नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 02 Dec, 2024
  • 29 min read
भारतीय विरासत और संस्कृति

सांस्कृतिक आदान-प्रदान और कश्मीर के शिल्प उद्योग का विकास

प्रिलिम्स के लिये:

वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी, सिल्क रूट, पश्मीना शॉल, यूनेस्को क्रिएटिव सिटी नेटवर्क, भौगोलिक संकेत टैग, स्किल इंडिया मिशन

मेन्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व, हस्तशिल्प में चुनौतियां और अवसर

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

श्रीनगर में हाल ही में एक शिल्प विनियमन पहल का आयोजन किया गया, जिसके तहत साझा विरासत और सांस्कृतिक संबंधों के क्रम में 500 वर्षों के बाद कश्मीरी एवं मध्य एशियाई कारीगरों को एक साथ लाया गया। 

  • इस कार्यक्रम में विश्व शिल्प परिषद (WCC) द्वारा श्रीनगर को "वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी" के रूप में मान्यता दिये जाने को सराहा गया।

मध्य एशिया ने श्रीनगर में शिल्प के विकास को किस प्रकार प्रभावित किया?

  • ऐतिहासिक शिल्प संबंध: कश्मीर के 9वें सुल्तान ज़ैन-उल-आबिदीन (15वीं शताब्दी) ने समरकंद, बुखारा तथा फारस के कारीगरों की सहायता से मध्य एशियाई शिल्प तकनीकों को कश्मीर में लाने को प्रेरित किया। उनके शासनकाल के बाद ये संबंध कमज़ोर हो गए तथा वर्ष 1947 तक समाप्त हो गए।
    • ऐतिहासिक सिल्क रूट पर स्थित श्रीनगर सांस्कृतिक, आर्थिक तथा कलात्मक आदान-प्रदान का केंद्र बन गया। इस अंतर-सांस्कृतिक संपर्क से कश्मीर के विशिष्ट शिल्प के विकास में काफी प्रगति हुई।
  • शिल्प कौशल तकनीकें:
    • काष्ठ नक्काशी: कश्मीरी कारीगर, जो अपनी जटिल काष्ठ कारीगरी के लिये जाने जाते हैं, ने मध्य एशिया से तकनीकों को ग्रहण किया। 
    • जबकि कश्मीरी काष्ठ नक्काशीकार विस्तृत डिज़ाइन के लिये छेनी और हथौड़ों का इस्तेमाल करते थे, ईरानी काष्ठ नक्काशीकार आमतौर पर पुष्प रूपांकनों के लिये एक ही छेनी का इस्तेमाल करते थे।
    • कालीन बुनाई: कश्मीर की कालीन बुनाई फारसी तकनीक से प्रभावित थी।
    • फारसी गाँठें बनाने की पद्धति, जिसमें फारसी बफ़ और सेहना गाँठें शामिल हैं, को कश्मीरी कालीनों में शामिल किया गया। 
    • इसके अतिरिक्त कश्मीर के कालीन डिज़ाइनों का नाम ईरानी शहरों जैसे काशान और तबरीज़ के नाम पर रखा गया है, जो सांस्कृतिक संबंधों को उज़ागर करते हैं तथा कारीगरों के बीच आदान-प्रदान से कौशल में वृद्धि होती है, इससे शिल्प कौशल को प्रेरणा मिलती है।
    • कढ़ाई: उज़्बेकिस्तान की सुज़ानी कढ़ाई को कश्मीर के सोज़िनी कढ़ाई का अग्रदूत माना जाता है। तकनीक, कलर पैलेट और पुष्प रूपांकनों में समानताएँ देखी गईं। 

वर्ल्ड क्राफ्ट सिटी/विश्व शिल्प शहर क्या है?

