वेतन दर सूचकांक (WRI)
प्रिलिम्स के लिये:वेतन दर सूचकांक, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग मेन्स के लिये:वेतन दर सूचकांक से संबंधित प्रमुख तथ्य एवं इसके आधार वर्ष में परिवर्तन का कारण। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सरकार ने वेतन दर सूचकांक (WRI) के लिये आधार वर्ष को संशोधित कर 2016 कर दिया है जो 1963-65 के आधार वर्ष से संबंधित पुरानी शृंखला को परिवर्तित करेगा।
- वेतन दर सूचकांक संख्या समय की अवधि में वेतन दरों में सापेक्ष परिवर्तनों को मापती है, किसी उद्योग में उच्च या निम्न वेतन दर सूचकांक अन्य उद्योगों की तुलना में उस उद्योग में उच्च या निम्न वेतन दर को इंगित नहीं करता है।
- एक आधार वर्ष एक आर्थिक या वित्तीय सूचकांक में वर्षों की शृंखला में से पहला वर्ष होता है और आमतौर पर इसे 100 के स्वैच्छिक स्तर पर निर्धारित किया जाता है।
प्रमुख बिंदु
- परिचय:
- श्रम और रोज़गार मंत्रालय ने आधार वर्ष 2016 के साथ वेतन दर सूचकांक (डब्ल्यूआरआई) की एक नई शृंखला जारी की है, जिसे मंत्रालय के एक संलग्न कार्यालय श्रम ब्यूरो द्वारा संकलित और अनुरक्षित किया जा रहा है।
- यह अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की सिफारिशों पर आधारित है।
- WRI पर नई शृंखला मौजूदा वार्षिक शृंखला के स्थान पर अर्द्धवार्षिक आधार पर (हर वर्ष जनवरी और जुलाई में) संकलित की गई है।
- नए WRI बास्केट में (2016=100) पुरानी WRI शृंखला (1963-65=100) की तुलना में व्यवसायों और उद्योगों के मामले में दायरे और कवरेज को बढ़ाया गया है।
- नई शृंखला में शामिल किये गए 37 उद्योगों में कपड़ा वस्त्र, जूते और पेट्रोलियम सहित विनिर्माण क्षेत्र के 16 नए उद्योगों को जोड़ा गया है।
- नई शृंखला में खनन क्षेत्र को तीन अलग-अलग प्रकार के खनन अर्थात् कोयला, धातु और तेल का अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु नए ‘बास्केट’ में अभ्रक खदान उद्योग के स्थान पर तेल खनन उद्योग को प्रतिस्थापित किया गया है।
- कुल 3 बागान उद्योग- चाय, कॉफी और रबर को नए WRI बास्केट में जोड़ा गया है।
- शीर्ष पाँच उद्योगों- मोटर वाहन, कोयले की खदानें, कपड़ा, लोहा और इस्पात तथा सूती वस्त्र का समग्र तौर पर 46% हिस्सा है।
- संभावित लाभ:
- संशोधित आधार अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करेगा और अन्य मानकों के साथ न्यूनतम मजदूरी एवं राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
- सरकार समय-समय पर प्रमुख आर्थिक संकेतकों के लिये आधार वर्ष में संशोधन करती है, ताकि अर्थव्यवस्था में बदलाव को प्रतिबिंबित किया जा सके और श्रमिकों के वेतन पैटर्न को सही ढंग से दर्ज किया जा सके।
- यह मानव संसाधन रणनीति पर निर्णय लेने हेतु नियोक्ताओं को उपयोगी सुझाव प्रदान करता है।
- वेतन दर सूचकांक 2020:
- सभी 37 उद्योगों के लिये अखिल भारतीय वेतन दर वर्ष 2020 (दूसरी छमाही) में 119.7 थी जो वर्ष 2020 (पहली छमाही) के सूचकांक की तुलना में 1.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है।
- उच्चतम वेतन दर सूचकांक:
- दवा क्षेत्र में सर्वाधिक वेतन दर सूचकांक दर्ज किया गया, जिसके बाद चीनी, मोटर साइकिल, जूट वस्त्र और चाय बागान का स्थान रहा।
- न्यूनतम वेतन दर सूचकांक:
- रबर प्लांटेशन में सबसे कम वेतन दर सूचकांक दर्ज किया गया, जिसके बाद कागज़, कास्टिंग और फोर्जिंग, ऊनी वस्त्र और सिंथेटिक वस्त्र का स्थान रहा।
स्रोत: पीआईबी
उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय न्यायाधीश संशोधन विधेयक 2021
प्रिलिम्स के लिये:उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय मेन्स के लिये:कॉलेजियम प्रणाली का परिचय, आवश्यकता, आलोचना एवं सुधार के प्रयास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश (वेतन और सेवा की शर्तें) संशोधन विधेयक, 2021 ’लोकसभा में पेश किया गया था।
- यह विधेयक ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीश (वेतन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1954’ और ‘उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (वेतन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1958’ में संशोधन करना चाहता है।
प्रमुख बिंदु
- विधेयक के विषय में:
- विधेयक यह स्पष्ट करने का प्रयास करता है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एक निश्चित आयु प्राप्त करने पर कब पेंशन या पारिवारिक पेंशन की अतिरिक्त मात्रा पाने के हकदार होते हैं।
