नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


कृषि

भारतीय कृषि में प्रौद्योगिकी

  • 14 Aug 2023
  • 22 min read

यह एडिटोरियल 10/08/2023 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Seeds for growth’’ पर आधारित है। इसमें भारतीय कृषि को बढ़ावा देने के लिये प्रौद्योगिकी के उपयोग के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

G-20, न्यूनतम समर्थन मूल्य, e-NAM, किसान उत्पादक संगठन, राष्ट्रीय बीज निगम, बीटी कपास, पौधों की किस्मों और किसानों के अधिकारों का संरक्षण अधिनियम, बौद्धिक संपदा अधिकार

मेन्स के लिये:

सतत् कृषि, मानसून, भारतीय कृषि की चुनौतियाँ

कृषि और संबद्ध क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये केंद्रीय महत्त्व के क्षेत्र हैं। इस तथ्य को और एक सतत् भविष्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार उचित ही अपनी G20 अध्यक्षता के दौरान प्राकृतिक, पुनर्योजी और जैविक प्रणालियों सहित विभिन्न प्रौद्योगिकी-सक्षम सतत् कृषि को बढ़ावा दे रही है।

हालाँकि भारत के समक्ष अपने कृषि क्षेत्र में अभी भी कई चुनौतियाँ और अवसर मौजूद हैं, जैसे कि कुछ फसलों के मामले में मांग एवं सामर्थ्य/वहनीयता की पूर्ति करना, अपनी कृषि उपज की उत्पादकता, गुणवत्ता एवं पोषण में सुधार करना, उत्पादन लागत को कम करना और कृषि के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के साथ ही जलवायु परिवर्तन एवं कृषि पर इसके प्रभावों से निपटना। बीज प्रौद्योगिकी (technology) को अपनाकर इन चुनौतियों और अवसरों को संबोधित किया जा सकता है।

भारत में बीज प्रौद्योगिकी का एक समृद्ध इतिहास और परंपरा रही है, जो 1960 के दशक से चली आ रही है जब राष्ट्रीय बीज निगम (National Seeds Corporation) की स्थापना हुई थी। तब से भारत ने विभिन्न बीज प्रौद्योगिकियों—जैसे संकरण (hybridization), ऊतक संवर्द्धन (tissue culture), मॉलिक्यूलर मार्कर (molecular markers), ट्रांसजेनिक (transgenics) आदि को विकसित करने और अपनाने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है।

बीज प्रौद्योगिकी विभिन्न शस्य दशाओं में बीजों की क्षमता या प्रदर्शन को बढ़ाने के लिये उनकी आनुवंशिक एवं भौतिक गुणवत्ता में सुधार करने के विज्ञान और कला को संदर्भित करती है। बीज प्रौद्योगिकी कम अतिरिक्त लागत पर सतत् कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण लाभ प्रदान कर सकती है। G20 देशों के लिये बीज केंद्र (seed hub) बन सकने की अप्रयुक्त क्षमता के साथ भारतीय बीज बाज़ार का आकार लगभग 4 से 6 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया है।

