नौकरशाही में पार्श्व प्रवेश (लेटरल एंट्री) | 23 Aug 2024

यह एडिटोरियल 21/08/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Lateral entry in UPSC will further distance marginalised from centres of power” लेख पर आधारित है। इसमें हाल ही में SCs एवं STs के लिये आरक्षण कोटा की कमी के कारण सरकार द्वारा ‘लेटरल एंट्री’ को रद्द किये जाने के मुद्दे पर चर्चा की गई है और सरकारी नियुक्ति में योग्यता एवं सामाजिक न्याय के बीच जारी तनाव के प्रश्न पर विचार किया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, नीति आयोग, परिशुद्ध खेती, भारत का 1991 का आर्थिक उदारीकरण, दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग

मेन्स के लिये:

भारत में पार्श्व प्रवेश भर्तियों का इतिहास, भारतीय नौकरशाही में पार्श्व प्रवेश के लाभ, भारतीय नौकरशाही में पार्श्व प्रवेश से संबंधित चुनौतियाँ।

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षण कोटा की कमी का हवाला देते हुए सरकारी पदों के लिये पार्श्व प्रवेश या ‘लेटरल एंट्री’ (lateral entry) प्रक्रिया को रद्द करने का भारत सरकार का हाल का निर्णय राजनीतिक कारकों, सामाजिक न्याय संबंधी चिंताओं एवं ऐतिहासिक संदर्भों के जटिल अंतर्संबंध को परिलक्षित करता है। जबकि सामाजिक न्याय के लिये सरकार की प्रतिबद्धता स्पष्ट है, लेटरल एंट्री प्रक्रिया को रद्द करना योग्यता एवं प्रतिनिधित्व के बीच संतुलन के बारे में प्रश्न खड़े करता है।

यह निर्णय आरक्षण नीतियों और हाशिये पर स्थित समुदायों के लिये समान अवसर सुनिश्चित करने में उनकी भूमिका के बारे में जारी बहस को उजागर करता है। यह इन समुदायों की चिंताओं को दूर करने और सरकारी भर्ती में योग्यता एवं समावेशिता दोनों को बढ़ावा देने के प्रभावी उपायों की खोज करने के महत्त्व को भी रेखांकित करता है।

भारतीय नौकरशाही में लेटरल एंट्री क्या है?

  • परिचय: अधिकारी-तंत्र या नौकरशाही (Bureaucracy) में लेटरल एंट्री उस प्रक्रिया को संदर्भित करती है जिसके तहत सरकार में विशिष्ट भूमिकाओं के लिये निजी क्षेत्र, शिक्षा जगत या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) से विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाती है।
    • यह सरकार के भीतर आंतरिक पदोन्नति के माध्यम से इन पदों को भरने की पारंपरिक पद्धति के विपरीत है।
    • ये नियुक्तियाँ आमतौर पर संयुक्त सचिव, निदेशक या उप-सचिव स्तर पर की जाती हैं।
  • उद्देश्य:
    • शासन संबंधी और नीतिपरक जटिल चुनौतियों को संबोधित करने के लिये व्यवस्था में विशिष्ट ज्ञान एवं विशेषज्ञता को शामिल करना।
    • सरकारी कार्यप्रणाली में नए परिप्रेक्ष्य और नवोन्मेषी दृष्टिकोण को शामिल करना।
  • नियुक्ति प्रक्रिया:
    • अभ्यर्थियों को आमतौर पर तीन से पाँच वर्ष के अनुबंध पर नियुक्त किया जाता है।
    • कार्य-निष्पादन के आधार पर कार्यकाल या कार्य-भूमिका का विस्तार किया जा सकता है।
    • नियुक्ति के लिये विशिष्ट शैक्षणिक योग्यता और प्रासंगिक व्यावसायिक अनुभव का होना आवश्यक है।
  • पात्रता:
    • आमतौर पर अभ्यर्थियों के पास अपने विषय क्षेत्र में कम से कम 15 वर्ष का प्रासंगिक अनुभव होना चाहिये।
    • विशिष्ट पद, वरिष्ठता और जॉब प्रोफ़ाइल के आधार पर पात्रता शर्तें भिन्न-भिन्न हो सकती हैं।

भारत में लेटरल एंट्री नियुक्तियों का इतिहास:

