अंतर्राष्ट्रीय संबंध
अरब स्प्रिंग की अपरिमेयता
- 18 May 2019
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यह लेख सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2 से जुड़ा है। इस लेख में सूडान और अल्जीरिया की राजनीतिक स्थितियों पर चर्चा करते हुए अरब स्प्रिंग तथा इसके विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला गया है।
संदर्भ
अरब की राजनीति में अभी भी बगावत जारी है। आठ वर्ष पहले अरब की सड़कों पर शुरू हुए प्रदर्शनों, जिसने कई तानाशाहों की सत्ता को चुनौती दी थी, के बाद एक बार फिर हाल के माह में सूडान और अल्जीरिया में सरकार विरोधी प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ है। पिछले 20 वर्षों से अल्जीरिया की सत्ता पर काबिज अब्देलाज़ीज़ बूतेफ्लिका और लगभग तीन दशकों से सूडान में सत्तारूढ़ उमर अल-बशीर ने अप्रैल माह की शुरुआत में जनता के आक्रोश के दबाव में अपनी सत्ता को त्याग दिया। इस घटना ने ट्यूनीशिया और मिस्र की घटनाओं की याद को एक बार फिर ताज़ा से कर दिया। ध्यातव्य है कि वर्ष 2010 में ट्यूनीशिया में सत्ता विरोधी प्रदर्शनों की शुरुआत हुई और जल्द ही ये विरोध-प्रदर्शन अरब के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गए। इस घटना से यह उम्मीद बँधी कि शायद अब अरब दुनिया में एक व्यापक परिवर्तन आएगा। ऐसी आशा व्यक्त की गई कि ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन, लीबिया, बहरीन और सीरिया आदि जिन देशों में विरोध-प्रदर्शन की बयार देखने को मिली वहाँ संभवत: पुराने एकाधिकारवादी शासनों को सत्ताविहीन कर नए लोकतंत्रों की स्थापना की जाएगी। लेकिन ट्यूनीशिया के अतिरिक्त अन्य सभी देशों में अरब विद्रोह के त्रासद परिणाम ही सामने आए।
अरब स्प्रिंग क्या है?
हालाँकि सूडान एवं अल्जीरिया में शुरू हुए इन विद्रोह प्रदर्शनों से एक बात तो तय है कि निकट अतीत के इन त्रासद परिणामों के बावजूद अरब के युवाओं के मन में बसी क्रांतिकारी भावना का अंत नहीं हुआ था। बल्कि ट्यूनिस से खार्तूम और अल्जीयर्स तक क्रांतिकारी भावनाओं की एक निरंतरता बनी रही। अरब विद्रोह की शुरुआत कई कारकों के संयोजन से हुई। इस क्रम में सबसे अहम भूमिका इस क्षेत्र की चरमराती अर्थव्यवस्था ने निभाई। जहाँ एक ओर, इन देशों में प्रतिपालन पर आधारित आर्थिक मॉडल कमज़ोर पड़ गया था। वहीं दूसरी ओर इन देशों के शासक दशकों से सत्ता में जमे हुए थे और जनता उनसे मुक्ति चाहती थी। इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण यह था कि जहाँ विद्रोहियों के निशाने पर अपने-अपने देश की राष्ट्रीय सरकारें थीं, वहीं विद्रोह की प्रकृति पारदेशीय थी। इस विद्रोह को पुरातन व्यवस्था के विरुद्ध अखिल अरब आक्रोश से प्रेरणा प्राप्त हुई। यही कारण रहा कि यह जंगल की आग की तरह ट्यूनिस से काहिरा, बेंगाजी और मनामा तक फैल गया। भले ही अरब राजनीतिक व्यवस्था को एक नया आकार देने में ये विद्रोह विफल साबित हुए हों लेकिन अरब विद्रोह की चिंगारी अभी भी अरब राजनीति में स्पष्ट रूप से महसूस की जा सकती है।