- विधेयक स्पष्ट करता है कि एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीशों की पेंशन में वृद्धि उस महीने के पहले दिन से लागू की जाएगी जिसमें वे निर्दिष्ट आयु पूरी करते हैं, न कि उनके द्वारा निर्दिष्ट आयु में प्रवेश करने के पहले दिन से।
- मौजूदा प्रावधान:
- उच्च न्यायालय न्यायाधीश (वेतन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1954 तथा सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश (वेतन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1958 उच्च न्यायालयों एवं भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन और सेवा की शर्तों को विनियमित करते हैं।
- उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों (वेतन और सेवा की शर्तें) संशोधन अधिनियम, 2009 के माध्यम से क्रमशः धारा 16B और धारा 17B को शामिल किया गया (1954 के अधिनियम और 1958 के अधिनियम में)।
- वर्ष 2009 के अधिनियम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उसकी मृत्यु के बाद उसका परिवार निर्दिष्ट पैमाने के अनुसार अतिरिक्त पेंशन या पारिवारिक पेंशन पाने का हकदार होगा।
- तद्नुसार, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को 80 वर्ष, 85 वर्ष, 90 वर्ष, 95 वर्ष और 100 वर्ष, जैसा भी मामला हो, की आयु पूरी करने पर पेंशन की अतिरिक्त राशि प्रदान की जा जाती है।
- अतिरिक्त मात्रा आयु के साथ बढ़ती है (पेंशन या पारिवारिक पेंशन के 20% से 100% तक)।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश:
- संविधान का अनुच्छेद 217: यह कहता है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी।
- मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाता है।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं।
- परामर्श प्रक्रिया: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है जिसमें CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
- यह प्रस्ताव दो वरिष्ठतम सहयोगियों के परामर्श से संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिया जाता है।
- सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो केंद्रीय कानून मंत्री को इस प्रस्ताव को राज्यपाल के पास भेजने की सलाह देता है।
- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस नीति के आधार पर की जाती है कि राज्य का मुख्य न्यायाधीश संबंधित राज्य से बाहर का होगा।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश:
- संविधान का अनुच्छेद 124:
- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 124 के खंड (2) के तहत की जाती है।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर सेवानिवृत्त होते हैं।
- उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालयों के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही राष्ट्रपति को परामर्श देगा।
- अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा CJI और सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद की जाती है जिन्हें वह आवश्यक समझता है। मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना अनिवार्य है।
- सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की अध्यक्षता CJI द्वारा की जाती है और इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। उच्च न्यायालय के कॉलेजियम का नेतृत्व उसके मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
- 1950 से 1973 तक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति:
- सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की परंपरा रही है। वर्ष 1973 में इस परंपरा का उल्लंघन किया गया था जब तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को छोड़कर ए.एन. रे को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। वर्ष 1977 में इसका पुनः उल्लंघन किया गया जब तत्कालीन 10 वरिष्ठतम न्यायाधीशों को छोड़कर एम.यू. बेग को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।
- सरकार की इस स्वायत्तता को सर्वोच्च न्यायालय ने द्वितीय न्यायाधीश मामले (1993) में रद्द कर दिया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
शिप एक्वीज़ीशन, फाइनेंसिंग एंड लीज़िंग: IFSCA रिपोर्ट