भारतीय कृषि के लिये बीज प्रौद्योगिकी क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • उच्चतर उत्पादकता:
    • बीज प्रौद्योगिकी ऐसे उन्नत किस्मों को विकसित करके फसलों की उपज क्षमता को बढ़ा सकती है जिनमें उच्च अनाज या फल की गुणवत्ता, कीटों एवं रोगों के प्रति प्रतिरोध, सूखे या लवणता के प्रति सहनशीलता जैसे वांछनीय गुण होते हैं।
    • बीज प्रौद्योगिकी प्राइमिंग या फिजियोलोजिकल एडवांसमेंट प्रोटोकॉल (priming or physiological advancement protocols) का उपयोग कर अंकुरण दर (germination rate), अंकुरण शक्ति (seedling vigour) और बीज के पादप स्थापन (plant establishment) में सुधार कर सकती है।
  • उच्च इनपुट उपयोग दक्षता:
    • बीज प्रौद्योगिकी फिल्म कोटिंग, पेलेटिंग या बीज उपचार (seed treatments) का उपयोग कर उर्वरकों, कीटनाशकों और जल जैसे इनपुट की मात्रा एवं लागत को कम कर सकती है जो इन इनपुट को इष्टतम मात्रा में सीधे बीज या पौधों तक पहुँचा सकती है।
    • बीज प्रौद्योगिकी जैव-उत्तेजक और पोषक तत्वों (bio-stimulants and nutrients) का उपयोग कर पौधों के पोषक तत्वों के अवशोषण एवं उपयोग को भी बढ़ा सकती है जो पौधों के विकास और चयापचय को तेज़ कर सकते हैं।
  • उच्च प्रत्यास्थता:
    • बीज प्रौद्योगिकी आनुवंशिक हेरफेर (genetic manipulation), गति प्रजनन (speed breeding), जीन-संपादन उपकरण (gene-editing tools) या AI-उत्तरदायी सेंसर या पदार्थों (AI-responsive sensors or substances) का उपयोग करके लगातार बदलती और अप्रत्याशित जलवायु परिस्थितियों में फसलों की अनुकूलन क्षमता एवं स्थिरता में सुधार कर सकती है जो बाहरी उत्तेजनाओं के प्रति पौधों की प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर सकते हैं।
    • जीव प्रौद्योगिकी जैविक या माइक्रोबियल इनोकुलम (biologicals or microbial inoculum) का उपयोग कर फसलों की विविधता और स्वास्थ्य में भी सुधार कर सकती है जो पौधों की प्रतिरक्षा तथा मृदा की उर्वरता को बढ़ा सकती है।

भारत में उपयोग या विकसित की जा रही बीज प्रौद्योगिकियों के कुछ उदाहरण

  • मोटे अनाज के बीज:
    • मोटे अनाज (Millets) पोषक तत्व से समृद्ध, प्रतिकूलता के प्रति सहनशील और लघु-चक्रीय फसलें हैं जो सतत् कृषि के लिये उपयुक्त हैं।
      • भारत मोटे अनाज के उत्पादन में वैश्विक अग्रणी स्थिति रखता है और मोटे अनाज, विशेष रूप से गौण मोटे अनाज (minor millets) की उन्नत किस्मों के गुणवत्ता-आश्वस्त बीज का उत्पादन कर वैश्विक बीज बाज़ार पर कब्जा करने की क्षमता रखता है।
    • भारत ने पारंपरिक प्रजनन और आणविक तकनीकों का उपयोग करके मोटे अनाज की कई उच्च उपज देने वाली और जलवायु-प्रत्यास्थी किस्में विकसित की हैं।
      • भारत ने मोटे अनाज के बीजों के अंकुरण, उद्भव, एकरूपता और सुरक्षा में सुधार के लिये प्राइमिंग और फिल्म कोटिंग तकनीक भी शुरू की है।
  • कपास के बीज:
    • कपास भारत के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण नकदी फसलों में से एक है और लाखों किसानों के लिये आय का एक प्रमुख स्रोत है।
      • भारत ने वर्ष 2002 में बीटी कपास संकर (Bt cotton hybrids) पेश कर कपास उत्पादन में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है।
      • बीटी कपास एक ट्रांसजेनिक फसल है जो बैसिलस थुरिंगिएंसिस (Bacillus thuringiensis- Bt) नामक मृदा जीवाणु के एक जीन को शामिल करती है, जो एक ऐसे प्रोटीन का उत्पादन करती है जो कुछ कीटों को मार देती है।
      • बीटी कपास ने कीट द्वारा होने वाली क्षति और कीटनाशकों के उपयोग को कम करके कपास की उपज में वृद्धि की है।
      • भारत ने आणविक प्रजनन और जीन-संपादन उपकरणों का उपयोग कर भी कपास की कई नई किस्में विकसित की हैं, जिनमें फाइबर की गुणवत्ता, सूखा सहनशीलता, शाकनाशी प्रतिरोध जैसे गुणों में सुधार हुआ है।
  • सब्जी के बीज:
    • भारत में विभिन्न प्रकार की सब्जी फसलों की कृषि की जाती है जिनके लिये विभिन्न प्रकार के बीजों की आवश्यकता होती है।
    • भारत ने पारंपरिक प्रजनन और जैव प्रौद्योगिकी विधियों का उपयोग करके सब्जियों की कई उन्नत किस्में और संकर विकसित किये हैं।
    • भारत ने सब्जी बीजों की गुणवत्ता और प्रदर्शन में सुधार के लिये विभिन्न बीज संवर्द्धन तकनीकों—जैसे फिल्म कोटिंग, पेलेटिंग, प्राइमिंग, बायो-स्टिमूलस, न्यूट्रीएंट्स, बायोलॉजिकल्स आदि की भी शुरुआत की है।