  • आरंभिक उदाहरण (1950 के दशक के बाद):
    • देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय से ही नियुक्तियों के लिये लेटरल एंट्री का उपयोग होता रहा है।
    • प्रमुख उदाहरणों में आई.जी. पटेल (जिन्होंने  अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से शुरुआत की और बाद में भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर बने) तथा मनमोहन सिंह (जो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के प्राध्यपक थे और वर्ष 1971 में वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार नियुक्त किये गए) का नाम लिया जा सकता है, जिनका नौकरशाही में प्रवेश लेटरल एंट्री के माध्यम से ही हुआ था।
  • औपचारिक अनुशंसाएँ (2005):
    • वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने औपचारिक रूप से लेटरल एंट्री की अनुशंसा की थी।
    • इसका उद्देश्य विशिष्ट ज्ञान का प्रवेश कराना था, जिसका पारंपरिक सिविल सेवाओं में अभाव हो सकता था।
  • नीति आयोग का प्रस्ताव (2017):
    • नीति आयोग NITI Aayog) ने त्रिवर्षीय कार्य एजेंडा जारी करते हुए केंद्रीय सचिवालय में मध्यम एवं वरिष्ठ प्रबंधन स्तर पर लेटरल एंट्री का प्रस्ताव किया।
    • शासन पर सचिवों के विभागीय समूह (Sectoral Group of Secretaries on Governance) द्वारा भी यही बात दोहराई गई।
  • औपचारिक नियुक्ति अभियान (2018-2023):
    • केंद्र सरकार ने लेटरल एंट्री पदों के लिये विज्ञापन दिया, जहाँ आरंभ में केवल संयुक्त सचिव पदों के लिये आवेदन आमंत्रित किये गए।
      • 6,000 से अधिक आवेदन प्राप्त हुए।
    • वर्ष 2019 में 9 अभ्यर्थियों को विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में नियुक्त किया गया।
      • वर्ष 2021 में लेटरल एंट्री के अगले दौर की घोषणा की गई तथा मई 2023 में ऐसे दो अन्य प्रवेशों की घोषणा की गई।
    • पिछले 5 वर्षों में (अगस्त 2024 तक) लेटरल एंट्री के माध्यम से कुल 63 नियुक्तियाँ की गई हैं, जिनमें 57 पार्श्व प्रवेशक (lateral entrants) सक्रिय रूप से सेवारत हैं।

भारतीय नौकरशाही में लेटरल एंट्री के क्या लाभ हैं?