प्रिलिम्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण, शिप एक्वीज़ीशन, फाइनेंसिंग एंड लीज़िंग मेन्स के लिये:भारत के लिये नौवहन क्षेत्र का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘जहाज़ अधिग्रहण, वित्तपोषण और पट्टे हेतु एवेन्यू के विकास के लिये गठित समिति द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण‘ (IFSCA) को ‘शिप एक्वीज़ीशन, फाइनेंसिंग एंड लीज़िंग (SAFAL) शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है।
प्रमुख बिंदु
- समिति के विषय में:
- गठन: इसका गठन IFSCA द्वारा जून 2021 में भारत सरकार, गुजरात मैरीटाइम बोर्ड, उद्योग और वित्त विशेषज्ञों तथा शिक्षाविदों के प्रतिनिधियों के साथ किया गया था।
- उद्देश्य: यह मुख्य तौर पर IFSC से स्वामित्व और पट्टे पर लिये गए जहाज़ों की शिपिंग सेवाओं के लागत प्रभावी और प्रतिस्पर्द्धी डिलीवरी को सक्षम करने और उन्हें विदेशी प्रतिस्पर्द्धियों के बराबर लाने पर फोकस करता है।
- समिति के निष्कर्ष:
- शिपिंग सेवाओं का शुद्ध आयातक: एक व्यापक तटरेखा, बढ़ते घरेलू बाज़ार और अंतर्राष्ट्रीय समुद्री व्यापार, प्राचीन समुद्री परंपराओं तथा कुशल नाविकों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय शिपिंग क्षेत्र में भारत का हिस्सा काफी कम है, इस प्रकार यह शिपिंग का शुद्ध आयातक बन गया है।
- आवश्यक परिवर्तन: इसने ग्रीनफील्ड उद्यम को IFSC के दायरे में लाने के लिये महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक परिवर्तन किये हैं।
- इनमें कानूनी एवं नियामक डोमेन, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं पर आधारित ‘व्यापार सुगमता’ शामिल है।
- ब्रांड वैल्यू प्रदान करना: यह भारतीय ध्वज वाले जहाज़ों को ब्रांड वैल्यू प्रदान करने का उपयुक्त समय है।
- यह लक्ष्य वैश्विक क्रॉस ट्रेडों में हिस्सेदार बनाकर, भारत के बाज़ार के लिये लाभकारी लेन-देन हासिल कर नीले महासागरों में डीकार्बोनाइज़ेशन एवं हरियाली को बढ़ावा देने और मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 तथा उससे आगे के लिये भारत-आईएफएससी मैरीटाइम का लाभ उठाकर प्राप्त किया जा सकता है।
- मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 समुद्री क्षेत्र के लिये दस वर्ष का ब्लूप्रिंट है, जिसे नवंबर 2020 में मैरीटाइम इंडिया समिट में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा जारी किया गया था।
- यह ‘सागरमाला पहल’ का स्थान लेगा और इसका उद्देश्य जलमार्ग को बढ़ावा देना, जहाज़ निर्माण उद्योग के विस्तार तथा भारत में क्रूज़ पर्यटन को प्रोत्साहित करना है।
- यह लक्ष्य वैश्विक क्रॉस ट्रेडों में हिस्सेदार बनाकर, भारत के बाज़ार के लिये लाभकारी लेन-देन हासिल कर नीले महासागरों में डीकार्बोनाइज़ेशन एवं हरियाली को बढ़ावा देने और मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 तथा उससे आगे के लिये भारत-आईएफएससी मैरीटाइम का लाभ उठाकर प्राप्त किया जा सकता है।
- भारत के लिये नौवहन क्षेत्र का महत्त्व:
- भारत की लगभग आधी सीमा समुद्र से घिरी हुई है और देश की तटरेखा लगभग 7,517 किलोमीटर है, जिसमें 12 बड़े और 205 छोटे बंदरगाह शामिल हैं।
- भारत रणनीतिक रूप से दुनिया के नौवहन मार्गों पर स्थित है।
- यह अनुमान है कि भारत का लगभग 95% माल का व्यापार मात्रा के हिसाब से और 70% मूल्य के हिसाब से समुद्री परिवहन के माध्यम से किया जाता है।
- समुद्री माल भाड़ा दर में भी भारत महत्त्वपूर्ण जोखिम का सामना कर रहा है। भारत में समुद्री माल ढुलाई प्रतिवर्ष 85 अरब डॉलर अनुमानित है।
- वित्तीय वर्ष 2019-20 में भारत के निर्यात-आयात कार्गो को ले जाने में भारतीय जहाज़ों की हिस्सेदारी लगभग 6.53% थी।
- अनुमान है कि भारत प्रतिवर्ष विदेशी शिपिंग कंपनियों को लगभग 75 बिलियन डॉलर समुद्री माल का भुगतान करता है।
- इस प्रकार भारत शिपिंग उद्योग में अपने निवेश को बढ़ाने के लिये बेहतर स्थिति में है।
- भारत की लगभग आधी सीमा समुद्र से घिरी हुई है और देश की तटरेखा लगभग 7,517 किलोमीटर है, जिसमें 12 बड़े और 205 छोटे बंदरगाह शामिल हैं।
- सरकार द्वारा किये गए संबंधित उपाय:
- पहले इनकार के अधिकार (ROFR) के मानदंडों में संशोधन: भारत में भारतीय ध्वजांकित और जहाज़ निर्माण के तहत टन भार को बढ़ावा देने के लिये निविदा प्रक्रिया के माध्यम से जहाज़ों को किराए पर लेने में पहले इनकार का अधिकार देने के मानदंड को संशोधित किया गया है, ताकि भारत में टन भार और जहाज़ निर्माण के मामले में भारत को आत्मनिर्भर बनाया जा सके।
- भारतीय नौवहन कंपनियों को सब्सिडी सहायता: मंत्रालयों और CPSE द्वारा जारी वैश्विक निविदाओं में भारतीय शिपिंग कंपनियों को सब्सिडी सहायता के रूप में पाँच वर्ष की अवधि में 1,624 करोड़ रुपए प्रदान करके भारतीय ध्वजांकित व्यापारिक जहाज़ों को बढ़ावा देने के लिये एक योजना को कैबिनेट द्वारा अनुमोदित किया गया है।
