भारतीय राजव्यवस्था
प्रभावी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की आवश्यकता
- 10 Mar 2025
- 28 min read
यह संपादकीय 09/03/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Decentralisation: Failures at the State level” पर आधारित है। इस लेख में कमज़ोर विकेंद्रीकरण, केंद्रीय योजनाओं पर अत्यधिक निर्भरता और अनुचित निधि उपयोग के कारण पंचायतों के समक्ष आने वाली गंभीर वित्तीय बाधाओं को उजागर किया गया है।
प्रिलिम्स के लिये:पंचायतें, लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण, 73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन, शहरी स्थानीय निकाय, राज्य के नीति निदेशक तत्त्व, के. संथानम समिति, अशोक मेहता समिति, 11वीं अनुसूची, 15वाँ वित्त आयोग, नगरपालिका बॉण्ड मेन्स के लिये:भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का इतिहास, भारत में प्रभावी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे। |
संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, पंचायतों को कमज़ोर विकेंद्रीकरण, नियंत्रित केंद्रीय योजनाओं पर अत्यधिक निर्भरता और अकुशल निधि उपयोग के कारण गंभीर वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है। अपर्याप्त कर संग्रह क्षमता, ऋण-धारण क्षमता की कमी और अपर्याप्त वित्तीय पारदर्शिता सहित संस्थागत कमज़ोरियाँ पंचायत की प्रभावशीलता को और भी कमज़ोर कर देती हैं। आगे बढ़ने के लिये ग्रामीण-शहरी द्विआधारी से परे हमारे शासन मॉडल की पुनः कल्पना की आवश्यकता है ताकि ऐसी प्रणालियाँ बनाई जा सकें जो वास्तव में सेवाएँ प्रदान करें और प्रभावी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की ओर बढ़ें।
भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का इतिहास क्या है?
- भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण सदियों से विकसित हुआ है, जो औपनिवेशिक युग के स्थानीय प्रशासन से लेकर संवैधानिक रूप से अनिवार्य स्वशासन संरचनाओं तक परिवर्तित हुआ है ।
- 73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन (वर्ष 1992) ने एक महत्त्वपूर्ण क्षण चिह्नित किया, जिसमें पंचायती राज संस्थाओं (PRI) और शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को कानूनी मान्यता प्रदान की गई।
- स्थानीय शासन में प्रारंभिक विकास (स्वतंत्रता-पूर्व युग): यहाँ तक कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भी, स्थानीय स्वशासन को एक प्रशासनिक आवश्यकता के रूप में मान्यता दी गई थी, हालाँकि अत्यधिक केंद्रीकृत और सीमित तरीके से।
- स्वतंत्रता-पूर्व विकेंद्रीकरण में प्रमुख उपलब्धियाँ
- वर्ष 1882 - स्थानीय स्वशासन पर प्रस्ताव: लॉर्ड रिपन द्वारा प्रस्तुत इस प्रस्ताव ने भारत में नगरपालिका शासन की नींव रखी, जिसमें स्थानीय निकायों को अधिक स्वायत्तता देने का समर्थन किया गया।
- वर्ष 1907 - विकेंद्रीकरण पर रॉयल आयोग: ग्राम पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण शासन को मज़बूत करने की सिफारिश की, लेकिन कार्यान्वयन कमज़ोर रहा।
- विकेंद्रीकरण पर संवैधानिक बहस (वर्ष 1948): जहाँ गांधीजी ने लोकतंत्र की नींव के रूप में ग्राम स्वराज का समर्थन किया, वहीं अंबेडकर ने पंचायतों पर प्रभुत्वशाली जातियों के नियंत्रण पर चिंता जताई।
- अंतिम संविधान में स्थानीय शासन को अनिवार्य प्रावधान के बजाय केवल राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (अनुच्छेद 40) के रूप में शामिल किया गया।
- स्वतंत्रता-पूर्व विकेंद्रीकरण में प्रमुख उपलब्धियाँ
- स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में विकास
