भारत की तालिबान चुनौती | 18 Aug 2021
यह एडिटोरियल दिनांक 16/08/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Taliban has taken Kabul. Delhi must watch, not pronounce doom’’ लेख पर आधारित है। इसमें अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण और नए परिदृश्य में भारत के लिये उभरती चुनौतियों के बारे में चर्चा की गई है।
अमेरिकी सेना की वापसी और फिर देश पर तालिबान के नियंत्रण से अफगानिस्तान एक अफरातफरी का शिकार हुआ है। नए परिदृश्य में न केवल अफगानिस्तान में तालिबान का तेज़ी से आगे बढ़ना सुनिश्चित हुआ बल्कि काबुल का शांतिपूर्ण आत्मसमर्पण भी तय हो गया।
विभिन्न प्रांतों से आ रही खबरों ने तालिबान द्वारा मानवाधिकारों के घोर हनन की पुष्टि की है। यदि तालिबान का नया शासन काबुल में बेहतर प्रदर्शन करता है, तो यह विश्व को इसके प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।
निश्चय ही काबुल में तालिबान का प्रवेश अफगानिस्तान और भारत के बीच संबंधों के एक नए चरण की शुरूआत का भी प्रतीक है।
भारत के लिये चुनौतियाँ
- भारतीय सुरक्षा का मुद्दा: अफगानिस्तान में तालिबान शासन की बहाली भारतीय सुरक्षा के लिये कुछ अत्यंत गंभीर आसन्न चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है।
- इनमें विकास अवसंरचना को सुरक्षित करने से लेकर अराजकता के शिकार अफगानिस्तान में फँसे भारतीय नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकालने जैसी तमाम चुनौतियाँ शामिल हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का प्रसार: अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को तालिबान से प्राप्त पुनः समर्थन और तालिबान की ओर से लड़ रहे जिहादी समूहों को पाकिस्तान द्वारा पुनः भारत की ओर मोड़ दिया जाना भारत के लिये एक गंभीर चुनौती होगी।
- धार्मिक कट्टरवाद: अन्य सभी कट्टरपंथी समूहों की तरह, तालिबान के लिये भी अपनी धार्मिक विचारधारा को राज्य के हितों की अनिवार्यता के साथ संतुलित करना एक कठिन कार्य होगा।
- भारत को दीर्घकालिक शांति और स्थिरता के लिये इस क्षेत्र को कट्टरपंथ से मुक्त करने जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ेगा।
- नई क्षेत्रीय भू-राजनीतिक प्रगति: क्षेत्र में नए भू-राजनीतिक संरेखण (चीन-पाकिस्तान-तालिबान का गठजोड़) का भी निर्माण हो सकता है जो भारत के हितों के विरुद्ध जा सकता है।
- इसके साथ ही, अमेरिका की वापसी अफगानिस्तान और उसके आसपास के क्षेत्रों में सत्ता-समीकरण के एक नए संतुलन की स्थापना की विवशता उत्पन्न करती है।
- इसके अलावा अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश अफगानिस्तान के नए शासन के प्रति अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को आकार देने का भी प्रयास करेंगे।
- तालिबान के साथ निकट संबंध नहीं: पाकिस्तान, चीन और ईरान के विपरीत भारत का तालिबान के साथ कोई निकट संबंध नहीं रहा है।
- उदाहरण के लिये, रूस की तजाकिस्तान के साथ एक सुरक्षा संधि है और उसने अफगानिस्तान में उथल-पुथल से मध्य एशिया में अस्थिरता के प्रसार पर नियंत्रण के लिये वहाँ अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है।
- भारत के पास ऐसा कोई सुरक्षा उत्तरदायित्व नहीं है और न ही वह मध्य एशिया तक कोई सीधी पहुँच रखता है।
- चूँकि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद अफगानिस्तान में तालिबान के साथी रहे हैं, यह तालिबान को पाकिस्तान के माध्यम से जम्मू-कश्मीर में भारत पर पुनः हमला करने हेतु प्रोत्साहन दे सकता है।
भारत के समक्ष उपलब्ध विकल्प
- व्यापक राजनयिक संलग्नता: भारत को अफगानिस्तान पर केंद्रित एक विशेष दूत नियुक्त करने पर विचार करना चाहिये। यह विशेष दूत सुनिश्चित कर सकता है कि प्रत्येक बैठक में भारतीय आशंकाओं-अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति हो और तालिबान के साथ संलग्नता का आधार व्यापक किया जाए।
- तालिबान और पाकिस्तान को अलग-अलग खाँचों में देखना: यद्यपि तालिबान पर पाकिस्तान को एक वास्तविक लाभ की स्थिति प्राप्त है लेकिन यह पूर्ण या परम प्रभाव नहीं भी हो सकता है।
- निश्चय ही तालिबान पाकिस्तान से एक हद तक स्वायत्तता की इच्छा रखेगा। भारत और तालिबान के बीच मौजूदा समस्याओं के दूर होने तक भारत को अभी कुछ धैर्य बनाए रखना होगा।
- अफगानिस्तान में अवसरों को संतुलित करना: अफगानिस्तान के अंदर शक्ति के आंतरिक संतुलन को आकार देना हमेशा से कठिन रहा है। अफगानिस्तान में चीन-पाक की गहन साझेदारी अनिवार्य रूप से विपरीत प्रवृत्तियों को भी जन्म देगी।
- लेकिन एक धैर्यवान, ग्रहणशील और सक्रिय भारत के लिये अफगानिस्तान में संतुलन के अवसरों की कोई कमी नहीं होगी।
- भारतीय अवसंरचनात्मक विकास का लाभ उठाना: भारत द्वारा अफगानिस्तान को अवसंरचनात्मक परियोजनाओं के लिये 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता दी गई है जो उसकी आबादी की सेवा करती है और इससे भारत ने जो सद्भावना अर्जित की है, वह स्थायी बनी रहेगी।
- वर्तमान आवश्यकता यह है कि अफगानिस्तान में विकास कार्यों को अवरुद्ध नहीं किया जाए और सकारात्मक कार्य जारी रखा जाए।
- वैश्विक सहयोग: 1990 के दशक की तुलना में आज आतंकवाद की वैश्विक स्वीकृति बहुत कम है।
- कोई भी बड़ी शक्ति अफगानिस्तान को आतंकवाद की वैश्विक शरणस्थली के रूप में फिर से उभरते हुए नहीं देखना चाहेगी।
- विश्व ने फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) जैसे तंत्रों के माध्यम से आतंकवाद को पाकिस्तान के समर्थन पर नियंत्रण के लिये उल्लेखनीय कदम भी उठाए हैं।
निष्कर्ष
चूँकि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्यबल की वापसी के प्रभाव भारत पर भी पड़ेंगे, उसे अपने हितों की रक्षा के लिये और अफगानिस्तान में स्थिरता की बहाली के लिये तालिबान तथा अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर कार्य करना होगा। यदि भारत सक्रिय और धैर्यवान बना रहा तो इस नए अफगान चरण में उसके लिये अवसर के कई द्वार खुल सकते हैं।
अभ्यास प्रश्न: एक धैर्यवान, ग्रहणशील और सक्रिय भारत के लिये अफगानिस्तान में संतुलन के अवसरों की कोई कमी नहीं होगी। चर्चा कीजिये।