  • विशिष्ट विशेषज्ञता का समावेश: लेटरल एंट्री से उद्योग जगत में गहन ज्ञान रखने वाले क्षेत्र विशेषज्ञों को लाया जाता है, जिससे नौकरशाही में कौशल अंतराल दूर होता है।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2002 में आर.वी. शाही की विद्युत सचिव के रूप में नियुक्ति से विद्युत क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार हुए।
      • विद्युत उत्पादन में निजी क्षेत्र का उनका अनुभव जटिल विभागीय चुनौतियों से निपटने में मूल्यवान सिद्ध हुआ।
    • इसी प्रकार, आर्थिक नीति में बिमल जालान की विशेषज्ञता और राजकोषीय सुधारों में विजय केलकर के अनुभव ने अपने-अपने क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये।
      • बिमल जालान को पूर्वी एशियाई वित्तीय संकट के दौरान भारत को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने, इसके भुगतान संतुलन को सुदृढ़ करने और वित्तीय क्षेत्र में व्यापक सुधार लाने का श्रेय दिया जाता है।
      • विजय केलकर की अध्यक्षता में अप्रत्यक्ष कर सुधारों पर गठित ‘केलकर टास्क फोर्स’ ने राष्ट्रीय स्तर पर GST लागू करने का सुझाव दिया था।
    • विशिष्ट ज्ञान का यह प्रवाह उभरती प्रौद्योगिकियों, जलवायु परिवर्तन और डिजिटल अर्थव्यवस्था जैसे उन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में नीति-निर्माण एवं कार्यान्वयन में तेज़ी ला सकता है, जहाँ पारंपरिक सिविल सेवकों के पास अद्यतन विशेषज्ञता का अभाव हो सकता है।
  • उन्नत नवाचार और दक्षता: निजी क्षेत्र के पेशेवर प्रायः सरकारी कार्यों में परिणाम-उन्मुख दृष्टिकोण और नवोन्मेषी समस्या-समाधान कौशल का प्रवेश कराते हैं।
    • अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों और प्रबंधन अभ्यासों के साथ उनका अनुभव प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित कर सकता है तथा दक्षता में सुधार कर सकता है।
    • उदाहरण के लिये, इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय में लेटरल एंट्री के माध्यम से आए अधिकारी AI कार्यान्वयन या साइबर सुरक्षा उपायों पर ऐसी अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं जो सर्वोत्तम वैश्विक अभ्यासों के अनुरूप हों।
      • भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) और ONDC जैसे निकाय इंफोसिस लिमिटेड के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणी के मौलिक विचार से अस्तित्व में आए।
    • विचारों के इस पारस्परिक आदान-प्रदान से अधिक चुस्त और उत्तरदायी शासन की स्थापना हो सकती है, जिससे नौकरशाही की लालफीताशाही में कमी आ सकती है तथा नागरिकों को बेहतर सेवाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
  • सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बीच सेतु: लेटरल एंट्री से आए अधिकारी सरकार और उद्योग के बीच प्रभावी सेतु के रूप में कार्य कर सकते हैं, जिससे बेहतर सार्वजनिक-निजी भागीदारी और नीति संरेखण की सुविधा प्राप्त हो सकती है।
    • दोनों क्षेत्रों की उनकी समझ उन्हें अधिक व्यावहारिक और कार्यान्वयन-योग्य नीतियाँ तैयार करने में सक्षम बनाती है।
    • शहरी विकास या अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में यह विशेष रूप से लाभकारी सिद्ध हो सकता है, जहाँ सार्वजनिक-निजी सहयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • सरकार बाज़ार की गतिशीलता को समझने वाले पेशेवरों को लाकर अधिक प्रभावी प्रोत्साहन (incentives) और विनियमन तैयार कर सकती है, जिससे राष्ट्रीय विकास पहलों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ सकती है।
  • वैश्विक परिप्रेक्ष्य और सर्वोत्तम अभ्यास: बहुराष्ट्रीय निगमों या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से आए पेशेवर नीति-निर्माण में वैश्विक परिप्रेक्ष्य ला सकते हैं।