- चरण 1: प्रारंभिक सुधार और त्रि-स्तरीय पंचायती राज मॉडल (1950-1970 का दशक)
- वर्ष 1957 - बलवंत राय मेहता समिति: गाँव, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर निर्वाचित निकायों के साथ त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की। इसके परिणामस्वरूप वर्ष 1959 में विभिन्न राज्यों में PRI की स्थापना हुई।
- वर्ष 1963 - के. संथानम समिति: सुझाव दिया कि PRI के पास सीमित कराधान शक्तियाँ होनी चाहिये और वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाने के लिये राज्य पंचायती राज वित्त निगमों की स्थापना की सिफारिश की।
- वर्ष 1978 - अशोक मेहता समिति: प्रशासनिक प्रतिरोध, राजनीतिक हस्तक्षेप और PRI पर अभिजात वर्ग के कब्ज़े जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला। ज़िलों को शासन की प्राथमिक प्रशासनिक इकाई बनाने की सिफारिश की।
- यद्यपि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने इन सिफारिशों के आधार पर सुधारों को अपनाया, लेकिन विकेंद्रीकरण अधूरा रहा तथा राज्य सरकारों ने स्थानीय निकायों पर अत्यधिक नियंत्रण बनाए रखा।
- चरण 2: स्थानीय शासन को मज़बूत करना (1980-1990 का दशक)
- वर्ष 1985 – जी.वी.के. राव समिति: ग्रामीण विकास योजना के लिये PRI को अधिक स्वायत्तता और खंड विकास कार्यालयों (BDO) को सशक्त बनाने की सिफारिश की।
- वर्ष 1986 - एल.एम. सिंघवी समिति: ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र की नींव के रूप में PRI और ग्राम सभा के लिये संवैधानिक मान्यता का समर्थन किया।
- वर्ष 1992 - 73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन: ग्रामीण और शहरी स्थानीय शासन के लिये संवैधानिक दर्जा स्थापित किया गया।
- इन संशोधनों ने स्थानीय निकायों के लिये अनिवार्य चुनाव, आरक्षण, राजकोषीय अंतरण एवं योजनागत जिम्मेदारियाँ लागू करके एक महत्त्वपूर्ण मोड़ ला दिया।
- चरण 1: प्रारंभिक सुधार और त्रि-स्तरीय पंचायती राज मॉडल (1950-1970 का दशक)
भारत में प्रभावी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- राजकोषीय निर्भरता और कमज़ोर राजस्व स्वायत्तता: पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों (ULB) में वित्तीय स्वतंत्रता का अभाव है, वे अप्रत्याशित राज्य एवं केंद्रीय हस्तांतरण पर निर्भर हैं, जिससे परियोजनाओं की योजना बनाने तथा उन्हें प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
- स्वयं के स्रोतों से राजस्व सृजन की मज़बूत व्यवस्था का अभाव, कर संग्रह की अकुशल व्यवस्था तथा प्रमुख राजस्व स्रोतों पर राज्य का नियंत्रण उनकी राजकोषीय क्षमता को और भी कमज़ोर कर देता है।
- यहाँ तक कि राज्य वित्त आयोग (SFC), जिन्हें प्रत्येक पाँच वर्ष में विकेंद्रीकरण की सिफारिश करने का दायित्व दिया गया है, या तो विलंबित हो जाते हैं या उनकी सिफारिशें लागू नहीं होतीं।
- वर्ष 2024 के ‘राज्यों में पंचायतों को हस्तांतरण की स्थिति सूचकांक’ में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि स्वयं-स्रोत राजस्व, पंचायत व्यय का केवल 5-10% योगदान देता है।
- RBI की रिपोर्ट में बताया गया है कि जहाँ शहरी क्षेत्र भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 60% राजस्व उत्पन्न करते हैं, वहीं नगर निगमों को सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.6% राजस्व प्राप्त होता है।
- राजनीतिक एवं प्रशासनिक केंद्रीकरण: संवैधानिक मान्यता के बावजूद, वास्तविक प्राधिकार राज्य सरकारों में केंद्रित रहता है तथा स्थानीय निकाय प्रायः केंद्र एवं राज्य प्रायोजित योजनाओं के लिये कार्यान्वयन एजेंसियों तक सीमित रह जाते हैं।