वर्तमान संदर्भ में
वर्तमान परिदृश्य में बात करें तो अरब क्षेत्र की अधिकांश अर्थव्यवस्थाएँ आर्थिक संकट से घिरी हुई हैं। अरबी राजशाहों व तानाशाहों द्वारा तैयार की गई लगान-उपजीवी व्यवस्था (Rentier System) वर्तमान में बदहाल स्थिति में है।
- यहाँ एक ओर वर्ष 2010-11 से शुरू हुए इन विरोध प्रदर्शनों ने अरब देशों को झकझोर दिया, वहीं वर्ष 2014 में तेल के मूल्यों में आई गिरावट ने इनकी स्थिति को और भी चिंताजनक बना दिया। वर्ष 2008 में कच्चे तेल की कीमत 140 डॉलर प्रति बैरेल थी जो वर्ष 2016 में घटकर मात्र 30 डॉलर प्रति बैरेल हो गई। इसने तेल-उत्पादक और तेल-आयातक, दोनों को प्रभावित किया।
- तेल के मूल्यों में आई गिरावट के कारण उत्पादक देशों को अपने व्यय में कटौती करनी पड़ी जिसमें सार्वजनिक व्यय और अन्य अरब देशों की सहायता दिये जाने वाले अनुवाद में कमी करने जैसे पक्ष शामिल थे।
- जॉर्डन और मिस्र जैसी गैर-तेल-उत्पादक अरब अर्थव्यवस्थाओं को मिलने वाली आर्थिक सहायता में भी कमी आई। मई 2018 में जॉर्डन में एक प्रस्तावित कर अधिनियम और तेल मूल्यों में वृद्धि के विरुद्ध बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। जब तक जॉर्डन के प्रधानमंत्री हानी मुल्की ने इस्तीफा नहीं दे दिया तब तक ये विरोध प्रदर्शन जारी रहे, मुल्की की उत्तराधिकारी सरकार ने प्रस्तावित अधिनियम को वापस ले लिया और तेल के मूल्य में वृद्धि पर रोक के लिये जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला द्ववितीय को हस्तक्षेप करना पड़ा।
सत्ता परिवर्तक
अल्जीरिया
- सूडान और अल्जीरिया में हुए विरोध प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों ने एक कदम आगे बढ़ते हुए वर्ष 2010-11 में मिस्र और ट्यूनीशिया के प्रदर्शनकारियों की तरह सत्ता परिवर्तन की मांग की।
- बहुत हद तक हाइड्रोकार्बन क्षेत्र पर निर्भर अल्जीरिया की अर्थव्यवस्था को वर्ष 2014 के बाद वस्तुओं की कीमतों में आई मंदी से काफी नुकसान हुआ। यहाँ जीडीपी विकास दर जहाँ वर्ष 2014 में 4 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2017 में 1.6 प्रतिशत रह गई, वहीं युवा बेरोज़गारी दर 29 प्रतिशत तक पहुँच गई।
- यह आर्थिक संकट उस समय उभर रहा था जब अल्जीरिया के शासक श्री बुतेफ्लिका की सार्वजनिक उपस्थिति नगण्य थी। श्री बुतेफ्लिका वर्ष 2013 में आए एक स्ट्रोक के कारण पक्षाघात के शिकार हो गए थे।
- लेकिन जब वर्ष 2019 के राष्ट्रपति चुनाव के लिये उन्होंने अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करते हुए अगले पाँच वर्ष के एक और कार्यकाल की इच्छा प्रकट की तो जनता में आक्रोश उत्पन्न हो गया।
- कुछ ही दिनों के अंदर पूरे देश में उनके विरुद्ध विरोध प्रदर्शनों की भरमार हो गई और अंतत: 2 अप्रैल को उनके इस्तीफे के बाद ही जनता का आक्रोश कम हुआ।
सूडान
