GDP संबंधी आँकड़े और आर्थिक संकुचन के निहितार्थ
प्रिलिम्स के लियेराष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, सकल घरेलू उत्पाद, सकल मूल्य संवर्द्धन मेन्स के लियेकोरोना वायरस महामारी का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव और GDP संबंधी हालिया आँकड़ों के निहितार्थ |
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistical Office-NSO) द्वारा जारी हालिया आँकड़ों के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में भारतीय अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में रिकॉर्ड 23.9 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया है, जो कि बीते एक दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है।
प्रमुख बिंदु
- सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि भारत में इस वर्ष अप्रैल, मई और जून माह में उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं का कुल मूल्य बीते वर्ष अप्रैल, मई और जून माह में उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल मूल्य से 23.9 प्रतिशत कम है।
- आँकड़ों का विश्लेषण बताता है कि भारत, कोरोना वायरस (COVID-19) से सबसे अधिक प्रभावित कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
- ध्यातव्य है कि मौजूदा महामारी का केंद्र माने जाने वाले चीन ने बीते दिनों अपनी अर्थव्यवस्था के पहली तिमाही संबंधी आँकड़े जारी किये थे, जिसमें चीन के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 3.2 प्रतिशत की आश्चर्यजनक वृद्धि दर्ज की गई थी, इस प्रकार चीन इस महामारी के प्रभाव से उबरने वाला पहला देश देश बन गया है।
- वहीं ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में भी संकुचन देखा गया है। अप्रैल-जून तिमाही की अवधि के दौरान ब्रिटेन ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 20.4 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया, जबकि जर्मनी ने अपनी अर्थव्यवस्था में लगभग 10.1 प्रतिशत संकुचन रिकॉर्ड किया है।
सभी प्रमुख संकेतकों में संकुचन
- अर्थव्यवस्था में विकास के लगभग सभी प्रमुख संकेतक गहरे संकुचन की ओर इशारा कर रहे हैं। जहाँ एक ओर मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के दौरान कोयले के उत्पादन में 15 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया, वहीं इसी अवधि के दौरान सीमेंट के उत्पादन और स्टील के उपभोग में क्रमशः 38.3 प्रतिशत और 56.8 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया।
- पहली तिमाही के दौरान कुल टेलीफोन उपभोक्ताओं की संख्या में 2 प्रतिशत की कमी देखने को मिली, जबकि बीते वर्ष इसी अवधि के दौरान उपभोक्ताओं की संख्या में 1.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी।
- इसी वर्ष की पहली तिमाही के दौरान महामारी का सबसे अधिक प्रभाव वाहनों की बिक्री और हवाईअड्डों पर आने वाले यात्रियों की संख्या पर देखने को मिला और इस दौरान वाहनों की बिक्री में लगभग 84.8 प्रतिशत और हवाईअड्डों पर आने वाले यात्रियों की संख्या में 94.1 प्रतिशत की कमी देखने को मिली।
आँकड़ों का निहितार्थ
- अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत समेत विश्व की तमाम अर्थव्यवस्थाओं में हो रहा संकुचन स्पष्ट तौर पर वायरस के प्रभाव को रोकने के लिये लागू किये गए लॉकडाउन का एक गंभीर प्रभाव है, साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में महामारी की शुरुआत से पूर्व भी मंदी देखी जा रही थी, जिसमें इन आँकड़ों में भी अपनी भूमिका अदा की है।
- अर्थव्यवस्था में संकुचन अनुमान से काफी अधिक है, इसलिये संपूर्ण वर्ष के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) संबंधी आँकड़े भी काफी खराब रह सकते हैं, जो कि स्वतंत्रत भारत के इतिहास में भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे खराब स्थिति होगी।