- 11वीं अनुसूची के अंतर्गत 29 विषयों का हस्तांतरण असंगत बना हुआ है, क्योंकि राज्य सरकारें नियंत्रण सौंपने में हिचकिचाती हैं, जिससे पंचायतों के निर्णय लेने के अधिकार पर प्रतिबंध लगता है।
- इससे एक संरचनात्मक विरोधाभास उत्पन्न होता है, जहाँ स्थानीय सरकारें सेवा वितरण के लिये जवाबदेह होती हैं, लेकिन निर्णयों को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने की शक्ति का अभाव होता है।
- ज़िला योजना समितियाँ (DPC) मौजूद हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन प्रभावी ढंग से नहीं किया जाता।
- केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर अत्यधिक निर्भरता: स्थानीय सरकारों के पास विवेकाधीन व्यय शक्ति का अभाव होता है, क्योंकि धन का बड़ा हिस्सा केंद्र द्वारा डिज़ाइन की गई योजनाओं से बंधा होता है, जिससे स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने में लचीलापन कम हो जाता है।
- स्थानीय प्राथमिकताओं और केंद्र द्वारा निर्देशित परियोजनाओं के बीच असंगतता के कारण अकुशलता एवं संसाधनों का कम उपयोग होता है।
- उदाहरण के लिये, ग्रामीण भारत में सभी के लिये आवास उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वर्ष 2016 में PMAY-G की शुरुआत की गई थी, लेकिन विलंब, धीमी निर्माण प्रक्रिया और भूमि उपलब्धता संबंधी समस्याओं के कारण केवल 41% धनराशि ही अप्रयुक्त रह गई।
- स्थानीय प्राथमिकताओं और केंद्र द्वारा निर्देशित परियोजनाओं के बीच असंगतता के कारण अकुशलता एवं संसाधनों का कम उपयोग होता है।
- कमज़ोर जवाबदेही और पारदर्शिता तंत्र: स्थानीय निकाय अकुशल वित्तीय जवाबदेही, स्वतंत्र अंकेक्षण की कमी और शासन में सीमित सार्वजनिक भागीदारी से ग्रस्त हैं।
- भ्रष्टाचार और चुनावी लाभ के लिये कर लगाने में अनिच्छा पंचायत की वित्तीय स्थिति को कमज़ोर करती है तथा अस्पष्ट निर्णय प्रक्रिया लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को कमज़ोर करती है।
- RBI की हालिया रिपोर्ट में पंचायतों के वित्त में प्रदर्शन अंतर को उजागर किया गया है, जिसमें कर राजस्व केवल 1.1% और गैर-कर राजस्व कुल का 3.3% है।
- भ्रष्टाचार और चुनावी लाभ के लिये कर लगाने में अनिच्छा पंचायत की वित्तीय स्थिति को कमज़ोर करती है तथा अस्पष्ट निर्णय प्रक्रिया लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को कमज़ोर करती है।
- राज्य वित्त आयोगों में संरचनात्मक कमज़ोरियाँ: राज्य सरकारें प्रायः राज्य वित्त आयोगों के गठन में विलंब करती हैं और जब गठन भी हो जाता है, तो उनकी सिफारिशों को या तो नजरअंदाज़ कर दिया जाता है या उनका सही अर्थों में क्रियान्वयन नहीं किया जाता है।
- केंद्रीय वित्त आयोग के विपरीत, अधिकांश राज्य नियमित अंतराल पर राज्य वित्त आयोग गठित करने के संवैधानिक दायित्व का पालन करने में विफल रहते हैं।
- एक मज़बूत SFC कार्यढाँचे को संस्थागत बनाने में विफलता ने स्थानीय सरकारों की वित्तीय स्वतंत्रता को कमज़ोर कर दिया है।
- 15वें वित्त आयोग (वर्ष 2021-26) ने इस बात पर प्रकाश डाला कि केवल 9 राज्यों ने अपना छठा SFC गठित किया है, जबकि सभी राज्यों के लिये यह वर्ष 2019-20 में होना था।
- केंद्रीय वित्त आयोग के विपरीत, अधिकांश राज्य नियमित अंतराल पर राज्य वित्त आयोग गठित करने के संवैधानिक दायित्व का पालन करने में विफल रहते हैं।
- निर्णय लेने में सीमांत समूहों का सीमित प्रतिनिधित्व: हालाँकि स्थानीय निकायों में महिलाओं, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षण मौजूद है, लेकिन उनका प्रतिनिधित्व बहुत हद तक प्रतीकात्मक है तथा वास्तविक निर्णय लेने की शक्ति प्रायः प्रमुख सामाजिक समूहों के पास होती है।