- सूडान की स्थिति भी अलग नहीं है। यह पूर्वोत्तर अफ्रीकी देश भी गहन आर्थिक संकट से जूझ रहा है। अमर अल-बशीर और उनके सैन्य दल ने तीन दशकों तक सूडान में भय का शासन स्थापित कर रखा था।
- लेकिन वर्ष 2011 में दक्षिण सूडान के विभाजन से (जिससे देश के तेल भंडारों का तीन-चौथाई हिस्सा दूसरी ओर चला गया) जुंटा सरकार की कमर टूट गई।
- वर्ष 2014 के बाद सूडान गहन आर्थिक संकट का शिकार हुआ और उसे समृद्ध अरब देशों जैसे- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और यहाँ तक कि कतर (जो सऊदी ब्लॉक का क्षेत्रीय प्रतिद्वंदी है) की आर्थिक सहायता पर निर्भर होना पड़ा।
- सूडान में 73 प्रतिशत मुद्रास्फीति की स्थिति है और वह ईंधन व नकद राशि की कमी की समस्या से भी जूझ रहा है। ब्रेड की बढ़ती कीमत को लेकर मध्य दिसंबर 2018 में सूडान के उत्तर-पूर्वी शहर अटबारा (Atbara) में असंतोष की लहर दौड़ गई और जल्द ही इसने एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन का रूप धारण कर लिया।
- बशीर ने जनता को शांत कराने के लिये आपातकाल की घोषणा से लेकर पूरे मंत्रिमंडल को भंग करने जैसे सभी आवश्यक कदम उठाए लेकिन जनता सत्ता में परिवर्तन से कम किसी भी शर्त पर शांत होने को तैयार नहीं थी। अंतत: सेना ने हस्तक्षेप करते हुए 11 अप्रैल, 2019 को सत्ता परिवर्तन कर दिया गया।
प्रति-क्रांतिकारी/क्रांतिकारी विरोधी शक्तियाँ
- वर्ष 2010-11 की ही तरह वर्ष 2018-19 के विरोध प्रदर्शन भी पारदेशीय (Transnational) प्रकृति के हैं। कुछ ही माह में इनका विस्तार अम्मान से खर्तूम और अल्जीयर्स तक हो गया। राष्ट्रीय सरकारों के विरुद्ध अखिल अरबी आक्रोश इन विरोध प्रदर्शनों के पीछे प्रमुख प्रेरणादायी कारक रहा।
- लेकिन इन सभी देशों में क्रांतिकारी विरोधी शक्तियाँ इतनी मज़बूत हैं कि प्रदर्शनकारी प्राय: अपने मुख्य लक्ष्य पुरातन व्यवस्था से मुक्ति, की प्राप्ति में सफल हो पाते हैं। उन्हें तानाशाहों से भले ही किसी तरह मुक्ति मिल भी जाए लेकिन उन तानाशाहों द्वारा निर्मित व्यवस्था किसी-न-किसी प्रकार जीवित ही रहती है।
- इन देशों में दो प्रमुख क्रांतिकारी विरोधी शक्तियाँ विद्यमान हैं। सर्वप्रथम राजशाही सत्ता या सेना जो पुरातन व्यवस्था की मुख्य संरक्षक है। ट्यूनीशिया एकमात्र ऐसा देश रहा जहाँ क्रांतिकारी क्रांति-विरोधी शक्तियों को पराजित करने में सफल रहे। उन्होंने जीन-अल-आबिदीन-बिन-अली की तानाशाही को उखाड़ फेंका और देश को एक बहुदलीय लोकतंत्र में रूपांतरित करने में सफलता हासिल की।
- मिस्र में सेना ने पुनर्वापसी की और हिंसा तथा दमन द्वारा राज्य व समाज पर अपने नियंत्रण को और मज़बूत कर लिया। वहीं जॉर्डन का शाह हमेशा क्रांतिकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध एक ढाल की तरह कार्य करता है।
- दूसरे कारक के तौर पर क्रांतिकारी विरोधी शक्ति के रूप में भू-राजनीतिक अभिकर्त्ता (Geopolitical Actors) भी अहम भूमिका निभाते हैं। लीबिया में विदेशी हस्तक्षेप ने मुअम्मर कद्दाप़ी की सत्ता का अंत तो किया लेकिन इस गृहयुद्ध ने लीबियाई राज्य और संस्थाओं को नष्ट कर दिया जहाँ देश की सत्ता प्रतिस्पर्द्धी लड़ाका समूहों (मिलिशिया) के हाथों में आ गई।
