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जनजातीय गौरव दिवस 2024
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री ने भगवान बिरसा मुंडा को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित की, जिसे जनजातीय गौरव दिवस (15 नवंबर) के रूप में मनाया जाता है।
मुख्य बिंदु
- जनजातीय गौरव दिवस:
- यह दिवस सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और राष्ट्रीय गौरव, वीरता और आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने में आदिवासियों के प्रयासों को मान्यता देने के लिये प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
- भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध कई आदिवासी आंदोलन किये। इन आदिवासी समुदायों में तामार, संथाल, खासी, भील, मिज़ो और कोल आदि शामिल हैं।
बिरसा मुंडा:
- 15 नवंबर, 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा छोटा नागपुर पठार के मुंडा जनजाति के सदस्य थे।
- वह एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक नेता और लोक नायक थे।
- उन्होंने 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश शासन के दौरान आधुनिक झारखंड और बिहार के आदिवासी क्षेत्र में भारतीय आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दि आंदोलन का नेतृत्व किया।
- बिरसा 1880 के दशक में इस क्षेत्र में सरदारी लाराई आंदोलन के करीबी पर्यवेक्षक थे, जो ब्रिटिश सरकार से याचिका दायर करने जैसे अहिंसक तरीकों से आदिवासी अधिकारों को बहाल करने की मांग कर रहा था। हालाँकि, इन मांगों को कठोर औपनिवेशिक अधिकारियों ने नज़रअंदाज़ कर दिया था।
- ज़मींदारी प्रथा के तहत आदिवासियों को शीघ्र ही भूस्वामियों से हटाकर मज़दूर बना दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप बिरसा ने आदिवासियों के हितों के लिये आवाज़ उठाई।
- बिरसा मुंडा ने आगे चलकर बिरसाइत नामक एक नया धर्म बनाया।
- धर्म ने एक ईश्वर में विश्वास का प्रचार किया और लोगों से अपने पुराने धार्मिक विश्वासों पर लौटने का आग्रह किया। लोग उन्हें एक किफायती धार्मिक उपचारक, चमत्कार करने वाले और उपदेशक के रूप में संदर्भित करने लगे।
- उरांव और मुंडा लोग बिरसाई धर्म के पक्के अनुयायी बन गए और कई लोग उन्हें ‘धरती अब्बा अर्थात् पृथ्वी का पिता’ कहने लगे। उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में एक नया दृष्टिकोण लाया।
- बिरसा मुंडा ने उस विद्रोह का नेतृत्व किया जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपी गई सामंती राज्य व्यवस्था के विरुद्ध उलगुलान (विद्रोह) या मुंडा विद्रोह के रूप में जाना जाता है।
- उन्होंने जनता को जागृत किया और उनमें ज़मींदारों के साथ-साथ अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह के बीज बोए।
- आदिवासियों के शोषण और भेदभाव के विरुद्ध उनके संघर्ष के परिणामस्वरूप 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित हुआ, जिसने आदिवासी लोगों से गैर-आदिवासियों को भूमि देने पर प्रतिबंध लगा दिया।
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