- सकल मूल्य वर्धित (GVA) के मामले में कृषि को छोड़कर अर्थव्यवस्था के अन्य सभी क्षेत्रों की आय में गिरावट देखने को मिली।
- सकल मूल्य वर्धित किसी देश की अर्थव्यवस्था में सभी क्षेत्रों, यथा- प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीय क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र द्वारा किया गया कुल अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन का मौद्रिक मूल्य होता है।
- साधारण शब्दों में कहा जाए तो GVA से किसी अर्थव्यवस्था में होने वाले कुल निष्पादन और आय का पता चलता है।
- इस तिमाही के दौरान महामारी का सबसे अधिक प्रभाव निर्माण (50 प्रतिशत संकुचन), विनिर्माण (39 प्रतिशत संकुचन), खनन (23 प्रतिशत संकुचन) और व्यापार, होटल तथा अन्य सेवा (47 प्रतिशत संकुचन) क्षेत्रों पर देखने को मिला।
- यह भी ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि उपरोक्त सभी ऐसे क्षेत्र हैं जो देश में अधिकतम नए रोज़गार पैदा करने में मदद करते हैं।
- ऐसी स्थिति में जब उपरोक्त क्षेत्रों में तेज़ी से संकुचन हो रहा है अर्थात् उत्पादन और आय में गिरावट हो रही है, तब आने वाले समय में पहले से कार्य कर रहे लोगों को अपना रोज़गार खोना पड़ सकता है और नए लोगों को भी इन क्षेत्रों में काम नहीं मिलेगा।
- सबसे बड़ी बात यह है कि देशव्यापी लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था से संबंधित गुणवत्तापूर्ण डेटा एकत्रित करना काफी चुनौतीपूर्ण है, इसलिये कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति इससे भी खराब हो सकती है।
संकुचन का कारण
- किसी भी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कुल मांग यानी अर्थव्यवस्था की GDP, मुख्य तौर पर विकास के चार कारकों से उत्पन्न होती है। इसमें निजी उपभोक्ताओं द्वारा की जाने वाली मांग या खपत (C) विकास का सबसे बड़ा कारक है।
- इसमें दूसरा और तीसरा कारक क्रमशः निजी क्षेत्र के व्यवसायों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली मांग (I) है और सरकार द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की मांग (G) हैं।
- इसमें चौथा महत्त्वपूर्ण कारक है शुद्ध निर्यात (NX), जिसकी गणना भारत के कुल निर्यात से कुल आयात को घटाने के पश्चात् की जाती है।
इस प्रकार कुल सकल घरेलू उत्पाद (GDP) = C + I + G + NX
- आँकड़े बताते हैं कि इस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले निजी उपभोग (C) में कुल 27 प्रतिशत की कमी देखने को मिली है, इसके अलावा अर्थव्यवस्था के दूसरे सबसे बड़े कारक निजी व्यवसायियों द्वारा किये गए निवेश (I) में कुल 47 प्रतिशत की कमी देखने को मिली है।
- इस प्रकार अर्थव्यवस्था के दो सबसे महत्त्वपूर्ण कारकों में संकुचन देखने को मिला है।
- वहीं अर्थव्यवस्था के दो अन्य कारकों यथा- सरकार द्वारा किये गए निवेश (G) और शुद्ध निर्यात (NX) में कुछ बढ़ोतरी देखने को मिली है, किंतु वह इतनी नहीं है कि अर्थव्यवस्था को नुकसान की भरपाई कर सके।
आगे की राह
- जब आय में तेज़ी से गिरावट होती है तो निजी उपभोग अथवा खपत में भी गिरावट होती है, इसी प्रकार जब निजी खपत में गिरावट होती है तो निजी व्यवसाय निवेश करना बंद कर देते हैं और चूँकि ये दोनों स्वैच्छिक निर्णय हैं इसलिये आम लोगों को न तो अधिकाधिक खर्च करने के लिये मज़बूर किया जा सकता है और न ही निजी व्यवसायों को निवेश करने के लिये।
- ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा किये जाने वाला निवेश (G) अर्थव्यवस्था के विकास को बढ़ावा देने के लिये एकमात्र साधन प्रतीत होता है। इस प्रकार मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने के लिये सरकार को अधिक-से-अधिक खर्च करना होगा। इस कार्य के लिये सरकार या तो सड़कों और पुलों के निर्माण, वेतन भुगतान और प्रत्यक्ष मौद्रिक भुगतान आदि का प्रयोग कर सकती है।
- पर यहाँ समस्या यह है कि सरकार के पास खर्च करने के लिये पैसे ही नहीं हैं, COVID-19 महामारी ने पहले ही सरकार के राजस्व को पूरा समाप्त कर दिया है और सरकार को कर के माध्यम से भी कुछ खास राजस्व प्राप्त नहीं हो रहा है।
- ऐसे में सरकारों को अपने राजस्व को पूरा करने तथा महामारी के प्रभाव से निपटने के लिये नए और अभिनव उपायों की आवश्यकता होगी।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
RBI द्वारा तरलता पर दबाव में कमी के प्रयास
प्रिलिम्स के लिये:ऑपरेशन ट्विस्ट, खुला बाज़ार परिचालन, हेल्ड-टू-मेच्योरिटी (HTM) श्रेणी मेन्स के लिये:आरबीआई की मौद्रिक नीति |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में 'भारतीय रिजर्व बैंक' (Reserve Bank of India- RBI) द्वारा वित्तीय बाज़ार में तरलता बढ़ाने के लिये अनेक मौद्रिक नीति उपायों की घोषणा की गई है।
प्रमुख बिंदु:
विशेष खुला बाज़ार परिचालन (Open Market Operations-OMO):
- आरबीआई द्वारा 'ऑपरेशन ट्विस्ट' (Operation Twist) के तहत 20,000 करोड़ रुपए की राशि की विशेष ‘खुला बाज़ार परिचालन’ (OMO) के माध्यम से सरकारी प्रतिभूतियों (G-Sec) की खरीद और बिक्री की जाएगी।
- ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’ के अंतर्गत केंद्रीय बैंक दीर्घ अवधि के सरकारी ऋण पत्रों को खरीदने के लिये अल्पकालिक प्रतिभूतियों की बिक्री से प्राप्त आय का उपयोग करता है, जिससे लंबी अवधि के ऋणपत्रों पर ब्याज दरों के निर्धारण में आसानी होती है।
- इसमें 10,000 करोड़ रुपए की दो समान अंश राशि के शामिल है। प्रथम अंश 10 सितंबर, 2020 को और दूसरी अंश राशि 17 सितंबर, 2020 की जारी की जाएगी।
- इससे पूर्व में 27 अगस्त को आरबीआई द्वारा विशेष ‘खुला बाज़ार परिचालन’ का प्रयोग किया गया था, जिसमें 10,000 करोड़ रुपए की सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद और बिक्री एक साथ की गई थी।
आवधिक रेपो परिचालन (Term Repo Operations):
- आरबीआई सितंबर के मध्य में फ्लोटिंग दरों पर (प्रचलित रेपो दर पर) 1 लाख करोड़ रुपए की कुल राशि के लिये ‘आवधिक रेपो परिचालन’ का भी आयोजन करेगा।
- आवधिक रेपो परिचालन का उद्देश्य आरबीआई द्वारा बैंकिंग प्रणाली में तरलता को बढ़ाना है।
- जिन बैंकों ने ‘दीर्घावधि रेपो परिचालन’ (Long-term Repo Operations- LTRO) के तहत धन का लाभ उठाया था, वे परिपक्वता से पहले इन लेनदेन को बदलने का विकल्प चुन सकते हैं।
- बैंक, जिसने पहले LTRO के तहत 5.15 प्रतिशत की दर पर आरबीआई से उधार लिया था, वे इसे लौटाकर मौजूदा रेपो दर पर अर्थात 4 प्रतिशत की दर पर से उधार ले सकते हैं।
- इससे इन बैंकों की ब्याज देयता कम हो जाएगी।
दीर्घावधि रेपो परिचालन
(Long Term Repo Operation- LTRO):
- LTRO, मौद्रिक नीति को क्रियान्वित करने और अर्थव्यवस्था में ऋण के प्रवाह को सुविधाजनक बनाने के लिये एक तंत्र है।
- LTRO एक ऐसा उपकरण है जिसके तहत केंद्रीय बैंक प्रचलित रेपो दर पर बैंकों को एक से तीन वर्ष की अवधि के लिये ऋण प्रदान करता है तथा कोलेटरल के रूप में सरकारी प्रतिभूतियों को लंबी अवधि के लिये स्वीकार करेगा।
- LTRO के माध्यम से फंड रेपो रेट पर प्रदान किया जाता है।
हेल्ड-टू-मेच्योरिटी (HTM) प्रतिभूति:
- परिपक्वता तक स्वामित्व रखने के लिये हेल्ड-टू-मेच्योरिटी (HTM) प्रतिभूतियों को खरीदा जाता है। उदाहरण के लिये एक कंपनी का प्रबंधन उस बॉण्ड में निवेश कर सकता है जिसे वे परिपक्वता पर रखने की योजना बनाते हैं।