  • विश्व शिल्प शहर का परिचय: विश्व शिल्प परिषद (AISBL) (WCC-इंटरनेशनल) द्वारा WCC-विश्व शिल्प शहर कार्यक्रम के तहत वर्ष 2014 में आरंभ की गई " विश्व शिल्प शहर" पहल, शिल्प के माध्यम से सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में योगदान के लिये शहरों को मान्यता देती है।
    • वर्ष 1964 में एक गैर-लाभकारी संगठन के रूप में स्थापित WCC AISBL का उद्देश्य सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में शिल्प की स्थिति को बढ़ाना और समर्थन एवं मार्गदर्शन के माध्यम से शिल्पियों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देना है।
  • भारतीय शहर: श्रीनगर (जम्मू और कश्मीर), जयपुर (राजस्थान), मामल्लपुरम (तमिलनाडु) और मैसूर (कर्नाटक) को WCC द्वारा विश्व शिल्प शहरों के रूप में मान्यता दी गई है।
    • WCC ने कश्मीर के हस्तशिल्प के लिये 'शिल्प की प्रामाणिकता की मुहर' की घोषणा की, जो जम्मू-कश्मीर के हस्तनिर्मित उत्पादों को प्रमाणित करता है। इस पहल का उद्देश्य कपड़ा उद्योग में वैश्विक मान्यता प्रदान करना और गुणवत्ता को बढ़ाना है। 
  • श्रीनगर के प्रमुख शिल्प:
    • पश्मीना शॉल: अपनी उत्कृष्ट गुणवत्ता और जटिल हस्तनिर्मित पैटर्न के लिये जानी जाने वाली पश्मीना शॉल कश्मीर से आती हैं, जहाँ पश्मीना कपड़े को हाथ से काता और बुना जाता है। 
      • मुगल सम्राट अकबर ने शाही परिवार के लिये शॉल बनवाने का काम शुरू करके इस शिल्प को बढ़ावा दिया। 
    • कश्मीरी कालीन: अपनी समृद्ध डिजाइनों, विशेष रूप से पारंपरिक फारसी शैली की कालीनों के लिये प्रसिद्ध। 
      • हाथ से बुनी गई अनूठी कश्मीरी कालीनों में डिज़ाइन निर्देशों के लिये तालीम नामक कोडित लिपि का उपयोग किया जाता है। इन कालीनों में पारंपरिक प्राच्य और पुष्प रूपांकनों की विशेषता है और इन्हें रेशम और ऊन जैसी विभिन्न सामग्रियों से बनाया जाता है।
    • पेपर मेशी (Paper Mâché): यह परंपरागत रूप से चित्रित और रोगन किये गए ढाले हुए कागज़ के गूदे से वस्तुएँ बनाने की कला है।
      • कश्मीर में इसकी शुरुआत कलमदान से हुई और बाद में यह सतह सजावट (नक्काशी) की एक विशिष्ट कला के रूप में विकसित हुई।
    • कशीदाकारी वस्त्र: सुज़नी और आरी जैसी उत्कृष्ट कढ़ाई तकनीकें, जिनका उपयोग वस्त्रों और सहायक वस्तुओं में किया जाता है।
      • सोज़नी शॉल की उत्पत्ति कश्मीर से हुई है, फ़ारसी में "सोज़नी" का अर्थ सुई होता है।
    • लकड़ी की नक्काशी: अखरोट की लकड़ी पर नक्काशी करके जटिल डिजाइनों से सुंदर फर्नीचर और घरेलू सजावट बनाई जाती है।
    • ताँबे के बर्तन: पारंपरिक कश्मीरी धातु शिल्प, विशेष रूप से ताँबे के समोवर और चाय के सेट। यह कश्मीर की प्राचीन विरासत का हिस्सा है, जहाँ धातुकर्म में कुशल कारीगर काम करते हैं।
    • खतमबंद: यह अखरोट या देवदार की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को बिना कील का उपयोग किये ज्यामितीय पैटर्न में व्यवस्थित करके छत बनाने की एक हस्तनिर्मित कला है।

नोट: वर्ष 2021 में, श्रीनगर शहर को शिल्प और लोक कलाओं के लिये UNESCO (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) क्रिएटिव सिटी नेटवर्क (UCCN) के हिस्से के रूप में एक रचनात्मक शहर नामित किया गया था। 

  • UCCN में शामिल अन्य भारतीय शहरों में जयपुर को 'शिल्प और लोक कला का शहर' (2015), वाराणसी को 'संगीत का रचनात्मक शहर' (2015), चेन्नई को 'संगीत का रचनात्मक शहर' (2017), मुंबई को 'फिल्म का शहर' (2019), हैदराबाद को 'पाक-कला का शहर' (2019), कोझीकोड को 'साहित्य का शहर' (2023) और ग्वालियर को 'संगीत का शहर' (2023) शामिल हैं।