भारत में बीज प्रौद्योगिकियों का समर्थन करने वाली कुछ प्रमुख नीतियाँ और विनियमन

  • पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम (PPV&FR Act), 2001:
    • यह अधिनियम पौधा प्रजनकों और किसानों को उनकी किस्मों एवं नवाचारों के लिये बौद्धिक संपदा अधिकार (intellectual property rights) संरक्षण प्रदान करता है।
    • यह पादप आनुवंशिक संसाधनों के संरक्षण और सतत् उपयोग को भी प्रोत्साहित करता है।
  • बीज अधिनियम, 1966 और बीज नियम, 1968:
    • ये अधिनियम और नियम भारत में बीजों के गुणवत्ता नियंत्रण और प्रमाणीकरण को नियंत्रित करते हैं। ये बीज परीक्षण, लेबलिंग और विपणन के लिये मानक एवं प्रक्रियाएँ भी निर्धारित करते हैं।
  • उर्वरक (अजैविक, जैविक या मिश्रित) (नियंत्रण) संशोधन आदेश, 2021:
    • यह आदेश जैव-उत्तेजक (bio-stimulants) को उर्वरकों की श्रेणी के रूप में शामिल करने के लिये उर्वरक (अजैविक, जैविक या मिश्रित) (नियंत्रण आदेश, 1985) में संशोधन करता है।
      • जैव-उत्तेजक ऐसे पदार्थ या सूक्ष्मजीव हैं जो पौधों की वृद्धि और विकास को बढ़ाते हैं।
      • यह आदेश भारत में जैव-उत्तेजक के पंजीकरण और उपयोग की सुविधा प्रदान करेगा।

