भारत के फार्मास्युटिकल क्षेत्र में सुधार | 20 Dec 2024

यह एडिटोरियल 19/12/2024 को द हिंदू में प्रकाशित “Making affordable generics more reliable” पर आधारित है। जेनेरिक दवाइयाँ भारत में किफायती स्वास्थ्य सेवा के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, जिससे वर्ष 2024 तक ₹30,000 करोड़ की बचत होगी, लेकिन विखंडित नियामक निगरानी के कारण गुणवत्ता संबंधी चिंताएँ बनी हुई हैं। कई समितियों की सिफारिशों के बावजूद, केंद्रीकृत विनियमन की कमी वहनीयता और गुणवत्ता दोनों को सुनिश्चित करने के लिये व्यापक सुधार की आवश्यकता को उजागर करती है।

प्रिलिम्स के लिये:

जेनेरिक दवाएँ, केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन, फार्मास्युटिकल विनियमन, राष्ट्रीय फार्मास्युटिकल मूल्य निर्धारण प्राधिकरण, TRIPS (बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-संबंधी पहलू), पेटेंट अधिनियम, 1970, स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985, रोगाणुरोधी प्रतिरोध, रैनबैक्सी घोटाला, प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र 

मेन्स के लिये:

भारत में फार्मास्युटिकल विनियमन की वर्तमान स्थिति, अपर्याप्त फार्मास्युटिकल विनियमन से उत्पन्न प्रमुख चुनौतियाँ। 

जेनेरिक दवाएँ भारत की स्वास्थ्य सेवा पहुँच के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, जिससे वर्ष 2024 तक सरकारी पहलों के माध्यम से उपभोक्ताओं को अनुमानित ₹30,000 करोड़ की बचत हुई है। ब्रांडेड दवाओं के समतुल्य होने के बावजूद, इनकी गुणवत्ता की चिंता बनी हुई है। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन और राज्य औषधि नियामक प्राधिकरणों के बीच विभाजित वर्तमान नियामक फ्रेमवर्क निर्माताओं को कमज़ोर निगरानी का फायदा उठाने की अनुमति देता है, जिससे दवा की गुणवत्ता कमज़ोर होती है। वर्ष 1954 से कई समितियों की अनुशंसा के बावजूद, भारत में अभी भी केंद्रीकृत फार्मास्युटिकल विनियमन का अभाव है, जो इसके फार्मास्युटिकल क्षेत्र में सामर्थ्य और गुणवत्ता दोनों को सुनिश्चित करने के लिये व्यापक सुधार की तत्काल आवश्यकता को दर्शाता है।

भारत में फार्मास्युटिकल विनियमन की वर्तमान स्थिति क्या है? 

  • नियामक निकाय
    • केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO): वर्ष 1940 में स्थापित, CDSCO फार्मास्युटिकल क्षेत्र की देखरेख करने वाला प्राथमिक नियामक प्राधिकरण है। 
      • यह सुनिश्चित करता है कि दवाएँ सौंदर्य प्रसाधन और चिकित्सा उपकरण सुरक्षा मानकों को पूरा करें।
    • रसायन एवं पेट्रोरसायन विभाग: वर्ष 1991 में स्थापित, DCP रसायन, पेट्रोरसायन और फार्मास्यूटिकल्स के नीति एवं योजना पहलुओं का प्रबंधन करता है तथा इस क्षेत्र के विकास में सहायता करता है।
    • राष्ट्रीय फार्मास्युटिकल मूल्य निर्धारण प्राधिकरण: वर्ष 1994 में स्थापित NPPA मूल्य निर्धारण, संशोधन और मूल्य नियंत्रण के तहत दवाओं की सूची को अद्यतन करने के लिये जिम्मेदार है।
      • यह सुनिश्चित करता है कि आवश्यक दवाओं की कीमतों को विनियमित और निगरानी की जाए।
  • प्रमुख नीतियाँ और विनियमन
    • औषधि मूल्य नियंत्रण: औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (DPCO), जिसे पहली बार वर्ष 1970 में लागू किया गया था, सरकार को 74 थोक औषधियों और उनके फॉर्मूलेशन के मूल्यों को विनियमित करने की अनुमति देता है।
      • यद्यपि यह सामर्थ्य की गारंटी देता है, लेकिन प्रत्यक्ष मूल्य प्रतिबंध उद्योग को इन दवाओं का उत्पादन करने से रोक सकता है।
    • उत्पाद की गुणवत्ता और विनिर्माण मानक: CDSCO द्वारा अच्छे विनिर्माण अभ्यास (GMP) को लागू किया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि फार्मास्युटिकल संयंत्र और सामग्री उच्च गुणवत्ता मानकों का पालन करें।
      • राष्ट्रीय औषधि नीति का उद्देश्य GMP मानदंडों को और सख्त करना है।
    • पेटेंट और बौद्धिक संपदा विनियमन: पेटेंट अधिनियम, 1970 (वर्ष 2005 में संशोधित) औषधियों की पेटेंट योग्यता को नियंत्रित करता है तथा रॉयल्टी, जेनेरिक उत्पादन प्रतिरक्षा, पेटेंट विरोध, अनिवार्य लाइसेंसिंग और निर्यात के प्रावधानों की रूपरेखा तैयार करता है।
  • प्रमुख विनियामक दिशा-निर्देश
    • औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940: भारत में औषधियों के आयात, निर्माण, वितरण और बिक्री को नियंत्रित करता है।
      • अनुसूची M: कुछ दवाओं के निर्माण में कारखाना परिसर, सामग्री और उपकरणों के लिये सामान्य एवं विशिष्ट आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करता है।
      • अनुसूची T: आयुर्वेदिक, सिद्ध और यूनानी दवाओं के विनिर्माण के लिये GMP विनिर्देश निर्धारित करता है।
      • अनुसूची Y: नैदानिक ​​परीक्षणों के लिये विधायी आवश्यकताओं को निर्धारित करती है।
    • अच्छे नैदानिक ​​अभ्यास (GCP) दिशा-निर्देश: स्वास्थ्य मंत्रालय, DCGI और ICMR द्वारा तैयार किये गए ये दिशा-निर्देश, हेलसिंकी घोषणा एवं मानव उपयोग के फार्मास्यूटिकल्स हेतु तकनीकी आवश्यकताओं के सामंजस्य के लिये अंतर्राष्ट्रीय परिषद जैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर, मानव विषयों में नैदानिक ​​अनुसंधान को विनियमित करते हैं।
    • फार्मेसी अधिनियम, 1948: भारत में फार्मेसी व्यवसाय को विनियमित करता है।
    • औषधि एवं जादुई/चमत्कारी उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954: यह अधिनियम चमत्कारी गुणों का दावा करने वाली औषधियों के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाता है।
    • स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985: स्वापक औषधियों और मन:प्रभावी पदार्थों से संबंधित कार्यों को विनियमित करता है।

अपर्याप्त फार्मास्युटिकल विनियमन से उत्पन्न प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • निम्न स्तरीय और नकली दवाओं का प्रसार: कमज़ोर प्रवर्तन के कारण निम्न गुणवत्ता वाली और नकली दवाएँ बाज़ार में प्रभावी हो जाती हैं, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं मरीज़ों का विश्वास कमज़ोर होता है। 
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत में निर्मित कफ सिरप को गाम्बिया में बच्चों की तीव्र किडनी फेलियर और मृत्यु से संबद्ध बताया है। 
    • यह समस्या निम्न आय वाले देशों को असमान रूप से प्रभावित करती है, जहाँ नियामक निगरानी न्यूनतम है, जिसके परिणामस्वरूप रुग्णता और मृत्यु दर अधिक होती है। 
    • भारत में, विनियामक खामियों के कारण छोटे निर्माताओं के प्रभुत्व वाले खंडित बाज़ार में निम्न स्तरीय उत्पाद विकसित हो रहे हैं।
      • विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 10% दवाइयाँ निम्न स्तरीय या नकली हैं। 
  • निर्यात में अंतर्राष्ट्रीय विश्वास का क्षरण: वैश्विक मानकों का असंगत पालन निर्यातक देशों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाता है, जिससे वैश्विक बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धात्मकता कम हो जाती है। 
    • डाटा निर्माण और अपर्याप्त गुणवत्ता जाँच सहित नियामक चूक, अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों के बीच विश्वास को कम करती है। 
      • इससे भारत जैसे दवा निर्यातक देशों के दीर्घकालिक आर्थिक लाभ में बाधा उत्पन्न होती है।
    • वर्ष 2022 की शुरुआत से अब तक भारतीय दवा निर्माताओं को 9 से अधिक FDA चेतावनी पत्र जारी किये गए हैं, जिसके कारण अमेरिका में नए उत्पादों पर प्रतिबंध लग सकता है। 
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) संकट: एंटीबायोटिक दवाओं का अनियमित उत्पादन और अतार्किक उपयोग AMR को बढ़ाने में योगदान देता है, जो एक गंभीर वैश्विक स्वास्थ्य खतरा है। 
    • AMR स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों को कमज़ोर करता है, क्योंकि सामान्य संक्रमण उपचार योग्य नहीं रह जाते, जिससे बीमारी लंबे समय तक बनी रहती है और मृत्यु दर बढ़ जाती है। 
    • कठोर निगरानी के अभाव के कारण दवा कंपनियाँ पर्याप्त नैदानिक ​​परीक्षणों के बिना ही निश्चित खुराक वाले एंटीबायोटिक संयोजनों का उत्पादन कर लेती हैं।
    • एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला है कि बड़ी संख्या में भारतीय रोगियों को अनेक एंटीबायोटिक दवाएँ दी जाती हैं, जिसके कारण एंटीबायोटिक प्रतिरोध उत्पन्न होता है। 
      • भारत में बिकने वाली लगभग 64% एंटीबायोटिक्स अस्वीकृत हैं, जिससे प्रतिरोध बढ़ रहा है। 
  • प्रतिकूल औषधि प्रतिक्रिया और फार्माकोविजिलेंस का अभाव: अपर्याप्त निगरानी प्रणालियाँ प्रतिकूल औषधि प्रतिक्रियाओं (ADR) को ट्रैक करने और कम करने में विफल रहती हैं, जिससे दीर्घकालिक स्वास्थ्य जोखिम उत्पन्न होते हैं। 
    • विनियामक प्राधिकरणों के पास प्रायः सटीक समय पर औषधि सुरक्षा का मूल्यांकन करने के लिये संसाधनों और तंत्रों का अभाव होता है, जिसके कारण अनावश्यक जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं। 
    • यह विकासशील देशों में विपणन-पश्चात निगरानी प्रणालियों की खराब स्थिति को भी दर्शाता है।
    • 895 प्रतिकूल दवा प्रतिक्रिया निगरानी के बावजूद वैश्विक ADR डेटाबेस में भारत का योगदान केवल 2% है।
  • वैश्विक बाज़ार में प्रवेश में बाधाएँ: असंगत विनियामक फ्रेमवर्क और मानक-निर्धारण में पारदर्शिता की कमी, उभरती हुई दवा कंपनियों के लिये अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों तक अभिगम में बाधा डालती है। 
    • ये बाधाएँ छोटे निर्माताओं को अपना परिचालन बढ़ाने और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने से रोकती हैं। 
      • अच्छे विनिर्माण प्रथाओं (GMP) का गैर-अनुपालन एक महत्त्वपूर्ण बाधा है।
    • भारत में वर्तमान में 10,500 दवा विनिर्माण इकाइयों में से केवल 19% के पास ही WHO-GMP प्रमाणन है। 
      • इससे अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे विनियमित बाज़ारों में प्रवेश करने की भारत की क्षमता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।
  • फार्मास्यूटिकल अपशिष्ट से पर्यावरणीय क्षति: फार्मास्यूटिकल अपशिष्ट के अनियमित निपटान से गंभीर पर्यावरणीय प्रदूषण होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। 
    • विनिर्माण इकाइयों से मुक्त होने वाला अपशिष्ट, विशेष रूप से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में, नदियों और भूजल प्रदूषण का कारण बनता है। 
      • पर्यावरणीय नियमों के लापरवाह क्रियान्वयन से यह समस्या और भी जटिल हो गई है।
    • एक हालिया अध्ययन में वैश्विक नदियों के 43.5% में दवा प्रदूषकों की पहचान की गई है, जिसमें यमुना नदी सबसे प्रदूषित है। 
  • आवश्यक दवाओं की सुलभता में असमानताएँ: अपर्याप्त मूल्य विनियमन और एकाधिकारवादी प्रथाओं के कारण आवश्यक दवाएँ सीमांत आबादी के लिये अप्राप्य रह जाती हैं। 
    • दवा मूल्य नियंत्रण के लापरवाह कार्यान्वयन से कंपनियों को अत्यधिक कीमतें वसूलने में मदद मिलती है, जिससे स्वास्थ्य असमानता की स्थिति और भी बदतर हो जाती हैं। 
      • दूर-दराज़ एवं ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्धता की कमी से समस्या और भी गंभीर हो जाती है
    • सरकारी मेडिकल स्टोर पर सस्ती दवाओं की उपलब्धता ग्रामीण आबादी के लिये एक चुनौती है। 
      • एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, केवल 12.2% प्रत्यर्थियों को (अपने गाँवों से आने-जाने योग्य दूरी के भीतर) प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्रों पर सब्सिडी वाली दवाओं की सुलभता है।
  • अनुपालन मानकों की अप्रभावीता: खंडित और जटिल नियामक प्रणालियाँ निर्माताओं को भ्रमित करती हैं, अनुपालन दरों को कम करती हैं तथा वैश्विक बाज़ारों में उत्पाद अस्वीकृति को बढ़ाती हैं। 
    • FSSAI, BIS और APEDA जैसी एजेंसियों के अलग-अलग मानक अनावश्यकता एवं अक्षमता उत्पन्न करते हैं। इससे भारतीय दवा उत्पादों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम स्वीकार्यता होती है।