कश्मीरी शिल्प के लिये भौगोलिक संकेत टैग

  • कश्मीर के सात शिल्पों - कश्मीरी कालीन, पश्मीना, सोज़नी, कानी शॉल, अखरोट की लकड़ी की नक्काशी, खतमबंद और पेपर मेशी - को भौगोलिक संकेतक (माल का पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत भौगोलिक संकेतक (GI) टैग प्राप्त हुए हैं। 
    • GI टैग यह सुनिश्चित करता है कि केवल अधिकृत उपयोगकर्त्ता या विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोग ही उत्पाद के नाम का उपयोग कर सकें, जिससे शिल्प की प्रामाणिकता और विरासत की रक्षा होती है।

सीमापार सांस्कृतिक आदान-प्रदान से कारीगर कैसे लाभान्वित हो सकते हैं?

  • कौशल संवर्द्धन: विभिन्न तकनीकों और शैलियों के संपर्क से कारीगरों को अपने कौशल को निखारने और अपने शिल्प में नवीनता लाने में मदद मिल सकती है, जिससे बाज़ार में अद्वितीय और अभिनव उत्पाद सामने आ सकते हैं।
  • बाज़ार विस्तार: सांस्कृतिक आदान-प्रदान से नए बाज़ार खुलते हैं, जिससे कारीगरों को वैश्विक दर्शकों के सामने अपना काम प्रदर्शित करने और अपने ग्राहक आधार को बढ़ाने का अवसर मिलता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेकर, कारीगर वैश्विक बाज़ार के रुझानों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और अपने उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय मांग के अनुसार ढाल सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों के संपर्क में आने से उन्हें वित्तीय स्थिरता प्राप्त करने में मदद मिल सकती है, जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिये उनके शिल्प का संरक्षण सुनिश्चित हो सकता है।
  • सांस्कृतिक राजदूत के रूप में कारीगर: सांस्कृतिक राजदूत के रूप में काम करने वाले कारीगर। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने शिल्प का प्रदर्शन वैश्विक सम्मान और समझ को बढ़ावा देता है, साथ ही विविध परंपराओं की पारस्परिक प्रशंसा को बढ़ावा देता है। 
    • ये अंतःक्रियाएँ उनके शिल्प को संरक्षित करने और वैश्विक सांस्कृतिक संवाद में योगदान देने में मदद करती हैं, जिससे उनकी कलात्मक प्रथा तथा आर्थिक अवसर दोनों समृद्ध होते हैं।

कश्मीरी कारीगरों के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?

  • कार्यबल भागीदारी: लगभग 92% कारीगर अपनी आय के प्राथमिक स्रोत के रूप में शिल्प पर निर्भर हैं, लेकिन उत्पन्न आय अक्सर अपर्याप्त होती है, जिससे कई लोगों को कृषि या दैनिक श्रम जैसे माध्यमिक आजीविका विकल्प अपनाने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
  • लिंग और मजदूरी असमानताएँ: जबकि महिला कारीगरों की एक बड़ी संख्या (63%) सोज़नी (Sozni) जैसे शिल्प में लगी हुई हैं, पुरुषों और महिलाओं के बीच मज़दूरी असमानताएँ बनी हुई हैं।
    • कुछ शिल्प, जैसे खतमबंद (Khatamband) और लकड़ी की नक्काशी, अभी भी पुरुष-प्रधान हैं।
  • शिल्पकला में घटती रुचि: कई कारीगर अधिक स्थिर रोज़गार के अवसरों के पक्ष में पारंपरिक शिल्पकला को छोड़ रहे हैं।
    • कारीगरों का एक उल्लेखनीय प्रतिशत (4%) पहले से ही आजीविका के अन्य रूपों की ओर स्थानांतरित हो चुका है, विशेष रूप से डल जैसे क्षेत्रों में, जहाँ कृषि एक द्वितीयक आय के रूप में कार्य करती है।
    • अंतर्राष्ट्रीय मांग में गिरावट तथा सस्ते विकल्पों और मशीन-निर्मित उत्पादों से प्रतिस्पर्द्धा के कारण इस क्षेत्र पर अतिरिक्त दबाव पड़ा है।
    • युवा पीढ़ी अक्सर वित्तीय स्थिरता की कमी के कारण पारंपरिक शिल्पकला को जारी रखने में अनिच्छुक रहती है, कई लोग ऐसे कॅरियर को अपनाना पसंद करते हैं जो अधिक आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक मान्यता प्रदान करते हों।
  • नवाचार का अभाव: बदलती बाज़ार मांग के अनुरूप शिल्प क्षेत्र में नवाचार और आधुनिकीकरण का अभाव है।