भारतीय कृषि के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ

  • जल आपूर्ति में अनिश्चितता:
    • भारत में कृषि व्यापक रूप से मानसून की वर्षा पर निर्भर है, जो प्रायः अनियमित, अविश्वसनीय और अपर्याप्त होती है।
      • इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न और अन्य फसलों के उत्पादन में साल-दर-साल उतार-चढ़ाव होता रहता है।
      • प्रचुर उत्पादन वाले वर्ष के बाद प्रायः भारी कमी वाले वर्ष की वापसी होती है।
    • इसके अलावा, भारत में फसली क्षेत्र का केवल एक-तिहाई हिस्सा ही सिंचाई के अंतर्गत शामिल है और सिंचाई अवसंरचना प्रायः अपर्याप्त, अकुशल एवं अपर्याप्त रखरखाव से ग्रस्त है।
    • जल की कमी और सूखा भारतीय कृषि के लिये बड़े खतरे हैं, विशेष रूप से अर्द्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में।
  • पारिश्रमिक आय का अभाव:
    • भारत में अधिकांश किसान निर्वाह कृषि (subsistence farming) करते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मुख्य रूप से स्वयं के उपभोग के लिये फसलें उगाते हैं और बाज़ार में बेचने के लिये उनके पास बहुत कम या कोई अधिशेष नहीं बचता है।
      • कृषि उपज की कीमतें प्रायः कम और अस्थिर होती हैं तथा उत्पादन की लागत को भी कवर नहीं कर पाती हैं।
      • किसानों को बिचौलियों, व्यापारियों और साहूकारों द्वारा शोषण का सामना करना पड़ता है, जो उच्च ब्याज दरों और कमीशन की वसूली करते हैं।
    • किसान औपचारिक ऋण और बीमा तक सीमित पहुँच रखते हैं जो उन्हें ऋण जाल और फसल विफलता के प्रति संवेदनशील बनाती है।
      • किसानों के पास उचित मूल्य और नीतियों की मांग करने के लिये सौदेबाजी की शक्ति और सामूहिक कार्रवाई का भी अभाव है।
  • भूमि जोत का विखंडन:
    • जनसंख्या वृद्धि और संयुक्त परिवार प्रणाली के विखंडन के कारण, कृषि भूमि का लगातार छोटे भूखंडों या भूमि जोत में विभाजन हो रहा है।
      • भारत में भूमि जोत का औसत आकार 2 हेक्टेयर से भी कम है और लगभग 86% किसान छोटे एवं सीमांत किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है।
    • भूमि जोत के विखंडन से कृषि की दक्षता और उत्पादकता कम हो जाती है, साथ ही मशीनीकरण और विविधीकरण की गुंजाइश भी कम हो जाती है।
    • इससे कृषि और प्रबंधन की लागत भी बढ़ जाती है।
  • गुणवत्तापूर्ण बीजों और आगतो तक पहुँच का अभाव:
    • बीज कृषि में सबसे महत्त्वपूर्ण इनपुट हैं, क्योंकि वे ही फसलों की उपज क्षमता और गुणवत्ता निर्धारित करते हैं।
    • हालाँकि, भारत में कई किसानों के पास उन्नत किस्मों के ऐसे गुणवत्तापूर्ण बीजों तक पहुँच नहीं है, जिनमें उच्च उपज, कीटों एवं रोगों के प्रति प्रतिरोध, सूखे या लवणता के प्रति सहनशीलता जैसे वांछनीय गुण होते हैं।
      • बीज प्रतिस्थापन दर (Seed Replacement Rate- SRR)—जो किसी फसल के लिये बोए गए कुल क्षेत्र में प्रमाणित बीजों के साथ बोए गए क्षेत्र के प्रतिशत को निरूपित करता है, भारत में कई फसलों के लिये कम है।
      • उदाहरण के लिये, चावल के लिये SSR केवल 39.8% है, जबकि गेहूँ के लिये यह 40.3% है।
    • किसानों के पास उर्वरक, कीटनाशक, जैव-उत्तेजक, पोषक तत्व जैसे अन्य इनपुट तक पहुँच की भी कमी है, जो विभिन्न शस्य दशाओं में बीजों के प्रदर्शन को बढ़ा सकते हैं।
  • मशीनीकरण एवं आधुनिकीकरण का अभाव:
    • जुताई , बुआई, सिंचाई, निराई, कटाई, मड़ाई और फसलों के परिवहन में मशीनों का बहुत कम उपयोग किया जाता है या बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया जाता है।
      • मशीनीकरण की कमी से कृषि की दक्षता और उत्पादकता कम हो जाती है, साथ ही कठिन परिश्रम की आवश्यकता और श्रम लागत भी बढ़ जाती है।
    • परिशुद्ध कृषि (precision agriculture), जैव प्रौद्योगिकी, डिजिटल कृषि जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकियों का उपयोग करने के बारे में बहुत से किसान जागरूक या प्रशिक्षित नहीं हैं , जो कृषि उपज की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार कर सकते हैं।
  • संबद्ध अवसंरचना का अभाव:
    • भारत में किसानों को बाज़ार पहुँच, भंडारण सुविधाओं, प्रसंस्करण इकाइयों, परिवहन नेटवर्क जैसी संबद्ध अवसंरचना की कमी के कारण भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो उनकी उपज का मूल्यवर्द्धन कर सकते हैं और उनकी आय बढ़ा सकते हैं।
    • बाज़ार की जानकारी, प्रतिस्पर्द्धा, विनियमन आदि के अभाव के कारण किसानों को प्रायः अपनी उपज कम कीमत पर बेचनी पड़ती है।
      • ऐसे उचित भंडारण सुविधाओं की कमी के कारण किसानों को फसल के बाद के नुकसान (post-harvest losses) का भी सामना करना पड़ता है, जो उनकी उपज को खराब होने और क्षति से बचा सकता है।
    • किसानों के पास अपनी उपज को मूल्यवर्द्धित उत्पादों में संसाधित करने के ऐसे सीमित अवसर मौजूद हैं जो बाज़ार में उच्च कीमतें प्राप्त कर सकते हैं।
    • खराब सड़क संपर्क और उच्च परिवहन लागत के कारण किसानों को अपनी उपज को खेत से बाज़ार तक ले जाने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