भारत में औषधि विनियमन को बढ़ाने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं? 

  • विनियामक फ्रेमवर्क को सुव्यवस्थित करना: भारत को ओवरलैप्स को खत्म करने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये एकीकृत एवं पारदर्शी विनियामक फ्रेमवर्क की आवश्यकता है। 
    • CDSCO और राज्य स्तरीय निकायों जैसी एजेंसियों को एक केंद्रीकृत औषधि प्राधिकरण में विलय करने से समन्वय एवं अनुपालन में सुधार हो सकता है। 
    • इससे अनुमोदन, परीक्षण और निगरानी प्रक्रियाओं का मानकीकरण होगा, जिससे अकुशलताएँ कम होंगी।
    • अमेरिका जैसे देशों में FDA जैसी केंद्रीकृत प्रणालियाँ हैं, जो राज्यों में दवा विनियमन और प्रवर्तन में एकरूपता सुनिश्चित करती हैं।
  • फार्माकोविजिलेंस और विपणन-पश्चात् निगरानी को सुदृढ़ करना: प्रतिकूल दवा प्रतिक्रियाओं (ADR) की निगरानी और सार्वजनिक सुरक्षा में सुधार के लिये सुदृढ़ फार्माकोविजिलेंस प्रणालियों की स्थापना आवश्यक है। 
    • भारतीय फार्माकोविजिलेंस कार्यक्रम (PvPI) का विस्तार करके इसमें निजी अस्पतालों, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों और ई-फार्मेसियों को शामिल करने से ADR रिपोर्टिंग में वृद्धि हो सकती है। 
    • उन्नत डाटा विश्लेषण और AI संभावित दवा जोखिमों का पहले ही अनुमान लगा सकते हैं।
  • अच्छे विनिर्माण व्यवहार (GMP) के अनुपालन को लागू करना: विनिर्माण सुविधाओं की आवधिक ऑडिट और रियल टाइम मॉनिटरिंग GMP मानकों के अनुपालन को सुनिश्चित कर सकती है।
    • उल्लंघन के लिये कठोर दंड तथा अनुपालन के लिये प्रोत्साहन लागू करने से उत्तरदायित्व को बढ़ावा मिलेगा। 
    • दवा पैकेजिंग पर QR कोड लागू करने से आपूर्ति शृंखला में अनुपालन का पता लगाने और सत्यापन में मदद मिल सकती है। 
  • पारदर्शिता के लिये राष्ट्रीय औषधि डेटाबेस का निर्माण: अनुमोदित औषधियों, निर्माताओं और नियामक स्थितियों को सूचीबद्ध करने वाला एक केंद्रीकृत, सार्वजनिक रूप से सुलभ डेटाबेस पारदर्शिता को बढ़ा सकता है। 
    • इससे स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और उपभोक्ताओं को दवा की प्रामाणिकता सत्यापित करने तथा अस्वीकृत या नकली उत्पादों की बिक्री को रोकने में मदद मिलेगी। 
      • ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी को एकीकृत करने से डेटा इंटीग्रिटी को और अधिक सुरक्षित किया जा सकता है।
  • नियामक क्षमता और बुनियादी अवसंरचना में सुधार: उन्नत परीक्षण प्रयोगशालाओं, कुशल कार्यबल और डिजिटल उपकरणों में निवेश से भारत की नियामक क्षमता सुदृढ़ होगी। 
    • राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत विनियामक बुनियादी अवसंरचना के लिये धन आवंटित करने से ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में अंतराल को कम किया जा सकता है। 
    • नियामक कर्मचारियों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों और प्रथाओं में नियमित प्रशिक्षण प्राप्त करने की आवश्यकता है।
  • घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मानकों में सामंजस्य: भारत को अपने औषधि मानकों को अमेरिकी FDA और यूरोपीय औषधि एजेंसी (EMA) जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानकों के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है।
    • मानकों की पारस्परिक मान्यता के लिये द्विपक्षीय समझौतों से निर्यात अस्वीकृतियों में कमी आ सकती है तथा बाज़ार पहुँच में वृद्धि हो सकती है। 
    • निर्यात प्रमाणन के लिये "एकल खिड़की अनुमोदन प्रणाली" शुरू करने से अनुमोदन को सुचारु बनाया जा सकता है।
  • नैतिक नैदानिक ​​परीक्षणों और अनुसंधान एवं विकास निरीक्षण को प्रोत्साहित करना: नैदानिक ​​परीक्षणों के लिये सख्त दिशा-निर्देश, साथ ही रियल टाइम मॉनिटरिंग, ​​नैतिक प्रथाओं और रोगी सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकते हैं।