- आरबीआई ने परिपक्वता ( Held to Maturity- HTM) श्रेणी के लिये अधिक अवसर उपलब्ध कराने की घोषणा की है।
- बैंक 1, सितंबर 2020 से अपने नवीन सरकारी प्रतिभूतियों (G-Sec) के अधिग्रहण को पार्क करने के लिये इसका उपयोग कर सकते हैं।
- वर्तमान में बैंकों को अपनी 'शुद्ध मांग और समय देयता' (Net Demand and Time Liability- NDTL) का 18 प्रतिशत या 'वैधानिक तरलता अनुपात' (Statutory Liquidity Ratio) (सरकारी प्रतिभूति और राज्य विकास ऋण सहित) के तहत बनाए रखना होता है।
- वर्तमान में HTM श्रेणी में कुल 25 प्रतिशत तक निवेश किया जा सकता है।
- आरबीआई ने बैंकों को इस सीमा को पार करने की अनुमति दी है।
आरबीआई द्वारा अपनाए गए उपायों का महत्त्व:
- आरबीआई द्वारा उठाए गए कदम बाज़ार-से-बाज़ार प्रोविजनिंग की चिंताओं को संबोधित करते हैं।
- HTM पर आरबीआई के कदम बैंकों को केंद्र सरकार तथा राज्यों को के लिये उधार कार्यक्रम में सरकारी प्रतिभूतियों (G-Sec) को स्वीकार करने को बढ़ावा देंगे।
- हाल ही में मुद्रास्फीति के दृष्टिकोण से संबंधित चिंताओं और सरकार की राजकोषीय स्थिति के कारण बाज़ार की धारणा प्रभावित हुई है।
- अत: बाज़ार की स्थिति में सुधार करने और अनुकूल वित्तीय स्थितियों को सुनिश्चित करने के लिये आरबीआई द्वारा इन उपायों की घोषणा की गई है।
निष्कर्ष:
- मौद्रिक नीति उपायों के माध्यम से आरबीआई ने अर्थव्यवस्था में अधिक तरलता लाने और वित्तपोषण की स्थिति सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की है, जो भारत की लगातार गिरती अर्थव्यवस्था में निवेशकों के विश्वास को बनाए रखने के दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
स्रोत: द हिंदू
पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन और व्यापार अवरोध
प्रिलिम्स के लियेपूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन मेन्स के लियेकोरोना वायरस महामारी और व्यापार अवरोध का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
भारत और अमेरिका समेत 18 देशों के आर्थिक एवं व्यापार मंत्रियों ने पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (East Asia Summit) में सहमति व्यक्त की कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के प्रभाव को कम करने के लिये लागू किये गए व्यापार प्रतिबंधात्मक उपायों का पारदर्शी और अस्थायी होना अनिवार्य है।
प्रमुख बिंदु
- 8वें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के आर्थिक मामले के मंत्रियों की बैठक (EAS-EMM) के बाद जारी किये गए बयान के अनुसार, बैठक में शामिल सभी भागीदारों ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के प्रसार को रोकने के लिये लागू किये गए उपायों से वैश्विक और क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं में अनावश्यक अवरोध या व्यवधान उत्पन्न नहीं होने चाहिये।
- इस बैठक में 10 आसियान सदस्य देशों तथा ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, कोरिया, न्यूज़ीलैंड, रूस और अमेरिका के आर्थिक मंत्रियों ने हिस्सा लिया।
- बैठक में हिस्सा लेने वाले देशों ने आर्थिक विकास में तेज़ी लाने, आपूर्ति श्रृंखला तथा बाज़ार की स्थिरता को बनाए रखने और पूर्वी एशिया में महामारी के पश्चात् आर्थिक लचीलेपन को मज़बूत करने जैसे विषयों पर विचार-विमर्श किया।
- इसके अतिरिक्त इस दौरान भागीदार देशों ने डिजिटल अर्थव्यवस्था के अवसरों के दोहन के महत्त्व पर भी चर्चा की।
कोरोना वायरस और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
- ध्यातव्य है कि वर्तमान में संपूर्ण विश्व कोरोना वायरस महामारी के कारण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है। अब तक कुल 25 मिलियन लोग इस घातक वायरस की चपेट में आ चुके हैं और इसके कारण लाखों लोगों की मौत हो चुकी है।