- जहाज़ निर्माण वित्तीय सहायता नीति (2016-2026): भारत सरकार ने भारतीय शिपयार्डों को वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु दिसंबर 2015 में भारतीय शिपयार्ड के लिये वित्तीय सहायता नीति को मंज़ूरी दी।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र (IFSC):
- IFSC उन वित्तीय सेवाओं और निवेश को भारत में वापस लाने में सक्षम बनाते हैं जो वर्तमान में भारतीय कॉर्पोरेट संस्थाओं और विदेशी शाखाओं/वित्तीय संस्थानों की सहायक कंपनियों (जैसे बैंक, बीमा कंपनियाँ आदि) द्वारा भारत के अपतटीय वित्तीय केंद्रों में किये जाते हैं।
- ये केंद्र व्यावसायिक और विनियामक स्थिति प्रदान कर प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान की तुलना में विश्व के अन्य वित्तीय केंद्रों जैसे- लंदन और सिंगापुर में किये जाते हैं।
- IFSC का उद्देश्य भारतीय कॉरपोरेट्स को वैश्विक वित्तीय बाज़ारों तक आसान पहुँच प्रदान करना और भारत में वित्तीय बाज़ारों के विकास को बढ़ावा देना है।
- भारत में पहला IFSC गांधीनगर में गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी (GIFT City) में स्थापित किया गया है।
- केंद्र सरकार ने गांधीनगर (गुजरात) में मुख्यालय के साथ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्रों (IFSCs) में सभी वित्तीय सेवाओं को विनियमित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण की स्थापना की है।
स्रोत: पीआईबी
ग्रेटर टिपरालैंड: त्रिपुरा
प्रिलिम्स के लिये:ग्रेटर टिपरालैंड,संविधान का अनुच्छेद 2 और 3, त्रिपुरा के आदिवासी संगठन मेन्स के लिये:त्रिपुरा के आदिवासी संगठन,ग्रेटर टिपरालैंड की मांग का कारण तथा समाधान |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में त्रिपुरा में कई आदिवासी संगठनों ने क्षेत्र में स्वदेशी समुदायों के लिये एक अलग राज्य ग्रेटर टिपरालैंड की मांग के लिये हाथ मिलाया है।
- टिपरा (TIPRA) मोथा (टिपरा इंडिजिनस प्रोग्रेसिव रीजनल अलायंस) और IPFT (इंडिजिनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा) ने इस उद्देश्य के लिये एक राजनीतिक दलों का गठन किया है।
प्रमुख बिंदु:
- मांग:
- पार्टियाँ उत्तर-पूर्वी राज्य के स्थानीय समुदायों के लिये 'ग्रेटर टिपरालैंड' के रूप में एक अलग राज्य की मांग कर रही हैं।
- वे चाहते हैं कि केंद्र संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 के तहत अलग राज्य बनाए।
- त्रिपुरा में 19 अधिसूचित अनुसूचित जनजातियों में त्रिपुरी (तिप्रा और टिपरास) सबसे बड़ी है।
- 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में कम-से-कम 5.92 लाख त्रिपुरी हैं, इसके बाद ब्रू या रियांग (1.88 लाख) और जमातिया (83,000) हैं।
अनुच्छेद 2 और 3:
- अनुच्छेद 2: संसद कानून बनाकर नए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की स्थापना ऐसे नियमों और शर्तों पर कर सकती है, जो वह ठीक समझे।
- हालाँकि संसद कानून पारित करके एक नया केंद्रशासित प्रदेश नहीं बना सकती है, यह कार्य केवल संवैधानिक संशोधन के माध्यम से ही किया जा सकता है।
- सिक्किम जैसे राज्य (पहले भारत के भीतर नहीं) अनुच्छेद 2 के तहत देश का हिस्सा बनाया गया है।
- अनुच्छेद 3: इसके तहत संसद को नए राज्यों के गठन और मौजूदा राज्यों के परिवर्तन से संबंधित कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।
- तात्कालिक कारण:
- राजनीति में विकास मंथन के पीछे के दो प्रमुख कारण टिपरा मोथा के उदय और वर्ष 2023 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- त्रिपुरा 13वीं शताब्दी के अंत से वर्ष 1949 में भारत सरकार के साथ विलय पर हस्ताक्षर करने तक माणिक्य वंश द्वारा शासित एक राज्य था।
- यह मांग राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव के संबंध में स्वदेशी समुदायों की चिंता से उपजी है जिसने उन्हें अल्पसंख्यक बना दिया है।
- यह वर्ष 1947 से वर्ष 1971 के मध्य तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से बंगालियों के विस्थापन के कारण हुआ।
- त्रिपुरा में आदिवासियों की जनसंख्या वर्ष 1881 के 63.77% से घटकर वर्ष 2011 तक 31.80% हो गई थी।
- बीच के दशकों में जातीय संघर्ष और उग्रवाद ने राज्य को जकड़ लिया जो बांग्लादेश के साथ लगभग 860 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है।.