    • यह इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत अपनी वैश्विक आर्थिक एवं कूटनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करना चाहता है।
    • उदाहरण के लिये, जलवायु परिवर्तन नीति या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार वार्ता जैसे क्षेत्रों में उनकी अंतर्दृष्टि मूल्यवान सिद्ध हो सकती है।
    • यह वैश्विक दृष्टिकोण संभावित रूप से भारत की प्रतिस्पर्द्धात्मकता और जटिल अंतर्राष्ट्रीय समझौतों एवं साझेदारियों को क्रियान्वित करने की उसकी क्षमता में सुधार ला सकता है।
  • नीति कार्यान्वयन को बढ़ावा देना: उद्योग जगत का व्यावहारिक अनुभव रखने वाले पार्श्व प्रवेशक नीति-निर्माण एवं कार्यान्वयन के बीच की खाई को भर सकते हैं।
    • क्षेत्र-विशिष्ट चुनौतियों और परिचालन संबंधी वास्तविकताओं के बारे में उनका व्यावहारिक ज्ञान अधिक व्यवहार्य एवं प्रभावी नीतियों को जन्म दे सकता है।
    • उदाहरण के लिये, नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय में शामिल होने वाला नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र का कोई पेशेवर व्यक्ति सौर या पवन ऊर्जा के विस्तार की व्यावहारिक चुनौतियों के बारे में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है।
    • इसके परिणामस्वरूप अधिक यथार्थवादी लक्ष्य, बेहतर ढंग से डिज़ाइन किये गए प्रोत्साहन उपाय और अधिक प्रभावी नियामक ढाँचे सामने आ सकते हैं, जिससे अंततः भारत का स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण तेज़ होगा और जलवायु लक्ष्यों को अधिक कुशलता से प्राप्त किया जा सकेगा।
  • नौकरशाही की जड़ता को कम करना: लेटरल एंट्री लंबे समय से अस्तित्व में रहे संस्थानों में नौकरशाही की जड़ता और ‘ग्रुप-थिंक’ (groupthink) जैसी समस्याओं के लिये विषहर औषध या ‘एंटी-डोट’ के रूप में कार्य कर सकती है।
    • विविध पृष्ठभूमियों से प्राप्त नए दृष्टिकोण जड़ अभ्यासों (entrenched practices) को चुनौती दे सकते हैं और नवोन्मेषी सोच को प्रेरित कर सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये, कृषि मंत्रालय में लेटरल एंट्री से आया कोई अधिकारी  परिशुद्ध खेती (precision farming) या एग्री-टेक समाधानों के बारे में ऐसे नए विचार सामने ला सकता है जिन पर पारंपरिक नौकरशाहों ने विचार नहीं किया हो।
    • नए विचारों का यह प्रवाह गतिहीन विभागों में ऊर्जा ला सकता है और शासन के प्रति अधिक सक्रिय एवं अग्रगामी सोच को बढ़ावा दे सकता है।
    • इसके अलावा, बाहरी पेशेवरों की उपस्थिति स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न कर सकती है, जिससे पारंपरिक नौकरशाहों को अपना कौशल बढ़ाने और बेहतर प्रदर्शन करने के लिये प्रेरणा मिलेगी।
    • यह यथास्थिति को चुनौती देता है और अधिक गतिशील एवं प्रदर्शन-उन्मुख कार्य संस्कृति को जन्म दे सकता है।
  • प्रमुख आर्थिक सुधारों को सुगम बनाना: लेटरल एंट्री से आए अधिकारी जटिल आर्थिक सुधारों की अभिकल्पना एवं क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
    • बाज़ार की गतिशीलता और वैश्विक आर्थिक रुझानों के बारे में उनकी समझ, विकास और सामाजिक समानता के बीच संतुलन का निर्माण करने वाली नीतियों को तैयार करने में मूल्यवान सिद्ध हो सकती है।
    • उदाहरण के लिये भारत का 1991 का आर्थिक उदारीकरण के दौरान मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे टेक्नोक्रेट (जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का अनुभव था) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
    • उनकी विशेषज्ञता डिजिटल अर्थव्यवस्था विनियमन या सतत वित्त की जटिलताओं को समझने में मदद कर सकती है, जिससे भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था में अधिक लाभप्रद स्थिति प्राप्त हो सकती है।