    • AI-सक्षम निगरानी उपकरणों के साथ एक राष्ट्रीय निरीक्षण समिति की स्थापना प्रभावी रूप से परीक्षण अनुपालन को ट्रैक कर सकती है। नैतिक अनुसंधान एवं विकास के लिये कर छूट जैसे प्रोत्साहन नैतिक मानकों को बनाए रखते हुए नवाचार को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • ऑनलाइन फार्मेसियों और डिजिटल प्लेटफॉर्म को विनियमित करना: नकली और बिना लाइसेंस वाली दवाओं की बिक्री पर अंकुश लगाने के लिये डिजिटल प्लेटफॉर्मों को सख्त नियामक निगरानी के तहत लाया जाना चाहिये।
    • ई-फार्मेसियों का अनिवार्य पंजीकरण और उन्हें आधार-सक्षम सत्यापन प्रणालियों से जोड़ने से जवाबदेही में सुधार हो सकता है। 
      • AI उपकरण ऑनलाइन लेनदेन में अनियमितताओं की निगरानी कर सकते हैं।
  • संवहनीय औषधि प्रथाओं को प्रोत्साहित करना: हरित विनिर्माण प्रथाओं को अपनाने से औषधि अपशिष्ट से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को कम किया जा सकता है। 
    • अपशिष्ट उपचार मानदंडों का सख्ती से पालन तथा स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के लिये सब्सिडी अनुपालन को बढ़ावा दे सकती है। 
    • CPCB और MoEFCC जैसी एजेंसियों के साथ सहयोग करके पर्यावरणीय दिशानिर्देशों का पालन सुनिश्चित किया जा सकता है।
  • जन-जागरूकता और उपभोक्ता सशक्तीकरण का निर्माण: उपभोक्ताओं को सुरक्षित दवा उपयोग के बारे में शिक्षित करना, नकली दवाओं की पहचान करना और प्रतिकूल प्रभावों की रिपोर्ट करना आवश्यक है। 
    • जनसंचार माध्यमों, स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों के माध्यम से सार्वजनिक अभियान जागरूकता बढ़ा सकते हैं। मादक पदार्थों दवाओं से संबंधित शिकायतों के लिये एक टोल-फ्री हेल्पलाइन और मोबाइल ऐप उपभोक्ताओं को सशक्त बना सकता है।
    • भारत में "जागरूक रहें, नकली सामान की सूचना दें" अभियान शुरू किया जा सकता है, जिससे अधिकाधिक जन भागीदारी सुनिश्चित होगी।
  • क्षेत्रीय औषधि विनियमन केंद्रों का विकास: उन्नत प्रयोगशालाओं और विनियामक कार्यालयों वाले क्षेत्रीय केंद्र निगरानी को विकेंद्रित कर सकते हैं और दक्षता में सुधार कर सकते हैं।
    • ये केंद्र वंचित क्षेत्रों में दवा परीक्षण, निरीक्षण और निगरानी जैसी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं। 
      • इससे समय पर क्रियान्वयन सुनिश्चित होगा और केंद्रीय एजेंसियों पर बोझ कम होगा।
  • आपूर्ति शृंखला पारदर्शिता के लिये ब्लॉकचेन का अंगीकरण: ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी दवा आपूर्ति शृंखला की इंड-टू-इंड विज़िबिलिटी सुनिश्चित कर सकती है, जिससे नकली दवाओं को बाज़ार में प्रवेश करने से रोका जा सकता है। 
    • यह प्रौद्योगिकी उत्पाद की ट्रेसेबिलिटी को भी बढ़ा सकती है, जिससे प्रत्येक स्तर पर गुणवत्ता और अनुपालन सुनिश्चित हो सकेगा। 
      • सरकार समर्थित ब्लॉकचेन प्रणाली हितधारकों का विश्वास बढ़ा सकती है।
  • ठीक समय पर औषधि वापसी तंत्र का निर्माण: भारत को निम्न स्तरीय या हानिकारक औषधियों को प्रचलन से शीघ्र हटाने के लिये एक दृढ़, प्रौद्योगिकी-सक्षम औषधि रिकॉल प्रणाली की आवश्यकता है।
    • निर्माताओं, थोक विक्रेताओं और खुदरा विक्रेताओं से जुड़ी एक केंद्रीकृत चेतावनी प्रणाली तत्काल कार्रवाई सुनिश्चित कर सकती है। नियमित मॉक ड्रिल बड़े पैमाने पर रिकॉल के लिये तत्परता बढ़ा सकती है।
  • प्रदर्शन-आधारित निर्माता प्रमाणन की शुरुआत: प्रदर्शन-आधारित प्रमाणन प्रणाली निर्माताओं को उच्च गुणवत्ता मानकों का अनुपालन करने के लिये प्रोत्साहित कर सकती है। 
    • GMP, पर्यावरण मानकों और नवाचार अनुपालन पर आधारित रैंकिंग द्वारा स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दिया जा सकता है।
    • मान्यता मानदंडों के नियमित अद्यतन से प्रथाओं को वैश्विक प्रगति के साथ संरेखित किया जा सकता है।