- महिला सरपंचों और पार्षदों को प्रायः प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व (प्रधान पति) का सामना करना पड़ता है, जहाँ परिवार के पुरुष सदस्य शासन को प्रभावित करते हैं।
- प्रशिक्षण, वित्तीय स्वतंत्रता और संस्थागत समर्थन की कमी वास्तविक शासन में उनकी भूमिका को कमज़ोर करती है।
- वर्ष 2023 की एक सरकारी योजना में पंचायतों में प्रधान पतियों के लिये कठोर दंड का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन यह प्रथा अभी भी व्यापक रूप से जारी है।
- महिला सरपंचों और पार्षदों को प्रायः प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व (प्रधान पति) का सामना करना पड़ता है, जहाँ परिवार के पुरुष सदस्य शासन को प्रभावित करते हैं।
- स्थानीय सरकारों में मानव संसाधन क्षमता का अभाव: स्थानीय निकाय प्रशिक्षित कार्मिकों की भारी कमी से ग्रस्त हैं तथा महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यों को अभी भी राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
- योजना, वित्तीय प्रबंधन और सेवा वितरण के लिये समर्पित तकनीकी कर्मचारियों की अनुपस्थिति उनकी प्रभावी ढंग से कार्य करने की क्षमता को कमज़ोर करती है।
- निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास शासन कार्यों को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करने के लिये प्रायः आवश्यक प्रशिक्षण और विशेषज्ञता का अभाव होता है।
- वर्ष 2020 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि नौ राज्यों में ज़िला योजना समितियाँ गैर-कार्यात्मक हैं और 15 राज्यों में एकीकृत योजनाएँ तैयार करने में विफल रहीं।
- इसमें यह भी पाया गया कि कई शहरों में स्वीकृत पदों के मुकाबले स्टाफ के रिक्त पद लगभग 30% हैं।
- योजना, वित्तीय प्रबंधन और सेवा वितरण के लिये समर्पित तकनीकी कर्मचारियों की अनुपस्थिति उनकी प्रभावी ढंग से कार्य करने की क्षमता को कमज़ोर करती है।
- स्थानीय शासन में डिजिटल और तकनीकी एकीकरण का अभाव: अधिकांश स्थानीय निकायों में डिजिटल बुनियादी अवसंरचना अपर्याप्त है, जिससे पारदर्शिता, दक्षता और नागरिक सहभागिता सीमित हो रही है।
- यद्यपि कुछ राज्यों ने ई-गवर्नेंस पहल को अपनाया है, लेकिन डिजिटल उपकरणों के असमान कार्यान्वयन के कारण सेवा वितरण में अंतर उत्पन्न हो रहा है।
- 40% से अधिक ग्राम पंचायतें डिजिटल अटेंडेंस की रिपोर्ट नहीं करती हैं। लोकसभा में पेश किये गए वर्ष 2021 के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में 25000 से अधिक गाँव अभी भी इंटरनेट सुविधा से वंचित हैं।
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को पुनर्जीवित करने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- राज्य वित्त आयोगों (SFC) को मज़बूत करके राजकोषीय स्वायत्तता सुनिश्चित करना: प्रभावी स्थानीय शासन के लिये एक पूर्वानुमानित और पारदर्शी राजकोषीय हस्तांतरण तंत्र आवश्यक है।
- राज्यों को ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची के सभी विषयों के लिये व्यापक गतिविधि मानचित्रण करना चाहिये तथा तदनुसार वित्तीय अंतरण को संरेखित करना चाहिये।
- स्थानीय सरकारों को बेहतर संपत्ति कर मूल्यांकन और पेशेवर कर संग्रह तंत्र सहित अधिक कर स्वायत्तता दी जानी चाहिये।
- द्वितीय ARC वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये स्थानीय सरकारों के राजस्व आधार को व्यापक और गहन बनाने की सिफारिश करता है।