भारतीय नौकरशाही में लेटरल एंट्री से संबंधित चुनौतियाँ: 

  • आरक्षण की पहेली: लेटरल एंट्री पदों में आरक्षण की अनुपस्थिति ने गंभीर विवाद को जन्म दिया है।
    • 13-पॉइंट रोस्टर’ नीति के कारण लेटरल एंट्री को आरक्षण प्रणाली से बाहर रखा गया है। यह नीति SC, ST, OBC और EWS समूहों के लिये कोटा प्रतिशत के आधार पर नौकरी के अवसरों का आवंटन करती है, जहाँ 100 के अंश के रूप कोटा प्रतिशत की गणना की जाती है।
    • कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) के अनुसार प्रत्येक लेटरल एंट्री पद को ‘एकल पद संवर्ग’ माना जाता है, जहाँ कोटा प्रतिशत का निर्धारण नहीं किया जा सकता और इसलिये इसे आरक्षण नीतियों से छूट दी गई है।
    • आरक्षण संबंधी चिंताओं के कारण अगस्त 2024 में 45 लेटरल एंट्री पदों के लिये नियुक्ति प्रक्रिया को रद्द करना इस मुद्दे की गंभीरता को उजागर करता है।
    • यह चुनौती भारत के सामाजिक न्याय ढाँचे के मूल पर प्रहार करती है, जहाँ निर्णयकारी भूमिकाओं में हाशिये पर स्थित समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के दशकों के प्रयासों को संभावित रूप से कमज़ोर कर देती है।
  • सांस्कृतिक विसंगति और एकीकरण संबंधी बाधाएँ: लेटरल एंट्री के माध्यम से निजी क्षेत्र से आने वाले अधिकारियों को पारंपरिक सरकारी नौकरशाही की विशिष्ट संस्कृति एवं कार्यशैली के अनुकूल ढलने में गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
    • कार्य करने की गति, निर्णय लेने की प्रक्रिया और संगठनात्मक पदानुक्रम में भारी अंतर से टकराव एवं अकुशलता उत्पन्न हो सकती है।
    • उदाहरण के लिये, लेटरल एंट्री से आए किसी अधिकारी को, जो त्वरित निर्णयन का आदी हो, सरकार में आमतौर पर अपनाई जाने वाली बहुस्तरीय अनुमोदन प्रक्रियाओं से जूझना पड़ सकता है।
    • इस कार्य-सांस्कृतिक असंगति के कारण पार्श्व प्रवेशकों के बीच निराशा, प्रभावशीलता में कमी और संभावित रूप से उच्च टर्नओवर दर (नौकरी छोड़ देने की उच्च दर) उत्पन्न हो सकती है, जिससे बाह्य विशेषज्ञता लाने का मूल उद्देश्य ही खतरे में पड़ सकता है।
  • पारंपरिक नौकरशाहों का प्रतिरोध: पार्श्व प्रवेशकों के प्रवेश को प्रायः पारंपरिक नौकरशाहों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, जो इसे अपने करियर की प्रगति और स्थापित सत्ता संरचनाओं के लिये खतरा मानते हैं।
    • यह प्रतिरोध, सहयोग नहीं करने से लेकर पार्श्व प्रवेशकों द्वारा संचालित पहलों में सक्रिय रूप से बाधा पहुँचाने तक, विभिन्न रूपों में प्रकट हो सकता है।
    • यह धारणा कि बाहरी लोगों को सीधे ऊपर से लाकर प्रतिष्ठित पदों पर नियुक्त किया जा रहा है, शत्रुतापूर्ण कार्य वातावरण का निर्माण कर सकती है और सहयोग एवं प्रभावी प्रशासन में बाधा उत्पन्न कर सकती है।
    • यह आंतरिक संघर्ष संभावित रूप से नए दृष्टिकोण और विशेषज्ञता लाने के लाभों को प्रभावहीन कर सकता है।
  • जवाबदेही और कार्य-निष्पादन मूल्यांकन संबंधी चुनौतियाँ: पार्श्व प्रवेशकों के लिये प्रभावी जवाबदेही तंत्र स्थापित करना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
