवरनाइट (रातों-रात) ऋण लेने की सुविधा है जब अंतर-बैंक तरलता पूरी तरह से कम हो जाती है।
- इंटरबैंक लेंडिंग के तहत बैंक एक निश्चित अवधि के लिये एक-दूसरे को फंड उधार देते हैं।
- बैंक दर: 4.65%
- यह वाणिज्यिक बैंकों को धन उधार देने के लिये आरबीआई द्वारा वसूल की जाने वाली दर है।
- CRR: 4.50% (21 मई, 2022 से प्रभावी)
- CRRके तहत वाणिज्यिक बैंकों को केंद्रीय बैंक के पास एक निश्चित न्यूनतम जमा राशि (NDTL) आरक्षित रखनी होती है।
- SLR: 18.00%
- वैधानिक तरलता अनुपात या SLR जमा का न्यूनतम प्रतिशत है जिसे एक वाणिज्यिक बैंक को तरल नकदी, सोना या अन्य प्रतिभूतियों के रूप में बनाए रखना होता है।
RBI ने रेपो रेट और CRR क्यों बढ़ाया है?
- वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है, जिसमें मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव के कारण मुद्रास्फीति में तेज़ वृद्धि हुई है।
- वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और 100 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से ऊपर रहने के साथ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति पिछले 3-4 दशकों में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंँच गई है।
- रेपो दर और CRR में वृद्धि का उद्देश्य यूक्रेन युद्ध के मद्देनज़र वैश्विक अशांति के बीच बढ़ी हुई मुद्रास्फीति पर लगाम लगाना है।
- भारतीय रिज़र्व बैंक का लक्ष्य मुद्रास्फीति को अपने वांछित स्तर पर रखना (जो पहले से ही 7% के करीब है) और बैंकिंग प्रणाली में धन के प्रवाह को नियंत्रित और मॉनीटर करना है।
- भारत में उर्वरक की कीमतों और अन्य इनपुट लागतों में वृद्धि से भी खाद्य कीमतों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
- हेडलाइन CPI (उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति) मुद्रास्फीति में मार्च 2022 में 6.95% की वृद्धि हुई थी।
- यदि मुद्रास्फीति इन स्तरों पर बहुत अधिक समय तक बनी रहती है तो संपार्श्विक (Collateral) जोखिम उत्पन्न होता है।
- संपार्श्विक जोखिम: प्रकृति, मात्रा, मूल्य निर्धारण या क्रेडिट जोखिम युक्त विनिमय को सुरक्षित करने वाली संपार्श्विक संपत्तियों की विशेषताओं में त्रुटियों से उत्पन्न जोखिम।
- संपार्श्विक वस्तु का मूल्य है जिसका उपयोग ऋण (क्रेडिट) को सुरक्षित करने के लिये किया जाता है।
रेपो रेट और CRR में वृद्धि:
- रेपो रेट:
- इससे बैंकिंग सिस्टम में ब्याज दरों में बढ़ोतरी की उम्मीद है। घर, वाहन और अन्य व्यक्तिगत एवं कॉर्पोरेट ऋणों पर समान मासिक किस्त (EMIs) में वृद्धि की संभावना है।
- जमा दरों, मुख्य रूप से निश्चित अवधि की दरों में भी वृद्धि होना तय है।
- रेपो रेट में बढ़ोतरी से उपभोग और मांग पर असर पड़ सकता है।
- CRR:
- CRR में वृद्धि से बैंकिंग प्रणाली से 87000 करोड़ रुपए का नुकसान होगा जिससे बैंकों के उधार देने योग्य संसाधन कम हो जाएंगे।
- इसका मतलब यह भी है कि फंड की लागत बढ़ जाएगी और बैंकों के शुद्ध ब्याज मार्जिन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
- नेट इंटरेस्ट मार्जिन (NIM) एक बैंक या अन्य वित्तीय संस्थान द्वारा ब्याज के दरो में अर्जित आय तथा अपने उधारदाताओं (उदाहरण के लिये जमाकर्त्ताओं) को भुगतान किये जाने वाले ब्याज के बीच का अंतर है, जो ब्याज अर्जित करने वाली उनकी संपत्ति की राशि के सापेक्ष होती है।
विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs):प्र. अगर आरबीआई एक विस्तारवादी मौद्रिक नीति अपनाने का फैसला करता है, तो वह निम्नलिखित में से क्या नहीं नहीं करेगा? (2020) 1. वैधानिक तरलता अनुपात में कटौती और अनुकूलन 2. सीमांत स्थायी सुविधा दर को बढ़ाना 3. बैंक रेट और रेपो रेट में कटौती नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (A) केवल 1 और 2 उत्तर: (B)
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स्रोत: द हिंदू
शासन व्यवस्था
पीएमएफएमई योजना
प्रिलिम्स के लिये: पीएमएफएमई, नेफेड, एफपीओ, एक ज़िला एक उत्पाद, खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र से संबंधित पहलें मेन्स के लिये: कृषि विपणन में सुधार हेतु पीएमएफएमई योजना का महत्त्व। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय और नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ( NAFED) ने प्रधानमंत्री सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यम (PMFME) योजना के औपचारिकरण के अंतर्गत तीन एक ज़िला एक उत्पाद (ODOP) ब्रांड लॉन्च किये हैं।
- खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने पीएमएफएमई योजना के ब्रांडिंग और विपणन घटक के अंतर्गत चयनित 20 ‘एक ज़िला एक उत्पाद’ के 10 ब्रांड विकसित करने हेतु नेफेड के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
प्रमुख बिंदु
पीएमएफएमई योजना के बारे में:
- परिचय
- इसे आत्मनिर्भर अभियान (वर्ष 2020) के तहत शुरू किया गया है, इसका उद्देश्य खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के असंगठित क्षेत्र में मौजूदा व्यक्तिगत सूक्ष्म उद्यमों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाना और क्षेत्र की औपचारिकता को बढ़ावा देना तथा किसान उत्पादक संगठनों, स्वयं सहायता समूहों एवं उत्पादक सहकारी समितियों को सहायता प्रदान करना है।
- यह योजना इनपुट की खरीद, सामान्य सेवाओं और उत्पादों के विपणन के संबंध में पैमाने का लाभ उठाने के लिये एक ज़िला एक उत्पाद (ODOP) दृष्टिकोण अपनाती है।
- इसे पाँच वर्ष (2020-21 से 2024-25) की अवधि के लिये लागू किया जाएगा।
विशेषताएंँ:
- एक ज़िला एक उत्पाद (ODOP) दृष्टिकोण:
- योजना के लिये ODOP मूल्य शृंखला विकास और समर्थन बुनियादी ढांँचे के संरेखण के लिये रुपरेखा प्रदान करेगा। एक ज़िले में ODOP उत्पादों के एक से अधिक समूह हो सकते हैं।
- एक राज्य में एक से अधिक निकटवर्ती ज़िलों को मिलाकर ODOP उत्पादों का एक समूह हो सकता है।
- राज्य मौजूदा समूहों और कच्चे माल की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए ज़िलों के लिये खाद्य उत्पादों की पहचान करेंगे।
- ODOP में एक क्षेत्र में व्यापक रूप से उत्पादित तथा खराब होने वाली उपज या अनाज या खाद्य पदार्थ हो सकता है जैसे- आम, आलू, अचार, बाजरा आधारित उत्पाद, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि।
- अन्य केंद्रित क्षेत्र:
- वेस्ट टू वेल्थ उत्पाद, लघु वन उत्पाद और आकांक्षी ज़िले।
