मध्य-पूर्व में भारत के हित | 09 Aug 2024

यह एडिटोरियल 07/08/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “A widening war in the Middle East” लेख पर आधारित है। इसमें मध्य-पूर्व में अस्थिरता एवं बढ़ते संघर्ष, भारत के लिये इस क्षेत्र के महत्त्व और क्षेत्र में भारतीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक कदमों की चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

मध्य पूर्व, भारत की कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की आवश्यकताएँ, चाबहार बंदरगाह परियोजना, अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप गलियारा, इस्लामिक सहयोग संगठन, अरब लीग, UNSC, इज़रायल-फिलिस्तीनी संघर्ष, अब्राहम समझौते, भारत-यूएई व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता। 

मेन्स के लिये:

भारत के लिये मध्य पूर्व का महत्त्व, मध्य पूर्व से संबंधित मुद्दे और भारत पर प्रभाव।

मध्य पूर्व (Middle East) विश्व के लिये एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र बना हुआ है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। हाल के समय में इज़राइल और ईरान समर्थित शक्तियों के बीच तनाव की वृद्धि हुई है, जो हिंसा और प्रतिशोध के एक दुष्चक्र से चिह्नित होती है और इस क्षेत्र के जटिल समीकरण को रेखांकित करती है। इस दीर्घकालिक अस्थिरता ने न केवल इस भूभाग को अस्थिर किया  है, बल्कि इसके वैश्विक परिणाम भी उत्पन्न हुए हैं, जिसमें तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और भू-राजनीतिक तनाव में वृद्धि शामिल हैं।

इस भू-भाग की रणनीतिक अवस्थिति, ऊर्जा सुरक्षा हितों और बढ़ते आर्थिक संबंधों को देखते हुए, एक स्थिर मध्य-पूर्व में भारत अत्यंत महत्त्वपूर्ण हित रखता है। यह क्षेत्र भारत के लिये ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बना हुआ है, साथ ही यह भारत की वस्तुओं एवं सेवाओं के लिये एक प्रमुख बाज़ार भी है। इस परिदृश्य में, भारत के लिये आवश्यक है कि वह सभी प्रमुख हितधारकों के साथ सक्रिय रूप से संलग्न हो और एक संतुलित एवं स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करे।

भारत के लिये मध्य-पूर्व का क्या महत्त्व है?

