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डेली न्यूज़

  • 05 Sep, 2020
  • 41 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

ड्राफ्ट ‘डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर’

प्रिलिम्स के लिये:

डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर, सहमति प्रबंधक संस्था, अकाउंट एग्रीगेटर्स

मेन्स के लिये:

डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीति आयोग (Niti Aayog) द्वारा 'डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर’ (Data Empowerment and Protection Architecture- DEPA) का मसौदा जारी किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • ड्राफ्ट- DEPA पर 1 अक्तूबर तक सभी हितधारकों से प्रतिक्रिया मांगी गई है।
  • ड्राफ्ट- DEPA,  ‘डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर’ (DEPA) को वर्ष 2020 में क्रियान्वित किये जाने की व्यवहारिता को दर्शाता है।

DEPA का विज़न:

  • ड्राफ्ट- DEPA इस अवधारणा पर आधारित है कि व्यक्ति स्वयं व्यक्तिगत डेटा की उपयोगिता को निर्धारित करने के मामले में सबसे अच्छे न्यायाधीश हैं। अत: व्यक्तियों का अपने व्यक्तिगत डेटा का उपयोग करने तथा इसे साझा करने के तरीकों पर नियंत्रण होना चाहिये। 
  • ड्राफ्ट- DEPA इस विश्वास के साथ तैयार किया गया है कि डेटा संरक्षण की दिशा में कार्य करने वाली एजेंसियाँ भारतीयों को अपने जीवन को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

DEPA के आधार:

  • ‘डेटा एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर’ के निर्माण के लिये सामान्यत: तीन आधारभूत स्तंभों की आवश्यकता होती है:
    • विनियमन को सक्षम करना; 
    • अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के मानकों का निर्धारण,;
    • सार्वजनिक और निजी संगठनों की भागीदारी। 
  • ड्राफ्ट- DEPA में इन तीनों को आधार बनाया गया है।

ड्राफ्ट- DEPA के प्रमुख प्रावधान:

पहुँच तथा साझा का अधिकार (Access and Sharing Rights):

  • यह लोगों को सुरक्षित रूप से अपने डेटा तक पहुँच स्थापित करने और इसे तीसरे पक्ष अथवा संस्थानों के साथ साझा करने का अधिकार देता है।

‘सहमति प्रबंधक संस्था’ (Consent Manager institution):

  • एक नवीन 'सहमति प्रबंधक संस्था' की स्थापना की जाएगी, जो यह सुनिश्चित करने की दिशा में कार्य करेगी कि व्यक्ति द्वारा निजी डेटा के उपयोग के लिये प्रदान की गई सहमति का दुरुपयोग न किया जाए तथा इसके लिये 'नवीनतम डिजिटल मानकों' (API मानकों) का उपयोग किया जाए।
  • ये 'सहमति प्रबंधक संस्थान’ व्यक्तिगत डेटा अधिकारों की सुरक्षा करने की दिशा में भी कार्य करेंगे। 

Data-Empowerment

सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

‘अकाउंट एग्रीगेटर्स’ प्रणाली:

  • वित्तीय क्षेत्र में 'सहमति प्रबंधकों' जिन्हे; 'अकाउंट एग्रीगेटर्स' (AA) के रूप में जाना जाता है, की स्थापना की दिशा में आरबीआई द्वारा पूर्व में दिशा-निर्देश जारी किये गए थे। 
    • अकाउंट एग्रीगेटर (फाइनेंशियल डेटा एग्रीगेटर) एक वेब आधारित अथवा API आधारित प्रणाली है जो विभिन्न प्रकार के अकाउंट, जैसे- बैंक अकाउंट, इन्वेस्टमेंट अकाउंट, क्रेडिट कार्ड अकाउंट आदि की सूचनाओं को संग्रहीत करती है।
  • एक नवीन 'गैर-लाभकारी संस्थान 'अकाउंट एग्रीगेटर्स' (AA) 'डिजिसहमति फाउंडेशन (DigiSahamati Foundation) जिसे 'सहमति’ (Sahamati) कहा जाता है, मौजूदा वित्तीय संस्थाओं को तकनीकी मानकों को अपनाने में सहयोग प्रदान करने की दिशा में कार्य करेगा।

स्वास्थ्य क्षेत्र में 'वन हेल्थ आईडी':

  • DEPA को स्वास्थ्य क्षेत्र में लागू किया जा रहा है। प्रधानमंत्री द्वारा 'राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन' (National Digital Health Mission) की घोषणा की गई थी, जो 'वन हेल्थ आईडी' और व्यक्तिगत स्वास्थ्य रिकॉर्ड को साझा करने की रूपरेखा शामिल करता है।