- अभी तक लीबिया विदेशी हस्तक्षेप से उपजी अराजकता से उबर नहीं सका है। सीरिया में पहले तो विदेशी हस्तक्षेप से स्थानीय विरोध गृहयुद्ध में बदल गया और फिर देश स्वयं वैश्विक शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा का रंगमंच बन गया।
- यमन में जनता का प्रतिरोध एक सांप्रदायिक नागरिक संघर्ष में परिवर्तित हो गया जहाँ विदेशी शक्तियाँ अलग-अलग पक्ष में खड़ी नज़र्र आईं। विदेशी शक्तियों के इस रवैये ने स्थिति को और भी नाज़ुक बना दिया। बहरीन में सऊदी अरब ने अपने शासकों की ओर से मनामा के पर्ल स्क्वायर (Pearl Square) में विरोध के हिंसक दमन के लिये प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप किया।
चिंता की बात यह है कि इन्हीं घटनाओं का दुहराव अल्जीरिया और सूडान में भी हो सकता है। इन दोनों देशों में सेना ने राष्ट्रपति शासन के पतन में तो कोई बाधा उत्पन्न नहीं की लेकिन विद्रोहियों के दबाव के बावजूद सत्ता पर अपना नियंत्रण मज़बूत कर लिया। जैसे आठ वर्ष पहले मिस्र में हुआ था, सेना ने तानाशाह के पतन को क्रांति का परिणाम बताते हुए सुरक्षा के नाम पर देश का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया था।
- सूडान में भी वैश्विक भू-राजनीतिक हस्तक्षेप की स्थिति बन रही है। जैसे ही सैन्य परिषद ने सत्ता का नियंत्रण अपने हाथों में लिया, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र सेना के समर्थन में उतर आए, जबकि तब खार्तूम में जारी विरोध प्रदर्शन में सत्ता एक नागरिक सरकार को सौंपे जाने की मांग की जा रही थी। सऊदी अरब ने सैन्य शासन के लिये एक आर्थिक सहायता राशि की घोषणा कर अपने पक्ष को स्पष्ट कर दिया है।
अरब के प्रदर्शनकारियों के समक्ष यही सबसे बड़ी चुनौती है कि वे सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ उसके बाद उत्पन्न होने वाली स्थिति को किस प्रकार व्यवस्थित करते हैं। प्रदर्शनकारी आक्रोश में हैं, वे व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं लेकिन वे शक्ति-धारक न होकर केवल जनसाधारण लोग हैं। उनकी क्रांति का कोई नेतृत्वकर्त्ता नहीं है। भले ही वे व्यवस्था के विरुद्ध खड़े हों लेकिन उन्हें क्रांतिकारी विरोधी शक्तियों द्वारा पीछे धकेला जाता रहेगा। ऐसी स्थिति में जहाँ नेतृत्वकर्त्ता की मौजूदगी अहम हो जाती है, वहीं मीडिया का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विद्रोह-प्रदर्शनों एवं संघर्ष के लंबे क्रम के बाद अर्जित सत्ता का संचालन कुशल एवं ईमानदार हाथों में जाना सुनिश्चित करने के लिये जनसाधारण को वास्तविक स्थितियों, इसके पूर्व के इतिहास एवं बाद के परिणामों आदि के विषय में जागरुक बनाया जाना चाहिये।
संभावित प्रश्न: क्या मध्य-पूर्व की वर्तमान स्थिति ‘अरब-स्प्रिंग’ की अपरिमेयता को दर्शाती है। ‘अरब स्प्रिंग’ के संदर्भ में मध्य-पूर्व की स्थिति का विवेचन कीजिये।