  • ऊर्जा सुरक्षा और व्यापार संबंध: मध्य-पूर्व भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • यह क्षेत्र भारत की भारत की कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, जिससे यह भारत की तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्था के लिये ईंधन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है।
    • IEA के गोल्बल एनर्जी आउटलुक 2021 के अनुसार, वैश्विक प्राथमिक ऊर्जा उपभोग में भारत की वर्तमान हिस्सेदारी 6.1% है और घोषित नीति परिदृश्यों के तहत यह वर्ष 2050 तक लगभग 9.8% तक पहुँच सकती है।
      • सऊदी अरब, इराक़ और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश भारत के प्रमुख ऊर्जा भागीदार हैं।
    • क्षेत्र की ऊर्जा आपूर्ति में व्यवधान या वैश्विक तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का भारत के आर्थिक प्रदर्शन और मुद्रास्फीति के स्तर पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
  • आतंकवाद-रोधी सहयोग: मध्य-पूर्व ऐतिहासिक रूप से अल-कायदा, ISIS और उनके सहयोगियों सहित विभिन्न आतंकवादी संगठनों के लिये सुरक्षित शरणस्थली रहा है, जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता है।
    • भारत इस भू-भाग में संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और इज़राइल जैसे देशों के साथ खुफिया जानकारी साझा करने, आतंकवाद विरोधी प्रयासों में समन्वय करने और इन आतंकवादी समूहों के वित्तपोषण एवं रसद को बाधित करने के लिये सहयोग कर रहा है।
      • SIPRI के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में भारत ने इज़राइल से 2.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सैन्य उपकरण आयात किये हैं।
      • सऊदी अरब ने हाल ही में खुफिया जानकारी साझा करने और आतंकवाद के वित्तपोषण को रोकने के माध्यम से आतंकवाद से मुक़ाबला करने के लिये भारत के साथ अपनी साझेदारी को मज़बूत करने की प्रतिबद्धता जताई है।
    • इस सहयोग से भारत को ऐसे कई आतंकवादी षड्यंत्रों को विफल करने और चरमपंथी नेटवर्क को ध्वस्त करने में मदद मिली है, जिन्होंने घरेलू और विदेशी दोनों ही स्तरों पर भारतीय हितों को निशाना बनाया है।
  • भारतीय प्रवासी और धन प्रेषण का प्रवाह: मध्य-पूर्व में बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी निवास करते हैं।
    • 1.34 करोड़ अनिवासी भारतीयों (NRIs) में से 66% से अधिक संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कुवैत, क़तर, ओमान और बहरीन जैसे देशों में रहते हैं।
    • ये प्रवासी समुदाय न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं, बल्कि भारत के लिये धन प्रेषण (remittances) का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत भी हैं।
    • इस प्रवासी समुदाय का कल्याण एवं सुरक्षा भारत के लिये एक प्रमुख चिंता का विषय है और भारत ने उनकी सुरक्षा के लिये विभिन्न उपाय किये हैं, जैसा कि हाल ही में क़तर में भारतीय नौसेना के पूर्व अधिकारियों के मामले में देखा गया।
  • सांस्कृतिक और सभ्यतागत संबंध: मध्य-पूर्व भारत के साथ गहरे सांस्कृतिक, सभ्यतागत और ऐतिहासिक संबंध साझा करता है, जो प्राचीन समुद्री व्यापार मार्गों तक जुड़ा हुआ है।
    • वर्तमान में ये संबंध भारत और इस क्षेत्र के बीच साझे स्थापत्य विरासत, पाक-कला परंपराओं और कला, साहित्य एवं विद्वत्ता के जीवंत आदान-प्रदान में प्रतिबिंबित होते हैं।
    • भारत-अरब लीग मीडिया संगोष्ठी (India-Arab League media symposium) तथा अबू धाबी में BAPS हिंदू मंदिर जैसी हालिया पहलों का उद्देश्य इन सांस्कृतिक संबंधों को और मज़बूत करना है।
  • क्षेत्रीय संपर्क और आधारभूत संरचना: भारत मध्य-पूर्व में क्षेत्रीय संपर्क और आधारभूत संरचना परियोजनाओं के विकास में सक्रिय रूप से संलग्न रहा है, जिसका उसके आर्थिक और रणनीतिक हितों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है।
    • उदाहरण के लिये, ईरान के चाबहार बंदरगाह परियोजना,  अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा (INSTC) और भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे में भारत की भागीदारी का उद्देश्य मध्य-पूर्व भूभाग के माध्यम से मध्य एशिया एवं यूरोप तक भारत की पहुँच को बढ़ाना है।
    • इन पहलों से भारत के व्यापार को बढ़ावा मिलेगा, उसके क्षेत्रीय प्रभाव का विस्तार होगा और अफगानिस्तान एवं अन्य क्षेत्रों तक पहुँच के लिये पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता कम होगी।
  • बहुपक्षीय सहभागिता और वैश्विक प्रभाव: मध्य-पूर्व के साथ भारत की सक्रिय सहभागिता उसे संयुक्त राष्ट्र, , इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) और अरब लीग जैसे बहुपक्षीय मंचों पर अपना प्रभाव डालने का अवसर भी प्रदान करती है।
    • इन जटिल क्षेत्रीय गतिशीलताओं को समझने और गठबंधन का निर्माण कर सकने की भारत की क्षमता रणनीतिक महत्त्व के मुद्दों (जैसे जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में सुधार) पर उसकी वैश्विक स्थिति तथा सौदेबाज़ी की शक्ति को बढ़ा सकती है।
      • यह घरेलू मुद्दों को सुलझाने में, जैसे समान विचारधारा वाले OIC देशों के साथ सहयोग के माध्यम से कश्मीर मुद्दे को सुलझाने, में भी भारत की स्थिति को मज़बूत कर सकती है।

मध्य-पूर्व लगातार संघर्ष और अस्थिरता का क्षेत्र क्यों बना हुआ है?

  • भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और छद्म संघर्ष: मध्य-पूर्व ईरान, सऊदी अरब, इज़राइल, तुर्की और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित विभिन्न क्षेत्रीय एवं वैश्विक शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का केंद्र बना रहा है।
    • ये प्रतिद्वंद्विताएँ प्रायः छद्म संघर्षों (proxy conflicts) के माध्यम से प्रकट होती हैं, जहाँ विभिन्न देश अपने रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिये गैर-राज्य अभिकर्ताओं (non-state actors) या विरोधी गुटों को प्रश्रय एवं समर्थन प्रदान करते हैं।
    • यमन में संघर्ष, जहाँ ईरान समर्थित हूती (Houthi) विद्रोही सऊदी नेतृत्व वाले गठबंधन से लड़ रहे हैं, इसका एक प्रमुख उदाहरण है कि किस प्रकार ये भू-राजनीतिक तनाव दीर्घकालिक एवं विनाशकारी युद्धों में बदल सकते हैं।
    • स्पष्ट शक्ति संतुलन के अभाव तथा स्थानीय संघर्षों में बाह्य शक्तियों के हस्तक्षेप की प्रवृत्ति ने क्षेत्र में अस्थिरता को बनाए रखा है।
  • दीर्घकालिक संघर्ष और अनसुलझे विवाद: मध्य-पूर्व में अनेक दीर्घकालिक संघर्ष, जैसे इज़राइल-फिलिस्तीनी संघर्ष, बने रहे हैं जिनका दशकों से समाधान नहीं हो पाया है।
    • बाह्य शक्तियों की संलग्नता, पक्षकारों के रुख में कठोरता और व्यापक, समावेशी एवं न्यायपूर्ण शांति प्रक्रिया के अभाव के कारण ये संघर्ष और भी गंभीर हो जाते हैं।
    • अब्राहम समझौते (Abraham Accords) जैसे प्रस्ताव—जिसने इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच संबंधों को सामान्य बनाया था, अब असफलताओं का सामना कर रहे हैं तथा पूर्व में की गई प्रगति को पीछे धकेल रहे हैं।
  • सांप्रदायिक विभाजन और पहचान की राजनीति: मध्य-पूर्व में गहरा सांप्रदायिक विभाजन व्याप्त है, विशेष रूप से सुन्नी और शिया मुसलमानों के बीच, जिसने अनेक द्वंद्वों और सत्ता संघर्षों को बढ़ावा दिया है।
    • इन सांप्रदायिक तनावों का विभिन्न राजनीतिक शक्तियों द्वारा समर्थन जुटाने, अपनी सत्ता मज़बूत करने और विरोधी समूहों को हाशिये पर धकेलने के लिये लाभ उठाया गया है।
    • अरब राष्ट्रवाद और इस्लामवाद जैसे पहचान-आधारित आंदोलनों के उदय ने भी क्षेत्र के राजनीतिक विखंडन और कट्टरपंथी विचारधाराओं के उदय में योगदान दिया है।
    • सीरियाई गृह युद्ध, जहाँ संघर्ष ने एक विशिष्ट सांप्रदायिक चरित्र ग्रहण कर लिया है, इस बात का एक प्रमुख उदाहरण है कि किस प्रकार ये पहचान-आधारित विभाजन हिंसक टकरावों में परिणत हो सकते हैं।
  • सत्तावादी शासन और लोकतंत्रीकरण का अभाव: मध्य-पूर्व के कई देशों में सत्तावादी शासन (Authoritarian Regimes) स्थापित हैं जो अपने नागरिकों की भलाई की अपेक्षा शासन की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं।
    • ये शासन सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये प्रायः दमनकारी उपायों पर निर्भर रहते हैं, जैसे असहमति को कुचलना, राजनीतिक विरोधियों को क़ैद करना और नागरिक स्वतंत्रता का दमन करना।
    • वास्तविक लोकतांत्रिक सुधारों और जवाबदेह शासन के अभाव ने जनता के असंतोष को बढ़ावा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2011 में ‘अरब स्प्रिंग’ जैसे विद्रोह और क्रांतियाँ हुईं।
    • इन विद्रोहों के मूल कारणों, जैसे आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार और राजनीतिक वंचना को संबोधित करने की विफलता ने क्षेत्र में अस्थिरता के चक्र को कायम बना रखा है।
  • संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय चुनौतियाँ: मध्य-पूर्व गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिसमें घटते तेल संसाधन, जल की कमी, मरुस्थलीकरण और जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रभाव शामिल हैं।
    • संसाधन संबंधी इन बाधाओं से मौजूदा तनावों के बढ़ने और सीमित संसाधनों के नियंत्रण एवं वितरण को लेकर नए संघर्षों को बढ़ावा मिलने की संभावना है।
    • उदाहरण के लिये, नील नदी पर ग्रैंड इथियोपियन रेनेसां बाँध (Grand Ethiopian Renaissance Dam) के निर्माण को लेकर विवाद ने मिस्र, सूडान और इथियोपिया के बीच तनाव को बढ़ा दिया है।