अन्य प्रमुख कदम:

  • दूरसंचार क्षेत्र में जुलाई 2018 में ‘भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण’ (TRAI) जारी गोपनीयता पर परामर्श रिपोर्ट के बाद DEPA को लागू किया जा रहा है।
  • सरकारी विभागों में DEPA को लागू करने का प्रयास 'वस्तु एवं सेवा कर’ (GST) में किया गया है। यह प्रथम 'सरकारी सूचना प्रदाता' (Government Information Provider- GIP) विभाग होगा।  

GIP

DEPA का महत्त्व:

वित्तीय समावेशन:

  • वर्तमान समय में कम विश्वसनीय डेटा तथा असंगठित देता के कारण भारत की अधिकांश ग्रामीण और शहरी गरीब आबादी व्यक्तिगत तथा वित्तीय उत्पादों तक पहुँच में असमर्थ है। 
  • डेटा का अच्छी तरह से डिज़ाइन किया गया पूल व्यक्तियों को गरीबी के जाल से बाहर निकालने और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) के विकास को प्रोत्साहित करने में सहायक होगा। 

विकेंद्रीकृत प्रणाली:

  • DEPA में वर्तमान 'संगठन-केंद्रित डेटा साझाकरण प्रणाली' के स्थान पर 'व्यक्तिगत केंद्रित दृष्टिकोण' पर बल दिया गया है, जो डेटा साझाकरण उपयोगकर्त्ता के नियंत्रण को बढ़ावा देता है।
  • वर्तमान समय में डेटा को एकत्रित करना बहुत ही बोझिल कार्य है अत: विकेंद्रित डेटा भंडारण इस बोझ में कम करेगा।

व्यापक उपयोगिता:

  • DEPA को  वित्तीय और हेल्थकेयर सहित विभिन्न क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है। इसे दूरसंचार, शैक्षिक आदि क्षेत्रों में लागू करने से नौकरियों के बेहतर अवसर बन सकते हैं।

निष्कर्ष:

  • ऐसा विश्वास किया जा सकता है DEPA के माध्यम से परिवर्तनकारी डेटा गवर्नेंस दृष्टिकोण को लागू करने में मदद मिलेगी। यह भारत के नवीन 'इंडिया वे' (India Way) दृष्टिकोण को दर्शाता है जो डेटा सुरक्षा, साझाकरण, सहमति और गोपनीयता के संबंध में दुनिया भर के अन्य मॉडलों से काफी अलग है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

प्रोजेक्ट डॉल्फिन और गंगा डॉल्फिन संरक्षण

प्रिलिम्स के लिये

प्रोजेक्ट डॉल्फिन, गंगा डॉल्फिन, नमामि गंगे, प्रोजेक्ट टाइगर, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972

मेन्स के लिये

भारत में गंगा डॉल्फिन की स्थिति और उसके संरक्षण हेतु किये गए प्रयास

चर्चा में क्यों?

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लालकिले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने प्रोजेक्ट डॉल्फिन लॉन्च करने की सरकार की योजना की घोषणा की थी। इस प्रस्तावित परियोजना का उद्देश्य नदी और समुद्री डॉल्फिन की सुरक्षा करना है।

प्रमुख बिंदु

  • प्रोजेक्ट डॉल्फिन 
    • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रोजेक्ट डॉल्फिन (Project Dolphin) को प्रोजेक्ट टाइगर की तर्ज पर चलाया जाएगा। प्रोजेक्ट टाइगर एक बाघ संरक्षण कार्यक्रम है, जिसने देश में बाघों की संख्या बढ़ाने में उल्लेखनीय कार्य किया है।
    • प्रोजेक्ट डॉल्फिन को बीते वर्ष दिसंबर माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय गंगा परिषद (NGC) की पहली बैठक में मंज़ूरी मिली थी।
    • अब तक नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (NMCG), जो कि सरकार की प्रमुख योजना नमामि गंगे को लागू करता है, ने डॉल्फिन को बचाने के लिये कुछ पहल की हैं।
    • अनुमानतः डॉल्फिन के संरक्षण के लिये यह प्रोजेक्ट डॉल्फिन पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा लागू किया जाएगा। 