आगे की राह

  • सरकारी सहायता: कश्मीरी कालीनों और पश्मीना शॉल जैसे शिल्पों के लिये GI टैग मान्यता को बढ़ावा देने से उनका दर्जा ऊँचा हुआ है। 
  • ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और व्यापार मेलों के माध्यम से वैश्विक प्रचार से कारीगरों को नए बाज़ारों तक पहुँचने में मदद मिल सकती है। आपूर्ति शृंखला में सुधार तथा स्थानीय सहकारी समितियों का समर्थन करने से शिल्प क्षेत्र की लाभप्रदता भी बढ़ सकती है।
  • शैक्षिक और प्रशिक्षण कार्यक्रम: कौशल भारत मिशन के तहत युवा पीढ़ी के लिये प्रशिक्षण तथा कौशल विकास में निवेश करके, कारीगर वैश्विक बाज़ारों को आकर्षित करने हेतु आधुनिक तकनीकों को शामिल करते हुए पारंपरिक शिल्प को संरक्षित करने में मदद कर सकते हैं। 
  • पर्यटन एकीकरण: कश्मीर में शिल्प पर्यटन सर्किट विकसित करना, जिससे पर्यटकों को कारीगरों की कार्यशालाओं में जाने और सीधे उत्पाद खरीदने की सुविधा मिल सके। 
    • इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा और कारीगरों को एक स्थिर आय का स्रोत मिलेगा।
  • सतत् अभ्यास: शिल्प उत्पादन में टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल सामग्रियों के उपयोग को प्रोत्साहित करना। इससे पर्यावरण के प्रति जागरूक उपभोक्ता आकर्षित हो सकते हैं तथा नए बाज़ार क्षेत्र खुल सकते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: कश्मीरी हस्तशिल्प क्षेत्र के सामने क्या चुनौतियाँ हैं? इस क्षेत्र को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिये उपाय सुझाएँ।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत के 'चांगपा' समुदाय के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2014)

  1. वे मुख्य रूप से उत्तराखंड राज्य में रहते हैं। 
  2. वे चांगथांगी (पश्मीना) बकरियों को पालते हैं, जो अच्छी ऊन प्रदान करती हैं। 
  3. उन्हें अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा गया है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a)  केवल 1 
(b)  केवल 2 और 3 
(c)  केवल 3 
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


शासन व्यवस्था

उपासना स्थल अधिनियम, 1991 की व्याख्या

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता

मेन्स के लिये:

उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991, संबंधित प्रावधान, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

उपासना स्थलों के धार्मिक स्वरूप को संरक्षित रखने वाला उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991, जारी कानूनी संबंधी चुनौतियों के बीच विवादास्पद बना हुआ है।

  • उत्तर प्रदेश के संभल में शाही जामा मस्जिद विवाद ने अधिनियम की प्रयोज्यता पर बहस को पुनः छेड़ दिया है। 

शाही जामा मस्जिद विवाद क्या है?