भारत मध्य-पूर्व के साथ अपने संबंध किस प्रकार मज़बूत कर सकता है?

  • संतुलित एवं सूक्ष्म विदेश नीति दृष्टिकोण: मध्य-पूर्व के प्रमुख खिलाड़ियों के साथ संतुलित एवं सूक्ष्म संबंध बनाए रखने की भारत की क्षमता एक मूल्यवान आस्ति है।
    • भारत इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में किसी का पक्ष लेने के प्रलोभन से बचते हुए स्वयं को एक तटस्थ मध्यस्थ एवं संवाद को बढ़ावा देने वाले देश के रूप में स्थापित कर सकता है। भारत का यह रुख हाल में इज़राइल-हमास संघर्ष के दौरान प्रदर्शित भी हुआ, जहाँ भारत ने इज़राइल पर आतंकवादी हमलों की निंदा की, लेकिन साथ ही फिलिस्तीन के लिये दो-राज्य समाधान (two-state solution) का समर्थन भी किया।
    • इसके अलावा, अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान के साथ संवाद के खुले चैनल बनाए रखने के भारत के हालिया प्रयास इस संतुलित विदेश नीति दृष्टिकोण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करते हैं।
  • आर्थिक संलग्नता और अंतर-निर्भरता को बढ़ाना: आर्थिक संबंधों और अंतर-निर्भरता को मज़बूत करना भारत की मध्य-पूर्व रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण तत्व हो सकता है।
    • भारत व्यापार, निवेश और ऊर्जा सहयोग का विस्तार कर क्षेत्रीय स्थिरता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिये साझा प्रोत्साहन पैदा कर सकता है।
    • भारत-यूएई व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (India-UAE Comprehensive Economic Partnership Agreement) जैसी पहल, पारस्परिक रूप से लाभकारी आर्थिक संबंध विकसित करने के लिये एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकती है।
    • इसके अतिरिक्त, भारत मध्य-पूर्व में अपनी डिजिटल पैठ और प्रभाव को बढ़ाने के लिये इस क्षेत्र में एकीकृत भुगतान इंटरफेस को बढ़ावा देने में अपने विशाल प्रवासी समुदाय का लाभ उठा सकता है।
  • रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग को मज़बूत करना: भारत मध्य-पूर्व में प्रमुख भागीदारो के साथ अपने रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग को गहरा कर सकता है।
    • इसमें संयुक्त सैन्य अभ्यास और रक्षा प्रौद्योगिकियों का सह-विकास करना शामिल हो सकता है।
    • भारत स्वयं को एक विश्वसनीय सुरक्षा भागीदार के रूप में स्थापित कर क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान दे सकता है, आक्रामकता को रोक सकता है और अपने मध्य-पूर्वी समकक्षों के बीच भरोसे का निर्माण कर सकता है।
  • वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण के बीच की कड़ी के रूप में मध्य-पूर्व: वैश्विक दक्षिण (Global South) की अग्रणी आवाज़ के रूप में भारत की स्थिति उसे मध्य-पूर्वी देशों और पारंपरिक पश्चिमी शक्तियों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाने में सक्षम बना सकती है।
    • भारत विकासशील देशों के हितों की वकालत करने, वैश्विक शासन संरचनाओं में सुधार का समर्थन करने और दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देने के रूप में विभाजन को दूर करने तथा संवाद एवं वार्ता के लिये अधिक समावेशी मंच का निर्माण करने में मदद कर सकता है।
    • इसमें मध्य-पूर्व के देशों की चिंताओं को मुखरता से प्रकट करने और अधिक समतापूर्ण वैश्विक व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये इस्लामिक सहयोग संगठन तथा अन्य क्षेत्रीय निकायों के साथ भारत की संलग्नता को बढ़ाना शामिल हो सकता है।
  • पारस्परिक पर्यटन को बढ़ावा देना: भारत समान विचारधारा वाले मध्य-पूर्वी देशों से आग्रह कर सकता है कि वे मध्य-पूर्व और भारत के बीच पारस्परिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये इसके विशाल पर्यटन बाज़ार का लाभ उठाएँ।
    • इसमें सहयोगात्मक विपणन अभियान शामिल हो सकते हैं, जैसे कि हाल ही में इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) के दौरान प्रदर्शित ‘विजिट सऊदी’ का विज्ञापन, जहाँ दोनों क्षेत्रों के साझा हितों और आकांक्षाओं का लाभ उठाया गया था।
    • भारत मध्य-पूर्व के आगंतुकों की प्राथमिकताओं के अनुरूप वीज़ा प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित कर सकता है तथा उनके लिये विशेष पर्यटन पैकेज विकसित कर सकता है, जिससे दोनों क्षेत्रों के बीच पर्यटन एवं आतिथ्य संबंधों को और मज़बूती मिलेगी।
  • आपदा प्रबंधन और मानवीय सहायता को सुदृढ़ बनाना: भारत अपनी मौजूदा क्षमताओं और अनुभव के आधार पर आपदा प्रबंधन और मानवीय सहायता के लिये मध्य-पूर्व में एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत कर सकता है।
    • इसमें पूर्व-चेतावनी प्रणाली विकसित करने, आपातकालीन प्रतिक्रिया क्षमताओं को बढ़ाने तथा प्राकृतिक आपदाओं या जटिल मानवीय संकटों के दौरान त्वरित राहत प्रदान करने के लिये क्षेत्रीय संगठनों और राष्ट्रीय प्राधिकरणों के साथ समन्वय करना शामिल हो सकता है।
    • तुर्की और सीरिया में चलाया गया ‘ऑपरेशन दोस्त’ भारत की त्वरित मानवीय सहायता का एक प्रमुख उदाहरण है।

निष्कर्ष:

मध्य-पूर्व भारत के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र बना हुआ है, जिसके साथ इसके गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध हैं। भारत ‘वैश्विक दक्षिण’ की अग्रणी आवाज़ के रूप में अपनी स्थिति का लाभ उठाकर मध्य-पूर्वी देशों और पारंपरिक वैश्विक शक्तियों के बीच की खाई को दूर करने में एक रचनात्मक भूमिका निभा सकता है, साथ ही आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन जैसी साझा चुनौतियों का समाधान भी कर सकता है।

अभ्यास प्रश्न: मध्य-पूर्व की उभरती भू-राजनीतिक गतिशीलता में भारत की भूमिका का विश्लेषण कीजिये। भारत अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करते हुए विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों के साथ अपने संबंधों को किस प्रकार संतुलित कर सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भूमध्य सागर निम्नलिखित में से किन देशों की सीमा है? (2017) 

  1. जॉर्डन  
  2. इराक  
  3. लेबनान  
  4. सीरिया 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1, 2 और 3 
(b) केवल 2 और 3 
(c) केवल 3 और 4 
(d) केवल 1, 3 और 4 

उत्तर: (c) 


प्रश्न. दक्षिण-पश्चिमी एशिया का निम्नलिखित में से कौन-सा एक देश भूमध्यसागर तक फैला नहीं है? (2015)

(a) सीरिया
(b) जॉर्डन
(c) लेबनान
(d) इज़रायल

उत्तर: (b)


प्रश्न. कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित पद "टू-स्टेट सोल्यूशन" किसकी गतिविधियों के संदर्भ में आता है? (2018)

(a) चीन
(b) इज़रायल
(c)  इराक
(d) यमन

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. “ भारत के इज़रायल के साथ संबंधों ने हाल में एक ऐसी गहराई एवं विविधता प्राप्त कर ली है, जिसकी पुनर्वापिसी नहीं की जा सकती है” विवेचना कीजिये। (2018)