गंगा डॉल्फिन 

  • गंगा नदी जल प्रणाली जलीय जीवन की एक विशाल विविधता का घर है, जिसमें गंगा डॉल्फिन (Gangetic Dolphin) भी शामिल है। इसका वैज्ञानिक नाम प्लैटनिस्टा गैंगेटिका (Platanista Gangetica) है।
  • गंगा डॉल्फिन विश्व भर की नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन की पाँच प्रजातियों में से एक है। इस प्रकार की डॉल्फिन मुख्य तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप खासतौर पर गंगा-ब्रह्मपुत्र-सिंधु-मेघना और कर्णाफुली-सांगू (Karnaphuli-Sangu) नदी तंत्र में पाई जाती हैं। 
  • ‘गंगा डॉल्फिन संरक्षण कार्य योजना 2010-2020’ में नर डॉल्फिन को 2 से 2.2 मीटर लंबा और मादा डॉल्फिन को 2.4 से 2.6 मीटर लंबा बताया गया है।
  • एक वयस्क गंगा डॉल्फिन का वजन 70 किलोग्राम से 90 किलोग्राम के बीच हो सकता है।
  • भारत में ये असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों में पाई जाती है। भारत सरकार ने गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव (National Aquatic Animal) के रूप में मान्यता दी है।

डॉल्फिन को सुरक्षित करने का महत्त्व

  • एक समय था जब गंगा डॉल्फिन (Gangetic Dolphin) को गंगा में बंगाल की खाड़ी के डेल्टा से लेकर हिमालय की तलहटी में ऊपर के कई स्थानों पर देखा जा सकता था। यह गंगा की सहायक नदियों में भी पाई जाती थी। 
  • कई विशेषज्ञ मानते हैं कि 19वीं शताब्दी के दौरान दिल्ली की यमुना नदी में भी डॉल्फिन पाई जाती थी।
  • हालाँकि नदियों पर बाँधों के निर्माण और बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण जलीय जीवों खासतौर पर डॉल्फिन की आबादी में गिरावट आई है।
  • जलीय जीवों का जीवन नदी के पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य का एक संकेतक है। चूँकि गंगा डॉल्फिन खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर है, इसलिये नदी के जलीय जीवन का संरक्षण सुनिश्चित करने के लिये गंगा डॉल्फिन की रक्षा करना काफी आवश्यक है।

डॉल्फिन के लिये खतरे

  • जल प्रदूषण के रूप में एकल उपयोग वाले प्लास्टिक औद्योगिक प्रदूषण, मछली पकड़ने वाले जाल, नदियों में गाद का जमा होना, तेल प्राप्त करने के लिये इनका शिकार करना, आदि इनकी उपस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक हैं।
  • नदियों पर बने बांध भी इनकी इनकी वृद्धि को प्रभावित कर रहे हैं, क्योंकि ये संरचनाएँ पानी के प्रवाह को बाधित करती हैं।

वर्तमान में गंगा डॉल्फिन की स्थिति

  • हालाँकि इस संबंध में कोई सटीक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, किंतु विभिन्न अनुमानों से पता चलता है कि भारत में गंगा डॉल्फिन की आबादी लगभग 2,500-3,000 हो सकती है।
  • हालाँकि बीते वर्ष केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री बाबुल सुप्रियो ने लोकसभा को सूचित किया था कि अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग 1,272 डॉल्फिन और असम में लगभग 962 डॉल्फिन हैं।
  • ध्यातव्य है कि गंगा के बढ़ते प्रदूषण के कारण उसमें जलीय जीवन पर खासा प्रभाव पड़ा है, खासतौर पर डॉल्फिन की संख्या में कमी देखने को मिली है।

गंगा डॉल्फिन को बचाने के प्रयास

  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम: वर्ष 1985 में गंगा एक्शन प्लान (Ganga Action Plan) की शुरुआत के बाद 24 नवंबर, 1986 को सरकार ने एक अधिसूचना के माध्यम से गंगा डॉल्फिन को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की प्रथम अनुसूची में शामिल कर दिया गया था। सरकार के इस कदम का उद्देश्य गंगा डॉल्फिन के संरक्षण को बढ़ावा देना और उनके लिये वन्यजीव अभयारण्यों जैसी संरक्षण सुविधाएँ प्रदान करना था। उदाहरण के लिये बिहार में विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन अभयारण्य इसी अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था। 
  • संरक्षण योजना: सरकार ने ‘गंगा डॉल्फिन संरक्षण कार्य योजना 2010-2020’ भी तैयार की है, जिसमें गंगा डॉल्फिन के समक्ष मौजूद खतरों और उनकी आबादी पर नदी के यातायात और सिंचाई नहरों आदि के प्रभावों की पहचान की गई है।
  • राष्ट्रीय जलीय जीव: 5 अक्तूबर, 2009 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (NGRBA) की पहली बैठक की अध्यक्षता करते हुए गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया था। अब राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन द्वारा प्रत्येक वर्ष 5 अक्तूबर को गंगा डॉल्फिन दिवस मनाया जाता है।