निष्कर्ष: 

भारत में दवा विनियमन को सुदृढ़ करना स्वास्थ्य सेवा में सामर्थ्य और गुणवत्ता दोनों सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है। एक एकीकृत विनियामक फ्रेमवर्क, बेहतर फार्माकोविजिलेंस और विनिर्माण मानकों के साथ सख्त अनुपालन दवा सुरक्षा एवं अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता को बढ़ाएगा। पारदर्शिता, तकनीकी प्रगति एवं संवाह्नियता पर जोर देने से भारत के दवा क्षेत्र को और बढ़ावा मिल सकता है। सक्रिय सुधारों के साथ, भारत घरेलू स्वास्थ्य सेवा की जरूरतों को बेहतर ढंग से पूरा कर सकता है और वैश्विक बाज़ार में अपनी स्थिति मज़बूत कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. भारत में दवाओं की गुणवत्ता, मूल्य निर्धारण और उपलब्धता सुनिश्चित करने में विनियामक निकायों और नीतियों की भूमिका का परीक्षण कीजिये। मौजूदा विनियामक फ्रेमवर्क के आलोक में दवा उद्योग के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. भैषजिक कंपनियों के द्वारा आयुर्विज्ञान के पारंपरिक ज्ञान को पेटेंट कराने से भारत सरकार किस प्रकार रक्षा कर रही है? (2019)