- क्षमता निर्माण और अनुसंधान: राज्य स्तरीय तकनीकी संस्थानों के साथ-साथ MoFPI के तहत शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों को सूक्ष्म इकाइयों हेतु प्रशिक्षण, उत्पाद विकास, उपयुक्त पैकेजिंग एवं मशीनरी के लिये सहायता प्रदान की जाएगी।
- वित्तीय सहायता:
- मौजूदा व्यक्तिगत सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण इकाइयांँ जो अपग्रेड करने की इच्छुक हैं, वे पात्र परियोजना लागत के 35% पर अधिकतम 10 लाख रुपए प्रति यूनिट के साथ क्रेडिट-लिंक्ड कैपिटल सब्सिडी का लाभ उठा सकती हैं।
- सामान्य बुनियादी ढांँचे, सामान्य प्रसंस्करण सुविधा, प्रयोगशाला, गोदाम आदि के विकास के लिये FPO/SHG/सहकारिता या राज्य के स्वामित्व वाली एजेंसियों या निजी उद्यम के माध्यम से 35% क्रेडिट लिंक्ड अनुदान द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी।
- प्रारंभिक वित्तपोषण के तहत कार्यशील पूंजी और छोटे उपकरणों की खरीद के लिये 40,000 रुपये प्रति स्वयं सहायता समूह (SHG) सदस्य प्रदान किया जाएगा।
- वित्तपोषण:
- यह एक केंद्र प्रायोजित योजना है जिसमें 10,000 करोड़ रुपए का परिव्यय शामिल है।
- इस योजना के तहत परिव्यय को केंद्र और राज्य सरकारों के बीच 60:40 के अनुपात में साझा किया जाएगा। उत्तर-पूर्वी और हिमालयी राज्यों के साथ 90:10 के अनुपात में, विधायिका वाले केंद्रशासित प्रदेशों के साथ 60:40 के अनुपात और अन्य केंद्रशासित प्रदेशों के लिये केंद्र द्वारा शतप्रतिशत व्यय किया जाएगा।
- वित्तीय सहायता:
योजना की आवश्यकता:
- लगभग 25 लाख इकाइयों वाले असंगठित खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के रोजगार में 74 प्रतिशत योगदान है।
- इनमें से लगभग 66% इकाइयाँ ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित हैं और लगभग 80% परिवार आधारित उद्यम हैं जो ग्रामीण परिवारों की आजीविका का समर्थन करते हैं और शहरी क्षेत्रों में उनके प्रवास को कम करते हैं।
- ये इकाईयाँ बड़े पैमाने पर सूक्ष्म उद्यमों की श्रेणी में आती हैं।
- असंगठित खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जो उनके प्रदर्शन और विकास को सीमित करता है। इन चुनौतियों में आधुनिक तकनीक व उपकरणों तक पहुँच की कमी, प्रशिक्षण, संस्थागत ऋण तक पहुँच, उत्पादों के गुणवत्ता नियंत्रण पर बुनियादी जागरूकता की कमी, ब्रांडिंग तथा विपणन कौशल की कमी आदि शामिल हैं।
भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (NAFED):
- परिचय:
- यह भारत में कृषि उपज के लिये विपणन सहकारी समितियों का एक शीर्ष संगठन है।
- इसकी स्थापना 2 अक्टूबर, 1958 को हुई थी और यह बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 के तहत पंजीकृत है।
- नाफेड भारत में कृषि उत्पादों के लिये सबसे बड़ी खरीद और विपणन एजेंसियों में से एक है।
- उद्देश्य:
- कृषि, बागवानी और वन उपज के विपणन, प्रसंस्करण व भंडारण को व्यवस्थित करना , बढ़ावा देना तथा विकसित करना।
- कृषि मशीनरी, उपकरण और अन्य आदानों को वितरित करना एवं अंतर-राज्यीय आयात एवं निर्यात, व्यापार, थोक या खुदरा व्यापार, जैसे मुद्दों की देखभाल करना।
- भारत में इसके सदस्यों, भागीदारों, सहयोगियों और सहकारी विपणन, प्रसंस्करण एवं आपूर्ति समितियों के प्रचार व कामकाज के लिये कृषि उत्पादन में तकनीकी सलाह हेतु कार्य करना और सहायता करना।
स्रोत: पी.आई.बी.
सामाजिक न्याय
खाद्य संकट पर वैश्विक रिपोर्ट 2022
प्रिलिम्स के लिये: खाद्य संकट पर वैश्विक रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ, GNAFC, यूरोपीय संघ, FAO, WFP, खाद्य सुरक्षा से संबंधित पहल। मेन्स के लिये: बढ़ते खाद्य संकट का कारण और संबंधित मुद्दे, स्वास्थ्य, सरकारी नीतियांँ और हस्तक्षेप |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ग्लोबल नेटवर्क अगेंस्ट फ़ूड क्राइसिस (GNAFC) द्वारा ग्लोबल रिपोर्ट ऑन फ़ूड क्राइसिस 2022 नामक एक वार्षिक रिपोर्ट जारी की गई।
- यह रिपोर्ट GNAFC का प्रमुख प्रकाशन है और इसे खाद्य सुरक्षा सूचना नेटवर्क (FSIN) द्वारा सुगम बनाया गया है।
खाद्य सुरक्षा सूचना नेटवर्क:
- FSIN खाद्य और कृषि संगठन (FAO), विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) और अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFPRI) द्वारा सह-प्रायोजित एक वैश्विक पहल है, जो विश्लेषण और निर्णय लेने हेतु मार्गदर्शन के लिये विश्वसनीय और सटीक डेटा तैयार करता है तथा खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सूचना प्रणाली को मज़बूती प्रदान करता है। .
ग्लोबल नेटवर्क अगेंस्ट फ़ूड क्राइसिस:
- इसकी स्थापना वर्ष 2016 में यूरोपीय संघ, FAO और WFP द्वारा की गई थी।
- यह खाद्य संकटों को रोकने, इसके लिये तैयारी करने और प्रतिक्रिया देने व भूख को समाप्त करने के लिये सतत् विकास लक्ष्य (SDG2) का समर्थन करने हेतु एक साथ काम करने वाले मानवीय और विकास कार्यकर्त्ताओं का एक गठबंधन है।
रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ:
- परिचय:
- वर्ष 2020 की तुलना में 2021 में वैश्विक स्तर पर लगभग 40 मिलियन से अधिक लोगों ने संकट या बदतर स्तर पर तीव्र खाद्य असुरक्षा का अनुभव किया।
- इथियोपिया, दक्षिणी मेडागास्कर, दक्षिण सूडान और यमन में लगभग 5 लाख से भी अधिक लोग तीव्र खाद्य असुरक्षा से पीड़ित हैं।
- 53 देशों या क्षेत्रों में 193 मिलियन से अधिक लोगों ने वर्ष 2021 में संकट या बदतर स्तर पर तीव्र खाद्य असुरक्षा का अनुभव किया।
- वर्ष 2020 की तुलना में 2021 में वैश्विक स्तर पर लगभग 40 मिलियन से अधिक लोगों ने संकट या बदतर स्तर पर तीव्र खाद्य असुरक्षा का अनुभव किया।
- खाद्य असुरक्षा के कारक:
- संघर्ष:
- संघर्ष ने 24 देशों/क्षेत्रों के 139 मिलियन लोगों को तीव्र खाद्य असुरक्षा की स्थिति में रहने के लिये मजबूर किया।
- वर्ष 2020 में 23 देशों/क्षेत्रों में 99 मिलियन लोगों खाद्य असुरक्षा की स्थिति में रहने के लिये मजबूर किया।
- चरम मौसम:
- इसने आठ देशों/क्षेत्रों में 23 मिलियन से अधिक लोगों को तीव्र खाद्य असुरक्षा स्थिति में रहने के लिये मजबूर किया, वर्ष 2020 में 15 देशों/क्षेत्रों में यह संख्या 15.7 मिलियन से अधिक थी।
- आर्थिक संकट:
- आर्थिक संकट के कारण वर्ष 2021 में 21 देशों/क्षेत्रों के 30 मिलियन से अधिक लोग एवं वर्ष 2020 में 17 देशों/क्षेत्रों में 40 मिलियन से अधिक लोगों को तीव्र खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा।
- संघर्ष:
आगे की राह
- एकीकृत दृष्टिकोण:
- खाद्य संकट, संरचनात्मक ग्रामीण गरीबी, हाशिये के लोग, जनसंख्या वृद्धि और कमज़ोर खाद्य प्रणाली आदि के मूल कारणों का पता लगाने एवं रोकथाम, प्रत्याशा तथा स्थायी रूप से उचित लक्ष्यीकरण हेतु एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
- लघु जोत कृषि को प्राथमिकता:
- रिपोर्ट ने फ्रंटलाइन मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में छोटी जोत वाली कृषि को अधिक प्राथमिकता देने की आवश्यकता को प्रदर्शित किया है ताकि बाधाओं और नकारात्मक प्रवृत्तियों का दीर्घकाल के लिये समाधान किया जा सके।
- एक सुदृढ़ समन्वित दृष्टिकोण अपनाना:
- यह सुनिश्चित करने हेतु एक मज़बूत समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है ताकि मानवीय, विकास और शांति की स्थापना हेतु गतिविधियों को समग्र एवं समन्वित तरीके से वितरित किया जाए।
भारत और खाद्य असुरक्षा की स्थिति:
- भारत और खाद्य असुरक्षा के बारे में:
- द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2021 (SOFI) के अनुसार, भारत जो किविश्व में खाद्यान्न के सबसे बड़े भंडार वाला देश है (01 जुलाई 2021 तक 120 मिलियन टन), में विश्व की खाद्य-असुरक्षित आबादी का लगभग एक-चौथाई हिस्सा मौजूद है।
- अनुमानों के अनुसार, वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर 237 करोड़ से अधिक लोग खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे थे और वर्ष 2019 की तुलना में इनकी संख्या में लगभग 32 करोड़ की वृद्धि हुई थी।
- अकेले दक्षिण एशिया वैश्विक खाद्य असुरक्षा के 36 प्रतिशत का वहन करता है।
- संबंधित पहलें:
स्रोत: डाउन टू अर्थ
कृषि
चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण
प्रिलिम्स के लिये: चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR), चावल। मेन्स के लिये: सिंचाई, डीएसआर। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पंजाब सरकार ने चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR) का विकल्प चुनने वाले किसानों के लिये प्रति एकड़ 1,500 रुपए प्रोत्साहन राशि की घोषणा की है।
- राज्य में वर्ष 2021 में कुल धान या चावल क्षेत्र का 18% (5.62 लाख हेक्टेयर) DSR के तहत था, जबकि सरकार ने इसके तहत 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र लाने का लक्ष्य रखा है।
DSR और धान की सामान्य रोपाई में अंतर:
- धान की रोपाई:
- किसान धान की रोपाई में पहले धान के बीज बोकर नर्सरी तैयार करते हैं उसके बाद पौधों के रूप में उगाया जाता है।
- नर्सरी वाला क्षेत्र रोपाई किये जाने वाले क्षेत्र का 5-10% होता है।
- फिर इन पौधों को 25-35 दिन बाद उखाड़कर जल से भरे खेत में लगा दिया जाता है।
- चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण (DRS):
- DSR में पहले से अंकुरित बीजों को ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन द्वारा सीधे खेत में ड्रिल किया जाता है।
- इस पद्धति में कोई नर्सरी तैयारी या प्रत्यारोपण शामिल नहीं है।
- इसमें किसानों को केवल अपनी ज़मीन को समतल करना और बुवाई से पहले सिंचाई करनी होती है।
DSR की आवश्यकता:
- धान की रोपाई के दौरान पहले तीन हफ्तों में जल की उचित मात्रा को सुनिश्चित करने हेतु दैनिक रूप से पानी देना पड़ता है।
- DSR के तहत पहली सिंचाई (बुवाई से पहले के अलावा) बुवाई के 21 दिन बाद ही आवश्यक है।
- पंजाब कृषि विभाग के पिछले खरीफ सीज़न (2021-22) के आंँकड़ों के मुताबिक, 31.45 लाख हेक्टेयर में बासमती धान की बुआई हुई थी।
- अध्ययनों के अनुसार, धान की किस्म के आधार पर एक किलो चावल उत्पादन के लिये लगभग 3,600 लीटर से 4,125 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।
- लंबी अवधि की किस्मों के लिये अधिक पानी की आवश्यकता होती है।
- पंजाब में 32% क्षेत्र लंबी अवधि (लगभग 158 दिन) के धान की किस्मों के अंतर्गत आता है, और शेष धान उन किस्मों के अंतर्गत आता है, जिसे विकसित होने में 120 से 140 दिन लगते हैं।
DSR कितना पानी बचा सकता है:
- एक विश्लेषण के मुताबिक, डीएसआर तकनीक से 15 से 20 प्रतिशत पानी बचाने में मदद मिल सकती है।
- कुछ मामलों में पानी की बचत 22% से 23% तक की जा सकती है।
- DSR के साथ पारंपरिक तरीकों में 25 से 27 बार सिंचाई के मुकाबले15-18 बार ही सिंचाई की आवश्यकता होती है।
- अगर पूरी चावल की फसल को DSR तकनीक के दायरे में लाया जाए तो हर साल 810 से 1,080 अरब लीटर पानी बचाया जा सकता है।