निष्कर्ष

इस प्रकार, भारत में डॉल्फिन के संरक्षण के प्रयास 1980 के दशक के मध्य से ही शुरू हो गए थे, किंतु विश्लेषण से पता चलता है कि इन प्रयासों से डॉल्फिन की संख्या पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है। तमाम प्रयासों के बावजूद भी गंगा डॉल्फिन अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की लुप्तप्राय (Endangered) सूची में शामिल है। सरकार द्वारा शुरू किया जा रहा प्रोजेक्ट डॉल्फिन (Project Dolphin) इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है, हालाँकि आवश्यक है कि प्रोजेक्ट के लॉन्च के बाद इसके कार्यान्वयन पर भी ध्यान दिया जाए। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र ऋण संबंधी दिशा निर्देशों में संशोधन

प्रिलिम्स के लिये:   

प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र ऋण, शहरी सहकारी बैंक, आयुष्मान भारत  

मेन्स के लिये:

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार हेतु सरकार के प्रयास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) ने ‘स्टार्ट अप’ (Start Up) और कृषि क्षेत्र सहित कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में पूंजी की उपलब्धता को बेहतर बनाने के लिये प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र ऋण (Priority Sector Lending- PSL) संबंधी संशोधित दिशा निर्देश जारी किये हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • RBI द्वारा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के दायरे का विस्तार करते हुए इसमें स्टार्टअप के लिये 50 करोड़ रुपए तक का वित्तपोषण और कृषि क्षेत्र में सौर ऊर्जा चालित पंप तथा संपीड़ित बायोगैस संयंत्रों की स्थापना के हेतु ऋण को भी शामिल कर दिया गया है।
  • ‘छोटे और सीमांत किसानों’ (Small and Marginal Farmers) तथा ‘कमज़ोर वर्गों’ के लिये निर्धारित लक्ष्यों को चरणबद्ध तरीके से बढ़ाया जा रहा है। 
  • RBI द्वारा PSL प्रावधानों में हालिया संशोधन के माध्यम से नवीकरणीय ऊर्जा के लिये ऋण सीमा को बढ़ा कर दोगुना कर दिया गया है।
  • इसके साथ ही RBI द्वारा PSL के तहत स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे (आयुष्मान भारत सहित) के लिये ऋण सीमा को भी दोगुना कर दिया गया है।
  • RBI के अनुसार, संशोधित PSL दिशा निर्देश के माध्यम से ऋण उपलब्धता की कमी वाले क्षेत्रों में क्रेडिट पहुँच को बेहतर बनाने में सहायता प्राप्त होगी। 
  • RBI द्वारा PSL दिशा निर्देशों में परिवर्तनों का उद्देश्य  इसे उभरती राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के साथ संरेखित करना और समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करना है।
  •  इससे पहले  PSL दिशा निर्देशों की समीक्षा अप्रैल 2015 में व्यावसायिक बैंकों और मई 2018 में ‘शहरी सहकारी बैंकों’ (Urban Cooperative Banks- UCBs) के लिये की गई थी।

कृषि क्षेत्र से संबंधित सुधार:

  • RBI द्वारा ‘किसान उत्पादक संगठनों’ (Farmers Producers Organisations- FPOs) और कृषि क्षेत्र में सक्रिय ‘किसान उत्पादक कंपनियों’ (Farmers Producer Companies- FPCs) के लिये ऊँची ऋण सीमा का निर्धारण किया गया है। 
  • साथ ही FPOs और FPCs के लिये उनकी उपज के पूर्व निर्धारित मूल्य पर विपणन का प्रावधान भी किया गया है।  
  • कृषि क्षेत्र के लिये प्रति इकाई ऋण की सीमा 2 करोड़ रुपए निर्धारित की गई है।
  • RBI द्वारा इस सुधारों के तहत छोटे और सीमांत किसानों तथा कमज़ोर वर्गों के लिये निर्धारित लक्ष्यों को बढ़ाया गया है।  
  • RBI के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान गैर-व्यावसायिक किसानों के लिये निर्धारित ऋण वितरण का लक्ष्य के तहत ‘समायोजित निवल बैंक ऋण’ (Adjusted Net Bank Credit-ANBC) या ‘ऑफ-बैलेंस शीट एक्सपोज़र की समतुल्य राशि’ (Credit Equivalent Amount of Off-Balance Sheet Exposure-CEOBE) का 12% (जो भी अधिक हो) लागू होगा।  