- मानव संसाधन की इस गंभीर क्षति के अलावा संपूर्ण विश्व को आर्थिक मोर्चे पर भी काफी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। इस महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष अप्रत्याशित चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं, और इनसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को भारी नुकसान हुआ है।
- विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization-WTO) की माने तो इस वर्ष वैश्विक व्यापार में 13 से 32 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है।
- गौरतलब है कि महामारी की शुरुआत के बाद से ही कई देश में उत्पादन या तो पूर्णतः या fi आंशिक रूप से बंद कर दिया गया था, ऐसे में उन देशों को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा है, जिनकी आपूर्ति श्रृंखला काफी हद तक चीन जैसे देश पर निर्भर थी।
- इसके अलावा विश्व के अधिकांश देशों द्वारा आंशिक अथवा पूर्ण लॉकडाउन लागू किया गया था, जिसके कारण स्वयं देश के अंदर भी उत्पादन बंद हो गया था।
पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (East Asia Summit)
- यह एशिया-पैसिफिक क्षेत्र के 18 देशों के नेताओं द्वारा संचालित एक विशिष्ट मंच है जिसका गठन क्षेत्रीय शांति, सुरक्षा और समृद्धि के उद्देश्य से किया गया था।
- पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS) को आम क्षेत्रीय विषयों, राजनीति, सुरक्षा और आर्थिक मुद्दों पर सामरिक वार्ता तथा सहयोग के लिये एक मंच के रूप में विकसित किया गया है जो क्षेत्रीय निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- इस संबंध में ईस्ट एशिया ग्रुपिंग (East Asia Grouping) की अवधारणा पहली बार वर्ष 1991 में मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तुत की थी परंतु पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS) इसकी स्थापना वर्ष 2005 में की गई।
- पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS) में 10 आसियान सदस्य देशों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, कोरिया, न्यूज़ीलैंड, रूस और अमेरिका भी शामिल हैं।
स्रोत: द हिंदू
कोडागु में भूस्खलन
प्रिलिम्स के लियेभूस्खलन मेन्स के लियेभूस्खलन के कारण |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारी बारिश के कारण, भारत के कई हिस्सों में भूस्खलन की घटनाएँ देखने को मिल रही है।
प्रमुख बिंदु
- भूस्खलन (Landslides):
- यह भूस्खलन की वजह से होता है, जिसमें चट्टान समूह खिसककर ढाल से नीचे गिरता है।
- भूस्खलन मुख्य रूप से स्थानीय कारणों से उत्पन्न होते हैं, इसकी बारंबारता और इसके घटने को प्रभावित करने वाले कारकों, जैसे- भू-विज्ञान, भू-आकृतिक कारक, ढ़ाल, भूमि उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के आधार पर भारत को विभिन्न भूस्खलन क्षेत्रों में बाँटा गया है।
- कारक:
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भू-स्खलन तीन प्रमुख कारकों के कारण होता है: भू-विज्ञान, भू-आकृति विज्ञान और मानव गतिविधि।
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भू-विज्ञान भू-पदार्थों की विशेषताओं को संदर्भित करता है।
- भू-आकृतिक विज्ञान भूमि की संरचना को संदर्भित करता है। उदाहरण के लिये, वैसे ढलान जिनकी वनस्पति आग या सूखे की चपेट में आने से नष्ट हो जाती हैं, भूस्खलन की चपेट में आ जाते हैं।
- वनस्पति आवरण में पौधे मृदा को जड़ों में बाँधकर रखते है, वृक्षों, झाड़ियों और अन्य पौधों की अनुपस्थिति में भूस्खलन की अधिक संभावना होती है।
- मानव गतिविधि जिसमें कृषि और निर्माण शामिल हैं, भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
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- क्षेत्र:.