DSR तकनीक के संभावित लाभ:
- श्रमिकों की कम संख्या की आवश्यकता: DSR श्रम की कमी की समस्याओं को हल कर सकता है क्योंकि पारंपरिक पद्धति की तरह इसमें धान की नर्सरी की आवश्यकता नहीं होती है और 30 दिन पुरानी धान की नर्सरी का रोपण खेत में किया जा सकता है।
- भूजल के लिये मार्ग: यह भूजल पुनर्भरण के लिये मार्ग प्रदान करता है क्योंकि यह मिट्टी की परत के नीचे कठोर परत के विकास को रोकता है, जैसा कि पोखर प्रत्यारोपण विधि में होता है।
- यह पोखर प्रतिरोपित फसल की तुलना में 7-10 दिन पहले पक जाती है, इसलिये धान की पराली के प्रबंधन के लिये अधिक समय मिल जाता है।
- उपज में वृद्धि: अनुसंधान परीक्षणों और किसानों के क्षेत्र सर्वेक्षण के परिणामों के अनुसार, इस तकनीक से प्रति एकड़ एक से दो क्विंटल अधिक पैदावार हो रही है।
DSR से हानि:
- उपयुक्तता: धान की सीधी बुआई में यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है, किसानों को इसे हल्की संरचना वाली मृदा (Light Textured Soil) में नहीं बोना चाहिये क्योंकि यह तकनीक मध्यम से जटिल संरचना वाली मृदा के लिये उपयुक्त है जिसमें रेतीली दोमट, दोमट मृदा तथा गाद दोमट मृदा शामिल हैं तथा जो राज्य के लगभग 80% क्षेत्र में पाई जाती है।
- उन खेतों में इस तकनीक का प्रयोग करने से बचने की कोशिश की जाती है जिनमें पिछले वर्ष धान (जैसे कपास, मक्का, गन्ना) के अलावा अन्य फसलें उगाई गई हो क्योंकि उस मृदा में इस तकनीक (DSR) के उपयोग से मृदा में लोहे की कमी और खरपतवार की समस्या उत्पन्न होने की संभावना है।
- लेज़र और लेवलिंग की अनिवार्यता: खेत का स्तर लेज़र द्वारा एक समान होना चाहिये।
- शाकनाशी का प्रयोग: शाकनाशी का छिड़काव बुवाई और पहली सिंचाई के साथ-साथ करना चाहिये।
चावल:
- चावल भारत की अधिकांश आबादी का मुख्य भोजन है।
- यह एक खरीफ की फसल है जिसे उगाने के लिये उच्च तापमान (25°C से अधिक तापमान) तथा उच्च आर्द्रता (100 सेमी. से अधिक वर्षा) की आवश्यकता होती है।
- कम वर्षा वाले क्षेत्रों में धान की फसल के लिये सिंचाई की आवश्यकता होती है।
- दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल में जलवायु परिस्थितियों की अनुकूलता के कारण चावल की दो या तीन फसलों का उत्पादन किया जाता है।
- पश्चिम बंगाल के किसान चावल की तीन फसलों का उत्पादन करते हैं जिन्हें 'औस', 'अमन और 'बोरो' कहा जाता है।
- भारत में कुल फसली क्षेत्र का लगभग एक-चौथाई चावल की खेती के अंतर्गत आता है।
- प्रमुख उत्पादक राज्य: पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब।
- अधिक उपज देने वाले राज्य: पंजाब, तमिलनाडु, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और केरल।
- भारत चीन के बाद चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
विगत वर्ष के प्रश्न:प्रश्न. भारत में पिछले पांँच वर्षों में खरीफ फसलों की खेती के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये (2019) 1. चावल की खेती का क्षेत्रफल सबसे अधिक है। 2. ज्वार की खेती के तहत क्षेत्रफल तिलहन की तुलना में अधिक है। 3. कपास की खेती का क्षेत्रफल गन्ने के क्षेत्रफल से अधिक है। 4. गन्ने की खेती के क्षेत्रफल में लगातार कमी आई है। उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (a)
प्रश्न. निम्नलिखित फसलों पर विचार कीजिये: (2013) 1. कपास 2. मूंँगफली 3. चावल 4. गेहूंँ उपर्युक्त में से कौन-सी खरीफ फसलें हैं? (a) केवल 1 और 4 उत्तर: (c) प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन पिछले पांँच वर्षों में विश्व में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक रहा है? (2019) (a) चीन उत्तर: (b) |
भारतीय राजव्यवस्था
जम्मू-कश्मीर परिसीमन