- प्रशासनिक स्वायत्तता के साथ पंचायतों और नगर पालिकाओं को सशक्त बनाना: स्थानीय सरकारों के पास कार्यकुशलता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये कार्मिकों की भर्ती करने एवं सेवा शर्तों को विनियमित करने की शक्ति होनी चाहिये।
- राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय बजट को मंजूरी देने की प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्थानीय रूप से निर्वाचित निकायों का अपने वित्तीय नियोजन पर पूर्ण नियंत्रण हो।
- पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों के पास स्थानीय शासन के लिये समर्पित प्रशिक्षित कार्मिकों सहित स्वतंत्र सचिवालय होने चाहिये।
- राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय बजट को मंजूरी देने की प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्थानीय रूप से निर्वाचित निकायों का अपने वित्तीय नियोजन पर पूर्ण नियंत्रण हो।
- मेयर-इन-काउंसिल प्रणाली के माध्यम से शहरी शासन में सुधार: नगरपालिका शासन की वर्तमान प्रणाली, जहाँ कार्यकारी शक्तियाँ मेयरों और आयुक्तों के बीच साझा की जाती हैं, अकुशलता और जवाबदेही अंतराल को जन्म देती है।
- निश्चित कार्यकाल और कार्यकारी प्राधिकार के साथ प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित मेयर से शासन एवं सार्वजनिक जवाबदेही में सुधार होगा।
- द्वितीय ARC द्वारा अनुशंसित मेयर-इन-काउंसिल प्रणाली, निर्णय लेने की प्रक्रिया को सरल बनाने तथा नगरपालिका की कार्यकुशलता में सुधार लाने में सहायक होगी।
- नगर निकायों को राज्य सरकारों पर वित्तीय निर्भरता कम करने के लिये राजस्व सृजन हेतु भूमि बैंकों का भी लाभ उठाना चाहिये।
- द्वितीय ARC ने सिफारिश की है कि नगर पालिकाओं को अपने कार्यों पर पूर्ण स्वायत्तता तथा पारदर्शी कराधान तंत्र होना चाहिये।
- शक्तियों के वास्तविक हस्तांतरण के साथ ग्रामीण शासन को सुदृढ़ बनाना: एक अनिवार्य गतिविधि मानचित्रण अभ्यास द्वारा शासन के प्रत्येक स्तर पर जिम्मेदारियों का स्पष्ट चित्रण सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- ग्राम पंचायतों का आकार उचित होना चाहिये ताकि वे प्रभावी ढंग से कार्य कर सकें तथा सार्वजनिक सेवाएँ कुशलतापूर्वक प्रदान कर सकें।
- पारंपरिक शासन संरचनाओं को सशक्त बनाने के लिये जनजातीय क्षेत्रों में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (PESA) का पूर्ण कार्यान्वयन होना चाहिये।
- पारदर्शी कराधान और उधार के माध्यम से स्थानीय राजस्व सृजन को बढ़ाना: स्थानीय सरकारों को राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये नियामक सुरक्षा उपायों के साथ अधिक उधार लेने की शक्तियाँ प्रदान की जानी चाहिये।
- स्थानीय राजस्व सृजन में सुधार के लिये पारदर्शी संपत्ति कर मूल्यांकन और व्यावसायिक कर संग्रह को सुव्यवस्थित किया जाना चाहिये।
- राजस्व स्रोतों में विविधता लाने (जैसे: इंदौर मॉडल) और शहरी बुनियादी अवसंरचना को वित्तपोषित करने के लिये म्यूनिसिपल बॉण्ड एवं संयुक्त वित्तपोषण तंत्र को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- द्वितीय ARC ने सिफारिश की है कि नगरपालिकाओं को पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता दी जानी चाहिये तथा उनकी उधार लेने की क्षमता बढ़ाई जानी चाहिये।
- लचीले वर्गीकरण के साथ शहरी-ग्रामीण शासन विभाजन न्यूनतम करना: कई अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में सख्त शहरी-ग्रामीण विभाजन के कारण पर्याप्त शासन तंत्र का अभाव है।
- एक गतिशील वर्गीकरण प्रणाली विकसित की जानी चाहिये, जहाँ परि-शहरी क्षेत्र पंचायतों से नगर पालिकाओं में सुचारू रूप से परिवर्तित हो सकें।