- एशियाई क्षेत्र भूस्खलन के कारण अधिकतम नुकसान/हानि का सामना करता है; इसके बाद भारत सहित अन्य दक्षिण-एशियाई राष्ट्रों का स्थान आता है , जो भू स्खलन से सबसे बुरी तरह प्रभावित है।
- भारत के क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल (दार्जिलिग ज़िले को छोड़कर) असम (कार्बी अनलोंग को छोड़कर) और दक्षिण प्रांतों के तटीय क्षेत्र भूस्खलन युक्त हैं।
- भूस्खलनों के परिणाम:
- भूस्खलनों का प्रभाव अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में पाया जाता है तथा स्थानीय होता है। परंतु सड़क मार्ग में अवरोध, रेल पटरियों का टूटना और जल वाहिकाओं में चट्टानें गिरने से पैदा हुई रुकावटों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
- भू स्खलन की वजह से हुए नदी रास्तों में बदलाव बाढ़ ला सकते हैं और जान माल का नुकसान हो सकता है। इससे इन क्षेत्रों में आवागमन मुश्किल हो जाता है और विकास कार्यों की गति धीमी पड़ जाती है।
- निवारण (Mitigation):
- भूस्खलन से निपटने के उपाय अलग-अलग क्षेत्रों के लिये अलग-अलग होने चाहिये। अधिक भूस्खलन संभावी क्षेत्रों में सड़क और बड़े बाँध बनाने जैसे निर्माण कार्य तथा विकास कार्य पर प्रतिबंध होना चाहिये।
- इन क्षेत्रों में कृषि नदी घाटी तथा कम ढाल वाले क्षेत्रों तक सीमित होनी चाहिये तथा बड़ी विकास परियोजनाओं पर नियंत्रण होना चाहिये।
- सकारात्मक कार्य जैसे- वृहत् स्तर पर वनीकरण को बढ़ावा और जल बहाव को कम करने के लिये बाँधों का निर्माण भूस्खलन के उपायों के पूरक हैं।
- स्थानांतरी कृषि वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जानी चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भारत में जैविक कृषि: दशा व दिशा
प्रिलिम्स के लियेजैविक कृषि, एक ज़िला-एक उत्पाद योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना, जैविक उत्पादन के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम मेन्स के लियेजैविक कृषि से होने वाले लाभ और उसका प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
वैश्विक महामारी COVID-19 के कारण पूरे विश्व में बेहतर स्वास्थ्य व सुरक्षित भोजन की मांग में वृद्धि हुई है। भारत जैविक कृषकों की संख्या के मामले में प्रथम तथा जैविक कृषि क्षेत्रफल के मामले में 9वें स्थान पर है।
प्रमुख बिंदु
- सिक्किम पूरी तरह से जैविक कृषि अपनाने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है। त्रिपुरा और उत्तराखंड राज्य भी इस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में प्रयास कर कर रहे हैं।
जैविक कृषि:
- जैविक कृषि (ऑर्गेनिक फार्मिंग) कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों का अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग किया जाता है तथा जिसमें भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाए रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कंपोस्ट आदि का प्रयोग किया जाता है।
- जैविक कृषि में मिट्टी, पानी, रोगाणुओं और अपशिष्ट उत्पादों, वानिकी और कृषि जैसे प्राकृतिक तत्त्वों का एकीकरण शामिल है।
जैविक कृषि के उद्देश्य:
- यह कृषि-आधारित उद्योग के लिये भोजन और फीडस्टॉक की बढ़ती आवश्यकता के कारण प्राकृतिक संसाधनों के सतत् उपयोग के लिये आदर्श पद्धति है।