प्रिलिम्स के लिये: परिसीमन आयोग और संबंधित संवैधानिक प्रावधान, लोकसभा, विधानसभा, सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 370 मेन्स के लिये: भारतीय संविधान, चुनाव, वैधानिक निकाय, परिसीमन प्रक्रिया, जम्मू-कश्मीर का परिसीमन और संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा गठित एक आयोग ने जम्मू और कश्मीर में विधानसभा एवं संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन के लिये अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की
आयोग का गठन:
- परिसीमन तब आवश्यक हो गया जब जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 ने विधानसभा में सीटों की संख्या बढ़ा दी।
- तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य में 111 सीटें थीं, कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4, साथ ही 24 सीटें पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) के लिये आरक्षित थीं।
- तत्कालीन राज्य में संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन भारत के संविधान द्वारा शासित था और विधानसभा सीटों का परिसीमन जम्मू और कश्मीर लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 के तहत तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा किया गया था।
- वर्ष 2019 में जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त करने के बाद विधानसभा और संसदीय दोनों सीटों का परिसीमन संविधान द्वारा शासित होता है।
- परिसीमन आयोग का गठन 6 मार्च, 2020 को किया गया था।
- इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई ने की थी, इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त और जम्मू-कश्मीर के मुख्य चुनाव अधिकारी तथा जम्मू-कश्मीर के पांँच सांसद सहयोगी सदस्य के रूप में शामिल हैं।
किये गए बदलाव:
- विधानसभा: आयोग ने सात विधानसभा सीटों की वृद्धि की है- जम्मू में छह (अब 43 सीटें) और कश्मीर में एक (अब 47)।
- इसने मौजूदा विधानसभा सीटों की संरचना में भी बड़े पैमाने पर बदलाव किया है।
- लोकसभा: इस क्षेत्र में पांँच संसदीय क्षेत्र हैं। परिसीमन आयोग ने जम्मू और कश्मीर क्षेत्र को एकल केंद्रशासित प्रदेश के रूप में रखा है।
- आयोग ने अनंतनाग और जम्मू सीटों की सीमाएंँ पुनः निर्धारित की हैं।
- जम्मू का पीर पंजाल क्षेत्र जिसमें पुंछ एवं राजौरी ज़िले शामिल हैं और जो पहले जम्मू संसदीय सीट का हिस्सा था, अब कश्मीर के अनंतनाग सीट में जोड़ा गया है।
- साथ ही श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के एक शिया बहुल क्षेत्र को बारामूला निर्वाचन क्षेत्र में शामिल कर दिया गया है।
- कश्मीरी पंडित: आयोग ने विधानसभा में कश्मीरी प्रवासियों (कश्मीरी हिंदुओं) के कम-से-कम दो सदस्यों के प्रावधान की सिफारिश की है।
- इसने यह भी सिफारिश की है कि केंद्र को जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) से विस्थापित व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने पर विचार करना चाहिये, जो कि
- विभाजन के बाद जम्मू चले गए थे।
- अनुसूचित जनजाति: पहली बार अनुसूचित जनजाति के लिये कुल नौ सीटें आरक्षित हैं।
विवादास्पद गतिविधियांँ:
- निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को केवल जम्मू-कश्मीर में फिर से खींचा जा रहा है, जबकि देश के बाकी हिस्सों के लिये परिसीमन वर्ष 2026 तक रोक दिया गया है।
- जम्मू-कश्मीर में अंतिम परिसीमन अभ्यास वर्ष 1995 में किया गया था।
- वर्ष 2002 में तत्कालीन जम्मू-कश्मीर सरकार ने देश के बाकी हिस्सों की तरह वर्ष 2026 तक परिसीमन अभ्यास को स्थिर करने के लिये जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया।
- इसे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, दोनों ने रोक को बरकरार रखा।