    • पारंपरिक नौकरशाह, जो स्थापित निष्पादन मूल्यांकन प्रणालियों के अधीन हैं, के विपरीत अल्पावधिक अनुबंधों पर आए पार्श्व प्रवेशक मौजूदा ढाँचे में असंगत हो सकते हैं।
    • लेटरल एंट्री से नौकरशाही के भीतर दोहरी प्रणाली पैदा होने का खतरा है, जिससे असमानता एवं असंतोष उत्पन्न हो सकता है।
    • इसके अलावा, सीमित कार्यकाल के भीतर पार्श्व प्रवेशकों के योगदान के दीर्घकालिक प्रभाव का मूल्यांकन करना चुनौतीपूर्ण है, जिससे पारंपरिक प्रणाली में इस व्यवधान का औचित्य सिद्ध करना कठिन होगा।
  • हितों के टकराव की संभावना: निजी क्षेत्र से आने वाले लोग अपने साथ हितों के टकराव (conflicts of interest) की संभावना लेकर आ सकते हैं, विशेष रूप से यदि वे अपने सरकारी कार्यकाल के बाद अपने पूर्व उद्योगों में वापस लौटते हैं।
    • सरकार और उद्योग के बीच यह आवाजाही नैतिक चिंताएँ एवं सार्वजनिक भरोसे की समस्या उत्पन्न कर सकती हैं।
    • उदाहरण के लिये, किसी प्रौद्योगिकी कंपनी का कोई पूर्व कार्यकारी, जिसने सरकार के अंदर नियामक भूमिका निभाई हो और पुनः अपने पूर्व उद्योग में लौट गया हो, इस आरोप का सामना कर सकता है कि उसने अपने पूर्व क्षेत्र के पक्ष में कार्य किया है।
    • सुदृढ़ नैतिक दिशा-निर्देश स्थापित करना और ‘कूलिंग-ऑफ अवधि’ का प्रावधान करना अत्यंत आवश्यक  है, लेकिन इसे प्रभावी ढंग से लागू करना चुनौतीपूर्ण है।
  • अल्पकालिक केंद्रित ध्यान बनाम दीर्घकालिक शासन: पार्श्व प्रवेशक, जिन्हें आमतौर पर 3-5 वर्ष के अनुबंध पर नियुक्त किया जाता है, दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधारों की तुलना में अल्पकालिक व दृश्यमान उपलब्धियों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति रख सकते हैं।
    • इस अल्पकालिक फोकस से नीतिगत असंगतियों और शासन में निरंतरता के अभाव की स्थिति बन सकती है।
    • उदाहरण के लिये, एक पार्श्व प्रवेशक ऐसे त्वरित नीतिगत परिवर्तनों के लिये दबाव डाल सकता है जो तत्काल परिणाम दिखाएँ, लेकिन दीर्घकालिक रूप से संवहनीय नहीं हों।
    • यह दृष्टिकोण निर्धनता उन्मूलन या जलवायु परिवर्तन अनुकूलन जैसी जटिल राष्ट्रीय चुनौतियों को संबोधित करने के लिये आवश्यक सुसंगत एवं दीर्घकालिक नीति-निर्माण की आवश्यकता के साथ टकराव पैदा कर सकता है।
  • ‘स्केलिंग’ और संवहनीयता संबंधी चिंताएँ: हालाँकि लेटरल एंट्री ने सीमित संख्या में आशाजनक परिणाम दिखाए हैं, लेकिन नौकरशाही के एक वृहत भाग में इस दृष्टिकोण को लागू करना गंभीर चुनौतियाँ पेश करता है।
    • वर्तमान प्रणाली, जहाँ पाँच वर्षों में 63 लेटरल एंट्री नियुक्तियाँ की गई हैं, नौकरशाही के एक छोटे खंड का प्रतिनिधित्व करता है।
    • इसे वृहत रूप से विस्तारित करने के लिये भर्ती, प्रशिक्षण और एकीकरण प्रक्रियाओं में व्यापक बदलाव की आवश्यकता होगी।
    • आंतरिक क्षमताओं को विकसित करने के बजाय बाह्य प्रतिभा पर अत्यधिक निर्भरता की संवहनीयता के बारे में भी चिंताएँ मौजूद हैं।