छोटे और सीमांत किसानों का निर्धारण:

  • RBI द्वारा 1 हेक्टेयर तक की भूमि वाले किसानों को सीमांत किसान (Marginal Farmers) तथा 1 हेक्टेयर से अधिक और 2 हेक्टेयर से कम की भूमि वाले किसानों को छोटे किसानों (Small Farmers) के रूप में परिभाषित किया गया है।  

नवीकरणीय ऊर्जा:

  • RBI द्वारा PSL के तहत नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र से संबंधित ऋण की सीमा को दोगुना कर दिया गया है।
  • RBI के अनुसार, सौर तथा जैव-ईंधन आधारित ऊर्जा उत्पादन संयंत्र, पवन चक्की (Windmill), सूक्ष्म जल विद्युत संयंत्र, गैर-पारंपरिक ऊर्जा-आधारित सार्वजनिक उपयोगिताओं जैसे- स्ट्रीट लाइट प्रणाली और दूरदराज़ के गांव के विद्युतीकरण आदि से जुड़ी परियोजनाएँ PSL के तहत ऋण प्राप्त करने के लिये पात्र होंगी।
  • इसके तहत ऋण की अधिकतम सीमा 30 करोड़ रुपए निर्धारित की गई है।
  • साथ ही व्यक्तिगत परिवारों के लिये अधिकतम ऋण की सीमा 10 लाख रुपए होगी।

स्वास्थ्य क्षेत्र:  

  • RBI ने स्वास्थ्य अवसंरचनाओं में सुधार (आयुष्मान भारत सहित) हेतु ऋण सीमा को दोगुना कर दिया है। 
  • RBI द्वारा PSL प्रावधानों में किये गए हालिया परिवर्तन के पश्चात टीयर II से टीयर VI (Tier II to Tier VI) केंद्रों में स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों के निर्माण के लिये ऋण सीमा को बढ़ाकर 10 करोड़ रुपए तक कर दिया गया है।

क्षेत्रीय असमानता से संबंधित सुधार:

  • RBI द्वारा ऋण वितरण के संदर्भ में क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिये संशोधित PSL दिशा निर्देशों के माध्यम से कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार किये गए हैं।
  • इसके तहत प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में ऋण की उपलब्धता के आधार पर ज़िलों की सूची तैयार की जाएगी।
  • इसके आधार पर प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के संदर्भ में कम ऋण प्रवाह वाले ज़िलों के लिये एक प्रोत्साहन फ्रेमवर्क का निर्माण किया जाएगा।
  • इसके तहत वित्तीय वर्ष 2021-22 से ऐसे चिन्हित ज़िलों जहाँ प्रति व्यक्ति PSL 6000 रुपए से कम होगा उनमें वृद्धिशील प्राथमिकता प्राप्त ऋण पर उच्च भारांश (125%) लागू होगा।
  • साथ ही ऐसे ज़िले जिनमें प्रति व्यक्ति PSL 25000 रुपए से अधिक होगा उनमें वृद्धिशील प्राथमिकता प्राप्त ऋण पर कम भारांश (90%) लागू होगा। 
  • इसके माध्यम से कम ‘प्रति व्यक्ति PSL’ वाले देश के लगभग 184 ज़िलों को लाभ प्राप्त होगा।
  • RBI द्वारा दोनों श्रेणियों के बैंकों की सूची जारी कर दी गई है। यह सूची वित्तीय वर्ष 2023-24 तक वैध रहेगी, जिसके बाद इसकी पुनः समीक्षा की जाएगी। 
  • जो ज़िले इन दोनों सूचियों में नहीं शामिल हैं उन्हें पूर्व की तरह 100% भारांश प्राप्त होता रहेगा। 

  लाभ:  