- शासन वर्गीकरण-केंद्रित के बजाय सेवा-केंद्रित होना चाहिये।
- महानगर योजना समितियों (MPC) और ज़िला योजना समितियों (DPC) जैसे विशेष शासन मॉडल को मज़बूत किया जाना चाहिये ताकि क्षेत्राधिकार-पार मुद्दों का समाधान किया जा सके।
- अशोक मेहता समिति ने स्थानीय निकायों के लिये अधिक मज़बूत वित्तीय और कार्यात्मक स्वायत्तता के साथ दो स्तरीय शासन संरचना की सिफारिश की थी।
- एक गतिशील वर्गीकरण प्रणाली विकसित की जानी चाहिये, जहाँ परि-शहरी क्षेत्र पंचायतों से नगर पालिकाओं में सुचारू रूप से परिवर्तित हो सकें।
- स्थानीय सरकार की क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण को संस्थागत बनाना: स्थानीय प्रतिनिधियों के पास शासन कार्यों को संभालने के लिये प्रायः आवश्यक प्रशिक्षण और विशेषज्ञता का अभाव होता है।
- प्रत्येक राज्य में स्थानीय शासन प्रशिक्षण संस्थान (LGTI) की स्थापना से निर्वाचित प्रतिनिधियों और अधिकारियों के लिये निरंतर क्षमता निर्माण हो सकता है।
- दक्षता और पारदर्शिता में सुधार के लिये ई-गवर्नेंस और डिजिटल उपकरणों को स्थानीय प्रशासन में एकीकृत किया जाना चाहिये। जी.वी.के. राव समिति ने सिफारिश की थी कि स्थानीय सरकारों को पर्याप्त प्रशासनिक और तकनीकी विशेषज्ञता के साथ सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- नागरिक चार्टर और भागीदारी शासन तंत्र को लागू करना: नागरिकों को प्रमुख नीतिगत निर्णयों के लिये अनिवार्य सार्वजनिक परामर्श, वार्ड सभाओं और ग्राम सभाओं के माध्यम से स्थानीय शासन में सक्रिय रूप से शामिल किया जाना चाहिये।
- निधि आवंटन और सेवा वितरण में उत्तदायित्व में सुधार के लिये सामाजिक अंकेक्षण एवं भागीदारी बजट को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश के अनुसार सभी शहरी स्थानीय निकायों में नागरिक चार्टर कानूनी रूप से बाध्यकारी होने चाहिये, ताकि सेवा वितरण की समय-सीमा सुनिश्चित की जा सके।
- बलवंत राय मेहता समिति ने भी प्रभावी स्थानीय शासन के लिये निर्णय लेने में सामुदायिक भागीदारी पर बल दिया।
निष्कर्ष:
सच्चे लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को सुनिश्चित करने के लिये, भारत को राजकोषीय मज़बूती, कार्यात्मक स्वायत्तता और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। स्थानीय राजस्व सृजन को मज़बूत करना, वास्तविक प्रशासनिक अधिकार प्रदान करना और समावेशी शासन सुनिश्चित करना पंचायतों एवं नगर पालिकाओं को सशक्त बनाएगा। एक दूरदर्शी दृष्टिकोण में डिजिटल गवर्नेंस, वित्तीय स्वतंत्रता और नागरिक भागीदारी को एकीकृत करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में वास्तविक लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण प्राप्त करने में 73वें और 74वें संविधान संशोधन की प्रभावशीलता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. स्थानीय स्वशासन की सर्वोत्तम व्याख्या यह की जा सकती है कि यह एक प्रयोग है (2017) (a) संघवाद का उत्तर: (b) प्रश्न 2. पंचायती राज व्यवस्था का मूल उद्देश्य क्या सुनिश्चित करना है? (2015)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 3 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न 1. भारत में स्थानीय शासन के एक भाग के रूप में पंचायत प्रणाली के महत्त्व का आकलन कीजिये। विकास परियोजनाओं के वित्तीयन के लिये पंचायतें सरकारी अनुदानों के अलावा और किन स्रोतों को खोज़ सकती है? (2018) प्रश्न 2. आपकी राय में, भारत में शक्ति के विकेंद्रीकरण ने ज़मीनी-स्तर पर शासन-परिदृश्य को किस सीमा तक परिवर्तित किया है? (2022) |