  • विवाद की पृष्ठभूमि: याचिकाकर्त्ताओं का दावा है कि संभल में 16 वीं शताब्दी की जामा मस्जिद एक प्राचीन हरिहर मंदिर (हिंदू मंदिर) के स्थल पर बनाई गई थी। 
  • मुगल सम्राट बाबर के अधीन एक सेनापति मीर हिंदू बेग द्वारा लगभग वर्ष 1528 में निर्मित इस मस्जिद में गुंबद और मेहराब के साथ विशिष्ट पत्थर की चिनाई की गई है, जो लाल बलुआ पत्थर से निर्मित अन्य मुगल मस्जिदों से भिन्न है। 
  • इसके इतिहास और स्थापत्य के कारण इसके संबंध पूर्व संरचनाओं के समान होने की अटकलें लगाई जा रही हैं, जिनमें एक संभावित हिंदू मंदिर भी शामिल है। 
  • यह वाराणसी, मथुरा और धार में हुए ऐसे ही विवादों से मिलता-जुलता है। याचिकाकर्त्ताओं ने इस स्थल के ऐतिहासिक और धार्मिक स्वरूप को निर्धारित करने के लिये सर्वेक्षण की मांग की है।
  • न्यायपालिका की भागीदारी: संभल ज़िला न्यायालय ने दावों की पुष्टि के लिये शांतिपूर्ण सर्वेक्षण का आदेश दिया। हालाँकि दूसरे सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप हिंसक झड़पें भी देखने को मिली।
  • मस्जिद की कानूनी स्थिति: शाही जामा मस्जिद प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904 के तहत एक संरक्षित स्मारक है। इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
  • शाही जामा मस्जिद और उपासना स्थल अधिनियम, 1991: उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 इस विवाद के केंद्र में है। 
  • अधिनियम में प्रावधान किया गया है कि उपासना स्थलों का धार्मिक स्वरूप, जैसा कि वे 15 अगस्त 1947 को थे, संरक्षित किया जाना चाहिये तथा ऐसे स्थानों की धार्मिक पहचान में किसी भी प्रकार के परिवर्तन पर रोक लगाई गई है। 
  • शाही जामा मस्जिद विवाद में मस्जिद के धार्मिक स्वरूप को परिवर्तित करने की मांग करके अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती दी गई है।

उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 क्या है?

  • परिचय: उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का उद्देश्य उपासना स्थलों की धार्मिक स्थिति को संरक्षित रखना तथा विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच या एक ही संप्रदाय के भीतर धर्मांतरण को रोकना है। 
    • इस अधिनियम का उद्देश्य इन स्थानों के धार्मिक चरित्र को स्थिर रखते हुए तथा ऐसे धर्मांतरण से उत्पन्न विवादों को रोककर सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखना है।
  • अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
    • धारा 3: किसी भी उपासना स्थल को, पूर्णतः या आंशिक रूप से, एक धार्मिक संप्रदाय से दूसरे धार्मिक संप्रदाय में परिवर्तित करने पर रोक लगाती है। 
    • धारा 4(1): यह अनिवार्य करता है कि उपासना स्थल की धार्मिक पहचान 15 अगस्त 1947 की स्थिति से अपरिवर्तित रहनी चाहिये। धार्मिक चरित्र को बदलने का कोई भी प्रयास निषिद्ध है।
    • धारा 4(2): यह विधेयक 15 अगस्त 1947 से पहले किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप के परिवर्तन से संबंधित सभी चल रही कानूनी कार्यवाहियों को समाप्त करता है, तथा ऐसे स्थानों की धार्मिक स्थिति को चुनौती देने वाले नए मामलों को शुरू करने पर रोक लगाता है।
    • धारा 5 (अपवाद): अयोध्या विवाद (बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि), जिसे अधिनियम से छूट दी गई।
      • अयोध्या विवाद के अलावा, अधिनियम में निम्नलिखित को भी छूट दी गई है: कोई भी उपासना स्थल जो प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक है, या प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत आने वाला कोई पुरातात्त्विक स्थल है।
      • ऐसे मामले जो पहले ही आपसी समझौते से सुलझा लिये गए हों या निपटा दिये गए हों।
      • अधिनियम के लागू होने से पहले हुए धर्मांतरण।
    • धारा 6 (दंड): अधिनियम में उल्लंघन के लिये कठोर दंड का प्रावधान किया गया है, जिसमें तीन वर्ष तक का कारावास और उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने का प्रयास करने पर ज़ुर्माना शामिल है।
  • सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या: मई 2022 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उपासना स्थलों के धार्मिक चरित्र की जाँच की अनुमति दी जा सकती है, बशर्ते कि ऐसी जाँच से धार्मिक चरित्र में कोई बदलाव न हो। 

उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के संबंध में क्या चिंताएँ हैं?