भारतीय नौकरशाही में किन प्रमुख सुधारों की आवश्यकता है?

  • योग्यता आधारित प्रणाली का निर्माण – भर्ती और पदोन्नति में आमूलचूल परिवर्तन लाना: द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2008) ने योग्यता आधारित प्रणाली की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि “वरिष्ठ पद पर नियुक्तियों में स्वायत्तता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये एक केंद्रीय सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन करना आवश्यक है।”
    • पदोन्नति के लिये नियमित एसेसमेंट सेंटर की शुरूआत की जाए, जहाँ नेतृत्व एवं डोमेन विशेषज्ञता पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
    • नियुक्तियों और स्थानांतरणों की निगरानी के लिये एक स्वतंत्र सिविल सेवा बोर्ड की स्थापना की जाए, ताकि राजनीतिक हस्तक्षेप कम हो।
    • यह सुधार सुनिश्चित करेगा कि सर्वाधिक योग्य व्यक्ति ही प्रमुख पदों पर आसीन हों, जिससे नौकरशाही की कार्यकुशलता एवं प्रभावशीलता बढ़ेगी।
  • विशेषज्ञता का तालमेल – शासन में विशेषज्ञता का पोषण करना: सिविल सेवाओं में विशेषज्ञता को विकसित एवं पोषित करने के लिये सक्रिय प्रयास किये जाएँ।
    • प्रौद्योगिकी, वित्त और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों के लिये नौकरशाही के भीतर विशेषीकृत कैडर का सृजन किया जाए।
    • 10 वर्ष की सेवा के बाद अनिवार्य डोमेन विशेषज्ञता की प्रणाली लागू की जाए।
    • सिविल सेवकों की सतत व्यावसायिक शिक्षा के लिये शीर्ष विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी स्थापित की जाए।
    • इस दृष्टिकोण से एक अधिक कुशल और अनुकूलनशील नौकरशाही का निर्माण होगा, जो तेज़ी से विशेषीकृत होती जा ही दुनिया में शासन संबंधी जटिल चुनौतियों का समाधान करने में सक्षम होगी।
  • कार्य संस्कृति का रूपांतरण: सरकारी विभागों में कार्य संस्कृति एवं उत्पादकता में सुधार लाने के लिये द्वितीय ARC ने पदानुक्रमिक संरचनाओं को कम करने, कार्यालयों का आधुनिकीकरण करने और अधिकारियों को अधिक निर्णय लेने के अधिकार के साथ सशक्त बनाने की अनुशंसा की है।
    • इसमें पुरानी पड़ चुकी ‘बाबू’ संस्कृति को समाप्त कर एक सुव्यवस्थित एवं अधिक कुशल शासन संरचना का भी आह्वान किया गया है।
  • प्रदर्शन प्रतिमान – परिणाम-उन्मुख जवाबदेही तय करना: होता समिति (2004) ने सुझाव दिया था कि “गोपनीय रिपोर्ट की वर्तमान प्रणाली के स्थान पर एक प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन प्रणाली लागू की जानी चाहिये।”
    • प्रदर्शन मूल्यांकन के लिये ‘360 डिग्री फीडबैक तंत्र’ लागू किया जाए।
    • सभी वरिष्ठ पदों के लिये प्रमुख निष्पादन संकेतक (KPIs) प्रस्तुत किये जाएँ, जो विभागीय लक्ष्यों से जुड़े हों।
    • प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहन और त्वरित पदोन्नति की प्रणाली स्थापित की जाए।
    • यह सुधार प्रक्रिया से ध्यान हटाकर परिणामों पर केंद्रित करेगा, जिससे शासन की समग्र दक्षता और प्रभावशीलता बढ़ेगी।
  • डिजिटल रूपांतरण – शासन के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: सभी सरकारी सेवाओं को एकीकृत करते हुए एक राष्ट्रव्यापी ई-गवर्नेंस प्लेटफॉर्म स्थापित किया जाए।
    • साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण एवं कार्यान्वयन के लिये AI और डेटा एनालिटिक्स का प्रयोग शुरू किया जाए।
    • डिजिटल रूपांतरण को आगे बढ़ाने के लिये प्रत्येक मंत्रालय में एक मुख्य डिजिटल अधिकारी का पद स्थापित किया जाए। इस सुधार से पारदर्शिता बढ़ेगी, भ्रष्टाचार कम होगा और नागरिकों के लिये सेवा आपूर्ति में सुधार होगा।
  • जवाबदेही को सुदृढ़ करना: द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सार्वजनिक सेवाओं में जवाबदेही बढ़ाने के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया है।
    • इसमें सरकारी कर्मचारियों के लिये दो गहन समीक्षाओं की अनुशंसा की गई है- एक 14 वर्ष के कार्यकाल पर, ताकि उनके सामर्थ्यों एवं कमियों का आकलन किया जा सके, और दूसरी 20 वर्ष के कार्यकाल पर, ताकि सेवा में उन्हें बनाए रखने के लिये उनकी योग्यता का निर्धारण किया जा सके।
    • यदि कोई अधिकारी 20 वर्षों के कार्यकाल के बाद अयोग्य पाया जाता है तो उसकी सेवा समाप्त की जा सकती है और भविष्य में उसकी नियुक्ति इन समीक्षाओं के परिणाम पर निर्भर करेगी।
  • सिविल सेवाओं का गैर-राजनीतिकरण: सिविल सेवाओं की राजनीतिक तटस्थता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिये द्वितीय ARC ने मंत्रियों और सिविल सेवकों दोनों के लिये आचारण संहिता (Codes of Ethics) में इस पहलू को शामिल करने की अनुशंसा की है।
    • ARC ने पारदर्शी भर्ती प्रक्रियाओं की आवश्यकता तथा सिविल सेवकों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का पालन करने पर भी बल दिया है।

निष्कर्ष:

भारतीय नौकरशाही में लेटरल एंट्री से नई विशेषज्ञता एवं नवाचार का प्रवेश हो सकता है, लेकिन इसे आरक्षण, कार्य-सांस्कृतिक विसंगति, पारंपरिक नौकरशाहों की ओर से प्रतिरोध और हितों के टकराव जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। इसकी सफलता परंपरा के साथ नवाचार को संतुलित करने, पार्श्व प्रवेशकों को उचित रूप से एकीकृत करने और मौजूदा प्रणाली के सामर्थ्य को संरक्षित करने पर निर्भर करती है। यदि इसे सुचिंतित तरीके से लागू किया जाए तो यह भारत की शासन संबंधी चुनौतियों के प्रति सिविल सेवा की विविधता एवं जवाबदेही को बेहतर बना सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारतीय सिविल सेवाओं में पार्श्व प्रवेश या ‘लेटरल एंट्री’ के शासन, समावेशिता और सामाजिक न्याय के लिये निहितार्थों की चर्चा कीजिये। इस पहल से संबद्ध चुनौतियों पर भी प्रकाश डालिये?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न: “आर्थिक प्रदर्शन के लिये संस्थागत गुणवत्ता एक निर्णायक चालक है”। इस संदर्भ में लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये सिविल सेवा में सुधारों का सुझाव दीजिये। (2020)