- यह सतत् विकास लक्ष्य-2 के अनुरूप है जिसका उद्देश्य 'भूख को समाप्त करना, खाद्य सुरक्षा प्राप्त करना और बेहतर पोषण और कृषि को बढ़ावा देना' है।
भारत में जैविक कृषि की संभावना:
- उत्तर-पूर्व भारत पारंपरिक रूप से जैविक कृषि के अनुकूल रहा है और यहाँ रसायनों की खपत देश के बाकी हिस्सों की तुलना में बहुत कम है।
- वर्तमान सरकार द्वारा जनजातीय और द्वीपीय क्षेत्रों में भी कृषि के जैविक तरीकों को आगे बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
- भारत वैश्विक ‘जैविक बाज़ारों’ में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभर सकता है। भारत से प्रमुख जैविक निर्यातों में सन बीज, तिल, सोयाबीन, चाय, औषधीय पौधे, चावल और दालें रहे हैं।
- वर्ष 2018-19 में विगत वर्ष की तुलना में 50% की वृद्धि के साथ जैविक निर्यात लगभग 5151 करोड़ रुपए रहा है।
सरकार की पहल
‘मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट फॉर नॉर्थ ईस्ट रीजन’ (MOVCD):
- मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट फॉर नॉर्थ ईस्ट रीजन (MOVCD-NER) एक केंद्रीय क्षेत्रक योजना (CSS) है। यह सतत् कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन (NMSA) के तहत एक उप-मिशन है।
- इसे वर्ष 2015 में कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा राज्यों में प्रारंभ किया गया था।
- यह योजना जैविक उत्पादन का 'प्रमाण' प्रदान करने ग्राहकों में उत्पाद के प्रति विश्वास पैदा करने के दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ (PKVY):
- परंपरागत कृषि विकास योजना को वर्ष 2015 में प्रारंभ किया गया था जो 'सतत् कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन' (NMSA) के उप मिशन ‘मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन’ (Soil Health Management- SHM) का एक प्रमुख घटक है।
- PKVY के तहत जैविक कृषि में 'क्लस्टर दृष्टिकोण' और 'भागीदारी गारंटी प्रणाली' (Participatory Guarantee System- PGS) प्रमाणन के माध्यम से 'जैविक ग्रामों' के विकास को बढ़ावा दिया जाता है।
- ‘भागीदारी गारंटी प्रणाली’ (Participatory Guarantee System-PGS) और ‘जैविक उत्पादन के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम’ (National Program for Organic Production- NPOP) के तहत प्रमाणन को बढ़ावा दे रही हैं।
एक ज़िला- एक उत्पाद योजना:
- इस कार्यक्रम का उद्देश्य स्थानीय स्तर पर विशेष उत्पादों की अधिक दृश्यता और बिक्री को प्रोत्साहित करना है, ताकि ज़िला स्तर पर रोज़गार पैदा हो सके।
- एक ज़िला- एक उत्पाद (One district - One product) योजना ने छोटे और सीमांत किसानों को जैविक कृषि के बड़े पैमाने पर उत्पादन करने में मदद की है।
जैविक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म:
- जैविक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म www.jaivikkheti.in को सीधे खुदरा विक्रेताओं के साथ-साथ थोक खरीदारों के साथ जैविक किसानों को जोड़ने की दिशा में कार्य कर रहा है।
निष्कर्ष:
- भारत में प्राकृतिक खेती कोई नई अवधारणा नहीं है। अत: अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुपालन में उत्पादकों की अधिक जागरूकता और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देने से भारतीय जैविक किसान जल्द ही वैश्विक कृषि व्यापार में प्रमुख भूमिका निभाने में सक्षम होंगें।