  • RBI द्वारा PSL में सुधारों की घोषणा ऐसे समय में की गई है जब वर्तमान में देश की अर्थव्यवस्था में लगभग 23% की गिरावट देखी गई है।
  • PSL के तहत अलग-अलग क्षेत्रों के लिये ब्याज की दर भिन्न होती है परंतु सामान्य ऋण की तुलना में यह अधिक सस्ता और सुलभ माना जाता है। 
  • RBI के अनुसार , इसके माध्यम से छोटे और सीमांत किसानों तथा कमज़ोर वर्गों के लिये ऋण की उपलब्धता बढ़ेगी, साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े बुनियादी ढांचे के लिये ऋण को बढ़ावा दिया जा सकेगा।
  • RBI के इस कदम से ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में सहायता प्राप्त होगी।
  • वर्तमान में COVID-19 के दौरान स्वास्थ्य चुनौतियों को देखते हुए स्वास्थ्य अवसंरचना पर ऋण सीमा को बढ़ाए जाने से देश में प्राथमिक स्तर पर स्वास्थ्य तंत्र को मज़बूती प्रदान करने में सहायता प्राप्त होगी।

प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र ऋण :

  • प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र से आशय ऐसे क्षेत्रों से है जिन्हें भारत सरकार तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा देश की बुनियादी ज़रूरतों के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण माना जाता है तथा इसके कारण उन्हें अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक प्राथमिकता दी जाती है।
  • RBI द्वारा जारी PSL की सूची में निम्नलिखित 8 क्षेत्र शामिल हैं।
  • कृषि, ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम’, निर्यात ऋण, शिक्षा, आवास,  सामाजिक अवसंरचना, नवीकरणीय ऊर्जा, अन्य।
  • RBI के प्रावधानों के अनुसार, सभी व्यावसायिक बैंकों (स्थानीय और विदेशी) के लिये अपने कुल ‘समायोजित निवल बैंक ऋण’ (Adjusted Net Bank Credit- ANBC) का 40% PSL के लिये निर्धारित करना अनिवार्य है।
  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और छोटे वित्तीय बैंकों को अपने ANBC का 70% PSL के लिये आवंटित करना अनिवार्य है।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

प्रारंभिक बाल विकास की अवधारणा और महत्त्व

प्रिलिम्स के लिये

स्टेट ऑफ द यंग चाइल्ड इंडिया इन इंडिया’ रिपोर्ट

मेन्स के लिये

प्रारंभिक बाल विकास की अवधारणा और उसका महत्त्व

चर्चा में क्यों?

गैर-सरकारी संगठन (NGO) मोबाइल क्रेच (Mobile Creches) द्वारा निर्मित और उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक केरल, गोवा, त्रिपुरा, तमिलनाडु और मिज़ोरम बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल के मामले में शीर्ष पाँच राज्य हैं।

प्रमुख बिंदु

    • मोबाइल क्रेच (Mobile Creches) द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ द यंग चाइल्ड इंडिया इन इंडिया’ रिपोर्ट में दो प्रकार के इंडेक्स तैयार किये गए हैं- (1) यंग चाइल्ड आउटकम इंडेक्स और (2) यंग चाइल्ड एनवायरनमेंट इंडेक्स।
      • यंग चाइल्ड आउटकम इंडेक्स: यह इंडेक्स छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के बीच स्वास्थ्य पोषण और ज्ञान-संबंधी विकास को मापता है, इस इंडेक्स सबसे अच्छा प्रदर्शन केरल का जबकि सबसे खराब प्रदर्शन बिहार का रहा है
      • इस इंडेक्स में ऐसे कुल आठ राज्यों की पहचान की गई है, जिन्होंने बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और ज्ञान-संबंधी विकास के मामले में देश के औसत अंकों से भी कम अंक प्राप्त किये हैं, इन आठ राज्यों में- असम, मेघालय, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार शामिल हैं।
      • यंग चाइल्ड एनवायरनमेंट इंडेक्स: इस इंडेक्स के माध्यम से बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले नीतिगत उपायों को समझने का प्रयास किया गया है।
      • इस इंडेक्स में बच्चे के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले पाँच नीतिगत उपायों यथा- गरीबी उन्मूलन, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को मज़बूत करना, शिक्षा स्तर में सुधार करना, स्वच्छ जल आपूर्ति और लिंग समानता का प्रचार, को शामिल किया गया है।
      • इस इंडेक्स में केरल, गोवा, सिक्किम, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने शीर्ष पाँच स्थान प्राप्त किये हैं। रिपोर्ट के अनुसार, जिन राज्यों ने पहले इंडेक्स में बेहतर प्रदर्शन किया है, उन्होंने दूसरे इंडेक्स में भी अच्छा प्रदर्शन किया है, जबकि पहले इंडेक्स में खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य दूसरे इंडेक्स में भी कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं।