  • न्यायिक समीक्षा को सीमित करना: इस अधिनियम को न्यायिक समीक्षा को सीमित करने तथा विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका की भूमिका को संभावित रूप से कमज़ोर करने के लिये चुनौती दी गई है।
  • पूर्वव्यापी निर्धारित तिथि: अधिनियम की पूर्वव्यापी निर्धारित तिथि 15 अगस्त 1947 है, को तर्कहीन बताते हुए इसकी आलोचना की गई है, जिससे कुछ धार्मिक समुदायों के अधिकारों का उल्लंघन की संभावना है।
  • कानूनी चुनौतियाँ: इस अधिनियम के विरुद्ध कई याचिकाएँ दायर की गई हैं, जिसमें याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया है कि यह हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को उपासना स्थलों पर पुनः दावा करने से रोकता है, जिनके बारे में उनका मानना ​​है कि ऐतिहासिक शासकों द्वारा उन पर "आक्रमण" या "अतिक्रमण" किया गया था।
  • कुछ विवादों के संदर्भ में छूट: राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले को इस अधिनियम से छूट दिये जाने से असंगतता के साथ कुछ विवादों के चयनात्मक विधिक उपचार की संभावना के बारे में चिंताएँ पैदा हुई हैं।
  • सांप्रदायिक तनाव में वृद्धि: इस अधिनियम से संबंधित विधिक एवं सामाजिक बहसें कभी-कभी व्यापक सांप्रदायिक मुद्दों से संबंधित होती हैं। 
    • आलोचकों का तर्क है कि इस अधिनियम को चुनौती देने से सांप्रदायिक तनाव (विशेषकर मस्जिदों, मंदिरों एवं चर्चों जैसे संवेदनशील स्थलों के संदर्भ में) बढ़ने की संभावना है।
  • धर्मनिरपेक्षता पर प्रभाव: इस अधिनियम का उद्देश्य धार्मिक सद्भाव को बनाए रखते हुए भारत की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की रक्षा करना था, लेकिन इसके आलोचकों का मानना ​​है कि यह अनजाने में ऐतिहासिक स्थलों पर कुछ धार्मिक समुदायों के दावों को दबाने की अनुमति दे सकता है, जिससे राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को नुकसान पहुँचेगा।
  • राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ: इस अधिनियम का प्रायः राजनीतिक और धार्मिक परिचर्चाओं में उल्लेख किया जाता है, जिससे यह चिंता उत्पन्न होती है कि धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल विभाजन को बढ़ावा देने या राजनीतिक कारणों के लिये समर्थन जुटाने के लिये किया जा सकता है।
    • वर्तमान में चल रहे कुछ विवादों के कारण सामाजिक अशांति उत्पन्न हुई है, धार्मिक स्थल पर दावों को लेकर विरोध प्रदर्शन और सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हुए हैं, जो ऐसे मुद्दों पर गहरे सामाजिक विभाजन को दर्शाता है।

आगे की राह

  • कानूनी स्पष्टता की आवश्यकता: अधिनियम के प्रावधानों की अलग-अलग व्याख्याओं के साथ, उच्चतम न्यायालय द्वारा उपासना स्थल अधिनियम की प्रयोज्यता पर स्पष्ट और निश्चित दिशानिर्देश प्रदान करने की अत्यधिक आवश्यकता है।
  • स्थानीय न्यायालय के अतिरेक को रोकना: संवेदनशील धार्मिक मामलों में स्थानीय न्यायालयों के हस्तक्षेप की बढ़ती आवृत्ति, अधीनस्थ न्यायालयों की अधिकारिता सीमाओं की गहन जाँच की मांग करती है। 
    • उच्चतम न्यायालय को ऐसे मामलों की निगरानी में अपनी भूमिका पर बल देना चाहिये जिनके व्यापक सामाजिक या राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं।
  • कानूनी मामलों का राजनीतिकरण न करना: धार्मिक स्थलों पर कानूनी चुनौतियों को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखा जाना चाहिये, ताकि वैचारिक या चुनावी उद्देश्यों के लिये उनका दुरुपयोग न हो, न्यायपालिका की विश्वसनीयता और धार्मिक संस्थाओं की पवित्रता सुनिश्चित हो सके।
  • एकता पर ध्यान देना: राजनीतिक दलों और नागरिक समाज दोनों को विभाजन के बजाय एकता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। साझा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत पर बल देने की आवश्यकता है, जो भारत को धर्म से परे एक साथ बाँधती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: धार्मिक स्थलों से संबंधित विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका की भूमिका, विशेष रूप से हाल ही में उपासना स्थल अधिनियम को मिली चुनौतियों के आलोक में, का आकलन कीजिये।


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2