- संयुक्त मंच ने यह भी बताया है कि स्वदेशी लोगों को न केवल अल्पसंख्यक में बदल दिया गया है, बल्कि माणिक्य वंश के अंतिम राजा बीर बिक्रम किशोर देबबर्मन द्वारा उनके लिये आरक्षित भूमि से भी उन्हें बेदखल कर दिया गया है।
- इस मुद्दे के समाधान के लिये पहल:
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद:
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद (TTAADC) का गठन वर्ष 1985 में संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी समुदायों के अधिकारों एवं सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने और विकास सुनिश्चित करने के लिये किया गया था।
- 'ग्रेटर टिपरालैंड' एक ऐसी स्थिति की परिकल्पना करता है जिसमें संपूर्ण TTAADC क्षेत्र एक अलग राज्य होगा। यह त्रिपुरा के बाहर रहने वाले लोगों और अन्य आदिवासी समुदायों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिये समर्पित निकायों का भी प्रस्ताव करता है।
- TTAADC, जिसके पास विधायी और कार्यकारी शक्तियाँ हैं, राज्य के भौगोलिक क्षेत्र के लगभग दो-तिहाई हिस्से को कवर करता है।
- परिषद में 30 सदस्य होते हैं जिनमें से 28 निर्वाचित होते हैं जबकि दो राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते हैं।
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद (TTAADC) का गठन वर्ष 1985 में संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी समुदायों के अधिकारों एवं सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने और विकास सुनिश्चित करने के लिये किया गया था।
- आरक्षण:
- साथ ही राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से 20 अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित हैं।
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद:
उत्तर पूर्व की अन्य मांगें
- ग्रेटर नगालिम (अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और म्याँमार के हिस्से)
- बोडोलैंड (असम)
- जनजातीय स्वायत्तता मेघालय
आगे की राह
- राजनीतिक विचारों के बजाय आर्थिक और सामाजिक व्यवहार्यता को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- निरंकुश मांगों की जाँच के लिये कुछ स्पष्ट मानदंड और सुरक्षा उपाय होने चाहिये।
- धर्म, जाति, भाषा या बोली के बजाय विकास, विकेंद्रीकरण और शासन जैसी लोकतांत्रिक चिंताओं को नए राज्य की मांगों को स्वीकार करने के लिये वैध आधार देना बेहतर है।
- इसके अलावा विकास और शासन की कमी जैसी मूलभूत समस्याओं जैसे- सत्ता का संकेंद्रण, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अक्षमता आदि का समाधान किया जाना चाहिये।
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस
लोक लेखा समिति
प्रिलिम्स के लिये:लोक लेखा समिति, नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक मेन्स के लिये:संसदीय समितियों का महत्त्व और संबंधित चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘लोक लेखा समिति’ (PAC) ने अपने 100 वर्ष पूरे कर लिये हैं।
- ‘लोक लेखा समिति’ तीन वित्तीय संसदीय समितियों में से एक है; अन्य दो समितियाँ हैं- प्राक्कलन समिति और सार्वजनिक उपक्रम समिति।
- संसदीय समितियाँ अनुच्छेद-105 (संसद सदस्यों के विशेषाधिकार) और अनुच्छेद-118 (संसद की प्रक्रिया एवं कार्य संचालन को विनियमित करने हेतु नियम बनाने के अधिकार) से शक्तियाँ प्राप्त करती हैं।
प्रमुख बिंदु
- लोक लेखा समिति:
- स्थापना:
- लोक लेखा समिति को वर्ष 1921 में ‘भारत सरकार अधिनियम, 1919’ के माध्यम से गठित किया गया था, जिसे ‘मोंटफोर्ड सुधार’ भी कहा जाता है।
- लोक लेखा समिति का गठन प्रतिवर्ष ‘लोकसभा की प्रक्रिया और कार्य-संचालन नियम’ के नियम 308 के तहत किया जाता है।
- नियुक्ति:
- समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा की जाती है।
- गौरतलब है कि चूँकि यह समिति कार्यकारी निकाय नहीं है, अतः यह केवल ऐसे निर्णय ले सकती है जो सलाहकार प्रकृति के हों।
- समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा की जाती है।
- सदस्य:
- इसमें वर्तमान में केवल एक वर्ष की अवधि के साथ 22 सदस्य (लोकसभा अध्यक्ष द्वारा चुने गए 15 सदस्य और राज्यसभा के सभापति द्वारा चुने गए 7 सदस्य) शामिल होते हैं।
- उद्देश्य:
- इसे यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य से तैयार किया गया था कि संसद द्वारा सरकार को दिया गया धन विशिष्ट और निश्चित मद पर ही खर्च किया जाए। केंद्र सरकार के किसी भी मंत्री को इस समिति में सदस्य के तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता है।
- कार्य:
- सरकार के वार्षिक वित्त लेखों और व्यय को पूरा करने के लिये सदन द्वारा दी गई राशि के विनियोग को दर्शाने वाले लेखों की जाँच करना।
- सदन के समक्ष रखे गए ऐसे अन्य लेखे, जिन्हें समिति ठीक समझे, सिवाय ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों से संबंधित, जो सार्वजनिक उपक्रम समिति को आवंटित किये गए हैं।
- सरकार के विनियोग लेखों पर भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (CAG) के प्रतिवेदनों के अलावा समिति राजस्व प्राप्तियों, सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा व्यय और स्वायत्त निकायों के लेखों पर नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के विभिन्न लेखापरीक्षा प्रतिवेदनों की जाँच करना।
- यह समिति, सरकार द्वारा अत्यधिक खर्च के साथ-साथ गलत आकलन या प्रक्रिया में अन्य दोषों के कारण हुई बचत की भी जाँच करती है।
- सरकार के वार्षिक वित्त लेखों और व्यय को पूरा करने के लिये सदन द्वारा दी गई राशि के विनियोग को दर्शाने वाले लेखों की जाँच करना।
- स्थापना:
- संसदीय समितियों का महत्त्व:
- मंच प्रदान करना:
- चूँकि संसद जटिल मामलों पर विचार करती है, इसलिये ऐसे मामलों को बेहतर ढंग से समझने के लिये तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है।
- ये समितियाँ एक ऐसा मंच प्रदान करने में मदद करती हैं जहाँ सदस्य मामलों के अध्ययन के दौरान विविध क्षेत्र/विषय विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों के साथ जुड़ सकते हैं।
- राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाना:
- समितियाँ राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाने के लिये भी एक मंच प्रदान करती हैं।
- सत्र के दौरान सदन की कार्यवाही को टीवी पर प्रसारित किया जाता है और अधिकांश मामलों में सांसदों के अपने पार्टी के पदों पर बने रहने की संभावना होती है।
- ये समितियाँ परोक्ष रूप से भी मीटिंग करती हैं जिससे उन्हें स्वतंत्र रूप से सवाल करने और मुद्दों पर चर्चा करने तथा आम सहमति पर पहुँचने में मदद मिलती है।
- नीतिगत मुद्दों की जाँच करना:
- समितियाँ अपने मंत्रालयों से संबंधित नीतिगत मुद्दों की भी जाँच करती हैं तथा सरकार को सुझाव देती हैं।
- इन सिफारिशों को स्वीकार किया गया है या नहीं, इस पर सरकार को रिपोर्ट देनी होती है।
- इसके आधार पर समितियाँ एक कार्रवाई रिपोर्ट पेश करती हैं, जो प्रत्येक सिफारिश पर सरकार की कार्रवाई की स्थिति दर्शाती है।
- मंच प्रदान करना:
- समितियों को शामिल न करने से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ:
- संसदीय प्रणाली की सरकार का कमज़ोर होना:
- एक संसदीय लोकतंत्र संसद और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के विलय के सिद्धांत (Doctrine of Fusion of Powers) पर कार्य करता है, लेकिन संसद को सरकार की निगरानी एवं अपनी शक्ति को नियंत्रण में रखना चाहिये।
- इस प्रकार किसी महत्त्वपूर्ण कानून को पारित करने में संसदीय समितियों को दरकिनार करने से लोकतंत्र के कमज़ोर होने का खतरा होता है।
- बहुमत को लागू करना:
- भारतीय व्यवस्था में विधेयकों को समितियों के पास भेजना अनिवार्य नहीं है। यह अध्यक्ष (लोकसभा में अध्यक्ष और राज्यसभा में अध्यक्ष) के विवेक पर छोड़ दिया गया है।
- अध्यक्ष को विवेकाधीन शक्ति देकर लोकसभा में व्यवस्था को विशेष रूप से कमज़ोर कर दिया गया है जहाँ सत्ताधारी दल के पास बहुमत होता है।
- संसदीय प्रणाली की सरकार का कमज़ोर होना:
आगे की राह
- हमारे लोकतंत्र में सरकार के काम की जाँच करने वाले प्रतिनिधि निकाय के रूप में संसद की भूमिका केंद्रीय है। इसके संवैधानिक जनादेश को पूरा करने के लिये यह अनिवार्य है कि संसद प्रभावी ढंग से कार्य करे।
- इसके साथ ही बिलों की उचित जाँच गुणवत्ता विधान की एक अनिवार्य आवश्यकता है। विधान पारित करते समय संसदीय समितियों को अलग रखना लोकतंत्र की भावना को कमज़ोर करता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
संसद सदस्यों द्वारा प्रश्न स्वीकार करने के नियम
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक संसद सदस्य द्वारा उठाए गए प्रश्न को "राष्ट्रीय हित को देखते हुए" अस्वीकार कर दिया गया था।
- इसके अलावा पिछले कुछ सत्रों में संसद सदस्यों द्वारा प्रायः यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उनके प्रश्नों को अस्वीकार कर दिया गया है।
प्रमुख बिंदुसमिति
- प्रश्न पूछने का अधिकार:
- दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों को तारांकित प्रश्नों, अतारांकित प्रश्नों, अल्प सूचना प्रश्नों और निजी सदस्य के प्रश्नों के रूप में विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से सूचना प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है।
- प्रत्येक बैठक का पहला घंटा आमतौर पर दोनों सदनों में प्रश्न पूछने और उत्तर देने के लिये समर्पित होता है तथा इसे 'प्रश्नकाल' कहा जाता है।
- राज्यसभा के सभापति या लोकसभा अध्यक्ष के पास यह तय करने का अधिकार है कि कोई प्रश्न या भाग सदन के मानदंडों के तहत स्वीकार्य है या नहीं और वह किसी भी प्रश्न या प्रश्न के किसी भाग को अस्वीकार कर सकता है।
- दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों को तारांकित प्रश्नों, अतारांकित प्रश्नों, अल्प सूचना प्रश्नों और निजी सदस्य के प्रश्नों के रूप में विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से सूचना प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है।
- प्रश्न स्वीकार करने के नियम:
- राज्यसभा में:
- राज्यसभा में प्रश्नों की स्वीकार्यता राज्यों की परिषद में प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों के नियम 47-50 द्वारा शासित होती है।
- विभिन्न मानदंडों के बीच प्रश्न "केवल एक मुद्दे पर इंगित, विशिष्ट और सीमित होना चाहिये"।
- लोकसभा:
- लोकसभा में प्रश्नों के लिये नोटिस प्राप्त होने के बाद मतपत्र द्वारा प्राथमिकता निर्धारित की जाती है।
- लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों के नियम 41-44 के तहत स्वीकार्यता के लिये प्रश्नों की जाँच की जाती है।
- लोकसभा में जिन प्रश्नों को स्वीकार नहीं किया जाता है उनमें शामिल हैं:
- वे जो दोहराए जाते हैं या जिनका उत्तर पहले दिया जा चुका है;
- ऐसे मामले जो किसी न्यायालय या संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन निर्णय के लिये लंबित हैं।
- राज्यसभा में:
- प्रश्नों की श्रेणी:
- तारांकित प्रश्न (तारांकन द्वारा प्रतिष्ठित):
- तारांकित प्रश्नों का उत्तर मौखिक दिया जाता है तथा इसके बाद पूरक प्रश्न पूछे जाते हैं।
- अतारांकित प्रश्न:
- अतारांकित प्रश्नों के मामले में लिखित रिपोर्ट आवश्यक होती है, इसलिये इनके बाद पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते हैं।
- अल्प सूचना के प्रश्न:
- ये ऐसे प्रश्न होते हैं जिन्हें कम-से-कम 10 दिन का पूर्व नोटिस देकर पूछा जाता है। इनका उत्तर भी मौखिक दिया जाता है।
- निजी सदस्यों से पूछा जाने वाला प्रश्न:
- ऐसे प्रश्न उन सदस्यों से पूछे जाते हैं, जो मंत्रिपरिषद के सदस्य नहीं होते, किंतु किसी विधेयक, संकल्प या सदन के किसी विशेष कार्य के लिये उत्तरदायी होते है।
- तारांकित प्रश्न (तारांकन द्वारा प्रतिष्ठित):
आगे की राह
- संविधान के अनुच्छेद 75 के तहत संसद में प्रश्न पूछना सदन के सदस्य का संवैधानिक अधिकार है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो संसद में प्रश्नकाल एक अलग स्तर पर होता है।
- एक प्रकार से प्रत्येक प्रश्नकाल इस अर्थ में प्रचालन में प्रत्यक्ष प्रकार के लोकतंत्र की अभिव्यक्ति है कि लोगों का प्रतिनिधित्व शासन के मामलों पर सरकार से सीधे सवाल करना है और सरकार सदन में सवालों के जवाब देने के लिये बाध्य है।
- संबंधित अधिकारियों को भी एक सही कारण बताना चाहिये कि किसी प्रश्न को अस्वीकार क्यों किया जाना चाहिए। सदन के विशेषाधिकार के कारण RTI के माध्यम से भी इस कारण तक नहीं पहुँचा जा सकता है और इसे अदालत में भी ले जाना मुश्किल है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
निजी सदस्य विधेयक
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राज्यसभा ने संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने के लिये एक निजी सदस्य विधेयक (Private Member’s Bill) पेश करने की अनुमति देने का अपना निर्णय सुरक्षित रखा।
- विधेयक प्रस्तावना में दिये गए शब्दों "स्थिति और अवसर की समानता" (EQUALITY of status and of opportunity) को "स्थिति और पैदा होने, पोषण प्राप्त करने, शिक्षित होने, नौकरी पाने के अवसर की समानता और सम्मान के साथ व्यवहार..." (EQUALITY of status and of opportunity to be born, to be fed, to be educated, to get a job and to be treated with dignity) से प्रतिस्थापित करने की मांग करता है।
प्रस्तावना की संशोधनीयता
- संविधान के एक भाग के रूप में संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत प्रस्तावना में तो संशोधन किया जा सकता है, लेकिन प्रस्तावना की मूल संरचना में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार, संसद संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती है।
- संविधान की संरचना प्रस्तावना के मूल तत्त्वों पर आधारित है। अभी तक 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है।
- इसमें तीन नए शब्द जोड़े गए- समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता।
प्रमुख बिंदु
- परिचय:
- संसद के ऐसे सदस्य जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री (Member of Parliament-MP) नहीं हैं, को एक निजी सदस्य के रूप में जाना जाता है।
- इसका प्रारूप तैयार करने की ज़िम्मेदारी संबंधित सदस्य की होती है। सदन में इसे पेश करने के लिये एक महीने के नोटिस की आवश्यकता होती है।
- सरकारी विधेयक/सार्वजनिक विधेयकों को किसी भी दिन पेश किया जा सकता है और उन पर चर्चा की जा सकती है, निजी सदस्यों के विधेयकों को केवल शुक्रवार को पेश किया जा सकता है और उन पर चर्चा की जा सकती है।
- कई विधेयकों के मामले में एक मतपत्र प्रणाली का उपयोग विधेयकों को पेश करने के क्रम को तय करने के लिये किया जाता है।
- निजी सदस्यों के विधेयकों और प्रस्तावों पर संसदीय समिति ऐसे सभी विधेयकों को देखती है और उनकी तात्कालिकता एवं महत्त्व के आधार पर उनका वर्गीकरण करती है।
- सदन द्वारा इसकी अस्वीकृति का सरकार में संसदीय विश्वास या उसके इस्तीफे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- चर्चा के समापन पर विधेयक का संचालन करने वाला सदस्य या तो संबंधित मंत्री के अनुरोध पर इसे वापस ले सकता है या वह इसके पारित होने के साथ आगे बढ़ने का विकल्प चुन सकता है।
- पूर्ववर्ती निजी विधेयक:
- पिछली बार दोनों सदनों द्वारा एक निजी सदस्य विधेयक 1970 में पारित किया गया था।
- यह ‘सर्वोच्च न्यायालय (आपराधिक अपीलीय क्षेत्राधिकार का विस्तार) विधेयक, 1968’ था।
- 14 निजी सदस्य विधेयक- जिनमें से पाँच राज्यसभा में पेश किये गए, अब कानून बन गए हैं। कुछ अन्य निजी जो कानून बन गए हैं, उनमें शामिल हैं-
- लोकसभा कार्यवाही (प्रकाशन संरक्षण) विधेयक, 1956।
- संसद सदस्यों के वेतन और भत्ते (संशोधन) विधेयक, 1964, लोकसभा में पेश किया गया।
- भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक, 1967 राज्यसभा में पेश किया गया।
- पिछली बार दोनों सदनों द्वारा एक निजी सदस्य विधेयक 1970 में पारित किया गया था।
- महत्त्व:
- निजी सदस्य विधेयक का उद्देश्य सरकार का ध्यान उस ओर आकर्षित करना है, जो कि सांसदों (मंत्रियों के अतिरिक्त) के मुताबिक, एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है और जिसे विधायी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- इस प्रकार यह सार्वजनिक मामलों पर विपक्षी दल के रुख को दर्शाता है।
- निजी सदस्य विधेयक का उद्देश्य सरकार का ध्यान उस ओर आकर्षित करना है, जो कि सांसदों (मंत्रियों के अतिरिक्त) के मुताबिक, एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है और जिसे विधायी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
सरकारी विधेयक बनाम निजी विधेयक
सरकारी विधेयक | निजी विधेयक |
इसे संसद में एक मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। | यह मंत्री के अतिरिक्त किसी अन्य सांसद द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। |
यह सरकार की नीतियों को प्रदर्शित करता है। | यह विपक्ष की नीतियों को प्रदर्शित करता है। |
संसद में इसके पारित होने की संभावना अधिक होती है। | संसद में इसके पारित होने के संभावना कम होती है। |
संसद द्वारा सरकारी विधेयक अस्वीकृत होने पर सरकार को इस्तीफा देना पड़ सकता है। | इसके अस्वीकृत होने पर सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। |
सरकारी विधेयक को संसद में पेश होने के लिये सात दिनों का नोटिस होना चाहिये। | इस विधेयक को संसद में पेश करने के लिये एक महीने का नोटिस होना चाहिये |
इसे संबंधित विभाग द्वारा विधि विभाग के परामर्श से तैयार किया जाता है। | इसे संबंधित सदस्य द्वारा तैयार किया जाता है। |