    बच्चों के स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता

    • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की आबादी में छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या तकरीबन 13.1 प्रतिशत है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2015-16 में पाँच वर्ष की आयु से कम उम्र के तकरीबन 21 प्रतिशत बच्चे अल्पपोषण से प्रभावित थे। वहीं 6 माह से 23 माह के बीच के 94.1 प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त आहार प्राप्त नहीं हुआ था। 
    • नीति निर्माताओं द्वारा इस आयु समूह की उपेक्षा करना और इसके विकास पर ध्यान न देने का ही कारण है कि शिशु मृत्यु दर (IMR), बच्चों की देखभाल और उनके पोषण तथा विकास के मामले में भारत का प्रदर्शन काफी अच्छा नहीं रहा है।

    प्रारंभिक बाल विकास की अवधारणा

    • प्रायः बच्चों के विकास में बचपन के शुरुआती क्षण काफी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं और उनका असर जीवन भर देखने को मिलता है। जन्म के पश्चात् शिशु का मस्तिष्क काफी तेज़ी से विकसित होता है और उसके शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक विकास में उल्लेखनीय भूमिका अदा करता है, इसलिये कई विशेषज्ञ प्रारंभिक बाल विकास (Early Childhood Development) की अवधारणा पर काफी ज़ोर देते हैं।
    • महत्त्व
      • युवा बच्चों को समग्र विकास का एक ठोस आधार प्रदान कर भविष्य में नए अवसरों का दोहन किया जा सकता है।
      • इससे गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधन का विकास होता है।
      • इसके माध्यम से आम जन-जीवन के रहन-सहन के स्तर में बढ़ोतरी संभव है।
      • प्रारंभिक बाल विकास युवा अवस्था के लिये एक नींव के तौर पर कार्य करता है।

    चुनौती

    • बड़ी संख्या में भारतीय परिवार अपनी आर्थिक स्थिति के कारण बच्चों को पोषण और गुणवत्तापूर्ण देखभाल प्रदान करने में सक्षम नहीं होते हैं और प्रायः अल्पपोषण और कुपोषण जैसी समस्याएँ भी इसी वर्ग के बीच देखी जाती हैं।
    • गौरतलब है कि भारत में बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल और उनके पोषण पर ध्यान देने के लिये कई नीतियाँ और योजनाएँ यथा- एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS), राष्ट्रीय बाल कार्य योजना 2005 और राष्ट्रीय बाल देखभाल और शिक्षा नीति, 2013 आदि बनाई गई हैं। हालाँकि इन सब के बावजूद बच्चों के पोषण की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आ सका है।

    सुझाव

    • बच्चों के माता-पिता को स्वास्थ्य देखभाल, अनुकूल आहार और बच्चों को घर पर शुरुआती शिक्षा देने के लिये प्रशिक्षित किया जा सकता है।
    • प्रारंभिक बाल विकास (ECD) के संबंध में केवल योजनाओं के निर्माण से ही सफलता प्राप्त नही की जा सकती है, बल्कि योजनाओं के कार्यान्वयन पर भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
      • बच्चों के लिये नीतिगत और कानूनी ढाँचे को मज़बूत करने की आवश्यकता है, साथ ही इससे अंतः परस्पर संबद्ध (Interconnected) क्षेत्रों जैसे- मातृत्त्व और बाल स्वास्थ्य आदि में निवेश बढाने की आवश्यकता है।
    • गरीबी और संसाधनों की कमी से जूझ रहे परिवारों को इस संबंध में सक्षम बनाना केंद्र और राज्य सरकार का दायित्त्व है और उन्हें इस महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को समझते हुए आवश्यक नीति का निर्माण करना चाहिये।

    स्रोत: द हिंदू


    भारतीय राजनीति

    स्थायी समितियों के कार्यकाल में विस्तार

    प्रिलिम्स के लिये:

    संसदीय समितियाँ,  तदर्थ समिति

    मेन्स के लिये:

    भारतीय लोकतंत्र में संसदीय समितियों की भूमिका 

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में राज्यसभा सचिवालय द्वारा विभागीय स्थायी समितियों के कार्यकाल को 1 वर्ष से बढ़ाकर 2 वर्ष करने के लिये इससे संबंधित नियमों में बदलाव पर विचार किया जा रहा है।

    प्रमुख बिंदु:

    • गौरतलब है कि वर्तमान में राज्यसभा में कार्यरत सभी स्थायी समितियों का कार्यकाल 11 सितंबर, 2020 को समाप्त हो जाएगा और इसके पश्चात वे नए पैनल की स्थापना तक विचार-विमर्श नहीं कर सकेंगी।  
    • कई समिति अध्यक्षों के अनुसार, उनकी समिति के कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा COVID-19 महामारी के कारण नष्ट हो गया। 
    • इसी प्रकार कई अन्य समितियाँ अपनी रिपोर्ट पूरी नहीं कर सकी हैं। उदाहरण के लिये सूचना प्रौद्योगिकी पर बने एक पैनल द्वारा नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा और  सोशल मीडिया/ ऑनलाइन समाचार प्लेटफार्मों के दुरुपयोग (जिसमें इंटरनेट पर महिला सुरक्षा के मुद्दे पर पर विशेष ज़ोर देते दिया गया) को रोकने  के लिये विचार-विमर्श को पूरा नहीं किया जा सका है।
    • ध्यातव्य है कि पैनल ने इसी मुद्दे पर हाल ही में सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक को समन (Summon) भेजा था।
    • इसी प्रकार COVID-19 से निपटने की तैयारी पर बनी एक अन्य समिति अभी तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर सकी है।

    समाधान:

    • वर्तमान में इस चुनौती से निपटने के लिये दो विकल्पों पर विचार किया जा रहा है।
      1. वर्तमान पैनल के कार्यकाल को एक वर्ष के लिये बढ़ाया जाना। 
      2. दो वर्ष के निर्धारित कार्यकाल के साथ नई समितियों का गठन करना।

    स्थायी समितियों का महत्त्व:  

    • संसद के कार्यदिवसों में कमी और संसद में प्रस्तुत विधेयकों की संख्या अधिक होने से सदन में ही इन पर व्यापक चर्चा कर पाना बहुत कठिन है। ऐसे में स्थायी समितियाँ प्रस्तावित विधेयकों पर चर्चा और सुधारों के लिये एक मंच प्रदान करती हैं।
    • संसदीय समितियाँ सरकार की नीतियों का परीक्षण कर उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं।  

    स्थायी समितियों से संबंधित दिशा निर्देशों का नया मसौदा:

    • हाल ही में राज्यसभा सचिवालय द्वारा स्थायी समितियों के लिये दिशानिर्देशों का नया मसौदा तैयार किया गया है। इस मसौदे में कई महत्त्वपूर्ण सुधार प्रस्तावित किये गए हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-   
      • किसी भी पैनल की बैठक से पहले कम-से-कम 15 दिन का नोटिस और 1/3 सदस्यों से इसकी पुष्टि की अनिवार्यता।
      • योग्यता, रुचियों और कार्यक्षेत्र के आधार पर सदस्यों का नामांकन। 
      • साक्ष्य एकत्र करने और रिपोर्ट को  अपनाने या उसके निर्धारण के लिये कम-से-कम 50% सदस्यों की उपस्थिति की अनिवार्यता।

    संसदीय समितियाँ:

    • भारत में आमतौर पर दो प्रकार की संसदीय समितियाँ होती हैं।
      • स्थायी समिति (Standing Committee)
      • तदर्थ समिति (Ad Hoc Committee)
    • स्थायी समिति:  स्थायी समितियों अनवरत रूप से कार्य करती रहती हैं, इनका गठन वार्षिक रूप से किया जाता है। वित्तीय समितियाँ, विभागीय समितियाँ आदि स्थायी समितियों के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
    • तदर्थ समिति:  तदर्थ या अस्थायी समितियों का गठन किसी विशेष उद्देश्य के लिये किया जाता है। उद्देश्य की पूर्ति हो जाने के पश्चात् संबंधित अस्थायी समिति को भी समाप्त कर दिया जाता है। अस्थायी समितियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

      • जाँच समितियाँ
      • सलाहकार समितियाँ
    • विभागीय समितियाँ:  वर्तमान में ऐसी कुल समितियों की संख्या 24 है, इनमें से 16 लोकसभा और 8 राज्यसभा के अंतर्गत कार्य करती हैं।

    सदस्य:  

    • प्रत्येक विभागीय समिति में अधिकतम 31 सदस्य (21 लोकसभा से और 10 राज्यसभा से) होते हैं। समिति में शामिल लोकसभा सदस्यों का मनोनयन लोकसभा स्पीकर तथा राज्यसभा सदस्यों का मनोनयन राज्यसभा के सभापति द्वारा किया जाता है।
    • कोई भी मंत्री किसी स्थायी समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत होने के लिये पात्र नहीं होता है।  
    • कार्यकाल:   प्रत्येक स्थायी समिति का कार्यालय उसके गठन की तिथि से एक वर्ष के लिये होता है।  

    स्रोत: द हिंदू


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