- इसके अलावा जब परिसीमन एक नियम के रूप में जनगणना की आबादी के आधार पर किया जाता है, आयोग ने कहा कि यह जम्मू-कश्मीर के लिये कुछ अन्य कारकों को ध्यान में रखेगा, जिसमें आकार, दूरदर्शिता और सीमा की निकटता शामिल है।
विधानसभा सीटों में बदलाव की आवश्यकता:
- जब परिसीमन का आधार 2011 की जनगणना है, तो परिवर्तनों का मतलब है कि 44% आबादी (जम्मू) 48% सीटों पर मतदान करेगी, जबकि कश्मीर में रहने वाले 56% लोग शेष 52% सीटों पर मतदान करेंगे।
परिसीमन:
- निर्वाचन आयोग के अनुसार, किसी देश या एक विधायी निकाय वाले प्रांत में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों (विधानसभा या लोकसभा सीट) की सीमाओं को तय करने या फिर से परिभाषित करने का कार्य परिसीमन है।
- परिसीमन अभ्यास (Delimitation Exercise) एक स्वतंत्र उच्च शक्ति वाले पैनल द्वारा किया जाता है जिसे परिसीमन आयोग के रूप में जाना जाता है, इसके आदेशों में कानून का बल होता है और किसी भी न्यायालय द्वारा इस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
- किसी निर्वाचन क्षेत्र के क्षेत्रफल को उसकी जनसंख्या के आकार (पिछली जनगणना) के आधार पर फिर से परिभाषित करने के लिये वर्षों से अभ्यास किया जाता रहा है।
- एक निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को बदलने के अलावा इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राज्य में सीटों की संख्या में भी परिवर्तन हो सकता है।
- संविधान के अनुसार, इसमें अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिये विधानसभा सीटों का आरक्षण भी शामिल है।
- इसका मुख्य उद्देश्य भौगोलिक क्षेत्रों का एक निष्पक्ष विभाजन सुनिश्चित करने हेतु जनसंख्या के समान क्षेत्रों में समान प्रतिनिधित्व प्राप्त करना है ताकि सभी राजनीतिक दलों या चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के पास मतदाताओं की संख्या के मामले में समान अवसर हो।
परिसीमन का संवैधानिक आधार:
- प्रत्येक जनगणना के बाद भारत की संसद द्वारा संविधान के अनुच्छेद-82 के तहत एक परिसीमन अधिनियम लागू किया जाता है।
- अनुच्छेद 170 के तहत राज्यों को भी प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम के अनुसार क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है।
- एक बार अधिनियम लागू होने के बाद केंद्र सरकार एक परिसीमन आयोग का गठन करती है
- परिसीमन आयोग प्रत्येक जनगणना के बाद संसद द्वारा परिसीमन अधिनियम लागू करने के बाद अनुच्छेद 82 के तहत गठित एक स्वतंत्र निकाय है।
- हालाँकि पहला परिसीमन राष्ट्रपति के आदेश द्वारा (चुनाव आयोग की मदद से) 1950-51 में किया गया था।
- परिसीमन आयोग अधिनियम 1952 में अधिनियमित किया गया था।
- 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के तहत चार बार- 1952, 1963, 1973 तथा 2002 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था।
- 1981 और 1991 की जनगणना के बाद कोई परिसीमन नहीं हुआ।
परिसीमन आयोग की संरचना:
- परिसीमन आयोग का गठन भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है और यह भारत के चुनाव आयोग के सहयोग से कार्य करता है।
- संघटन:
- सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश
- मुख्य चुनाव आयुक्त
- संबंधित राज्य चुनाव आयुक्त
विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs):प्रश्न. परिसीमन आयोग के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2012) 1. परिसीमन आयोग के आदेश को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। 2. जब परिसीमन आयोग के आदेश लोकसभा या राज्य विधानसभा के समक्ष रखे जाते हैं, तो वे आदेशों में कोई संशोधन नहीं कर सकते हैं। उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: C |