आगे की राह

  • आय अधिकतम करना, जोखिम न्यूनतम करना:
    • किसानों को अपनी फसलों, बाज़ारों, इनपुट, प्रौद्योगिकियों और संगठनात्मक रूपों के बारे में सूचना-संपन्न विकल्प चुनने के लिये सशक्त बनाने की आवश्यकता है।
    • उन्हें मूल्य अस्थिरता, जलवायु आघात, कीटों एवं बीमारियों और अन्य अनिश्चितताओं से बचाने की आवश्यकता भी है।
    • इसे मौजूदा संस्थानों और तंत्रों—जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), फसल बीमा, विस्तार सेवाओं, सहकारी समितियों आदि को सुदृढ़ करने के साथ-साथ अनुबंध कृषि, e-NAM, किसान उत्पादक संगठन जैसे नए तंत्र बनाकर हासिल किया जा सकता है।
  • उदारीकृत कृषि:
    • किसानों को अपने खेतों के लिये संसाधनों, भूमि, इनपुट, प्रौद्योगिकी और संगठनात्मक रूपों का सर्वोत्तम मिश्रण निर्धारित कर सकने के लिये स्वतंत्र किया जाना चाहिये।
      • उन्हें अपनी उपज के लिये देश के भीतर और बाहर विविध और प्रतिस्पर्द्धी बाज़ारों तक पहुँच भी मिलनी चाहिये।
    • इसे उन बाधाओं और विकृतियों को दूर करके सुगम बनाया जा सकता है जो कृषि वस्तुओं और सेवाओं के मुक्त प्रवाह में बाधा डालती हैं, जैसे प्रतिबंधात्मक व्यापार नीतियाँ, अत्यधिक विनियमण, अकुशल मध्यस्थ/बिचौलिये आदि।
      • कृषि में निजी क्षेत्र के निवेश और नवाचार के लिये एक सक्षम वातावरण का निर्माण कर भी इसका समर्थन किया जा सकता है।
  • सतत् कृषि:
    • किसानों को प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने, मृदा के स्वास्थ्य को बढ़ाने, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जैव विविधता में सुधार करने वाली सतत् कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
      • जैविक कृषि, एकीकृत कीट प्रबंधन, कृषि वानिकी आदि कृषि-पारिस्थितिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के साथ-साथ परिशुद्ध कृषि, जैव प्रौद्योगिकी, डिजिटल कृषि जैसी नई प्रौद्योगिकियों को अपना कर ऐसा किया जा सकता है।
    • उपभोक्ताओं और खुदरा विक्रेताओं के बीच सतत् कृषि उत्पादों के लिये जागरूकता और मांग सृजित कर भी इसमें सहायता की जा सकती है।

दृष्टि मेन्स अभ्यास प्रश्न

प्रौद्योगिकी कृषि क्षेत्र की उत्पादकता, लाभप्रदता और प्रत्यास्थता को बढ़ाकर भारतीय कृषि को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारतीय पेटेंट अधिनियम के अनुसार, किसी बीज को बनाने की जैव प्रक्रिया को भारत में पेटेंट कराया जा सकता है।
  2. भारत में कोई बौद्धिक संपदा अपील बोर्ड नहीं है।
  3. पादप किस्में भारत में पेटेंट कराए जाने के पात्र नहीं हैं।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. फसल विविधता के समक्ष मौजूदा चुनौतियाँ क्या हैं? उभरती प्रौद्योगिकियाँ फसल विविधता के लिये किस प्रकार अवसर प्रदान करती हैं? (2021)

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow