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अमेरिका की वापसी और क्षेत्रीय गतिशीलता

  • 14 Jul 2021
  • 10 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 13/07/2021 को ‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ में प्रकाशित लेख “Regional powers and the Afghanistan question” पर आधारित है। यह अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान और उस क्षेत्र में उभर रहे परिदृश्यों से संबंधित है।

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की तेज़ी से वापसी ने पूरे देश में तालिबान की गतिशीलता को बढ़ा दिया है। अमेरिका ने पुष्टि की है कि उसके 90% सैनिकों की वापसी हो चुकी है और तालिबान ने दावा किया है कि अफगानिस्तान के 85% क्षेत्र पर उसका नियंत्रण है।

इन घटनाक्रमों ने अफगानिस्तान को क्षेत्रीय शक्तियों के दरबार में ला खड़ा किया है, जिस पर अब अमेरिकी सैनिकों की वापसी के कारण उपजे सैन्य शून्य की स्थिति को प्रबंधित करने का बोझ है।

अफगानिस्तान के क्षेत्रीय समाधान का विचार हमेशा से ही राजनीतिक आकर्षण रहा है। लेकिन अलग-अलग क्षेत्रीय रणनीतिक दृष्टिकोण अफगानिस्तान पर एक स्थायी आम सहमति की संभावनाओं को सीमित करते हैं।

अमेरिका की वापसी के कारण

  • अमेरिका का मानना है कि तालिबान के विरुद्ध चल रहा यह युद्ध अजेय है।
  • अमेरिकी प्रशासन ने वर्ष 2015 में ‘मुरी’ में पाकिस्तान द्वारा आयोजित तालिबान और अफगान सरकार के बीच पहली बैठक के लिये अपना एक प्रतिनिधि भेजा था।
    • हालाँकि ‘मुरी’ वार्ता से कुछ प्रगति हासिल नहीं की जा सकी थी।
  • दोहा वार्ता: तालिबान के साथ सीधी बातचीत के उद्देश्य से अमेरिका ने अफगानिस्तान के लिये एक विशेष दूत नियुक्त किया। उसने दोहा में तालिबान प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की जिसके परिणामस्वरूप फरवरी 2020 में अमेरिका और विद्रोहियों के बीच समझौता हुआ।
    • दोहा वार्ता शुरू होने से पहले तालिबान ने कहा था कि वह केवल अमेरिका के साथ सीधी बातचीत करेगा, न कि काबुल सरकार के साथ, जिसे उन्होंने मान्यता नहीं दी थी।
    • अमेरिका ने प्रक्रिया से अफगान सरकार को अलग रखते हुए इस मांग को प्रभावी ढंग से स्वीकार कर लिया और विद्रोहियों के साथ सीधी बातचीत शुरू की।

अमेरिका की वापसी और क्षेत्रीय शक्तियाँ

  • तालिबान: तालिबान अपने आप में एक प्रमुख चर बना हुआ है। यदि तालिबान सभी अफगानों के हितों को समायोजित नहीं करता है तो यह केवल अफगानिस्तान में गृह युद्ध के अगले दौर के लिये मंच तैयार करेगा।
    • तालिबान यह भी संकेत दे रहा है कि वह किसी और के लिये प्रॉक्सी नहीं बनेगा तथा स्वतंत्र नीतियों का पालन करेगा।
  • चीन: अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी वर्तमान में चीन के इस दृढ़ विश्वास को पुष्ट करती है कि अमेरिका टर्मिनल गिरावट में है।
    • ऐसे समय में जब चीन अंतर्राष्ट्रीय शासन के पश्चिमी मॉडल के विकल्प की पेशकश कर रहा है तो अमेरिका की वापसी को चीन में एक महान वैचारिक जीत के रूप में देखा जाता है।
    • हालाँकि चीन के लिये शिनजियांग अलगाववादी समूहों को संभावित तालिबान समर्थन एक प्रमुख चिंता का विषय है।
  • भारत: तालिबान से निपटने के लिये भारत के पास तीन महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होंगे।
    • अफगानिस्तान में अपने निवेश की रक्षा करना, जो अरबों रुपए में चलता है;
    • भावी तालिबान शासन को पाकिस्तान का मोहरा बनने से रोकना;
    • यह सुनिश्चित करना कि पाकिस्तान समर्थित भारत विरोधी आतंकवादी समूहों को तालिबान का समर्थन न मिले।
  • अन्य: कोई भी क्षेत्रीय देश तालिबान के तहत अफगानिस्तान को फिर से अंतर्राष्ट्रीय आतंक की नर्सरी बनते नहीं देखना चाहता।
    • ईरान तालिबान के सुन्नी चरमपंथ और शिया एवं फारसी भाषायी अल्पसंख्यकों से निपटने में उसके दमनकारी रिकॉर्ड को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।
    • पाकिस्तान डूरंड रेखा के पूर्व में संघर्ष के फैलने और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जैसे शत्रुतापूर्ण समूहों के अफगानिस्तान में शरण लेने के खतरे को लेकर चिंतित है।

भारत का दृष्टिकोण

  • अमेरिकी सेना की मौजूदगी से सुरक्षित अफगानिस्तान में लंबे समय से चली आ रही शांति का युग समाप्त हो गया है।
    • इसका मतलब होगा कि अफगानिस्तान के अंदर काम करने की भारत की क्षमता पर नई बाधाओं का का उत्पन्न होना।
  • तीन संरचनात्मक स्थितियाँ भारत की अफगान नीति को आकार देती रहेंगी।
    • एक अफगानिस्तान तक भारत की प्रत्यक्ष भौतिक पहुँच का अभाव। यह भारत के प्रभावी क्षेत्रीय साझेदारों के महत्त्व को रेखांकित करता है।
    • पाकिस्तान, अफगानिस्तान में किसी भी सरकार को अस्थिर करने की क्षमता रखता है लेकिन उसके पास अफगानिस्तान में एक स्थिर और वैध व्यवस्था बनाने की शक्ति नहीं है।
    • अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हितों के बीच अंतर्विरोध चिरस्थायी है।
      • पाकिस्तान अफगानिस्तान को एक रक्षक के रूप में बदलना पसंद करता है लेकिन अफगान अपनी स्वतंत्रता को बहुत महत्त्व देता है। तालिबान सहित सभी अफगान संप्रभु, पाकिस्तान को संतुलित करने के लिये भागीदारों की तलाश करेंगे।
  • भारत को तालिबान सहित विभिन्न अफगान समूहों के साथ अपने जुड़ाव को तीव्र करने और बदलते अफगानिस्तान में अपने हितों को सुरक्षित करने के लिये प्रभावी क्षेत्रीय साझेदार खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।

आगे की राह

  • बहुपक्षीय संगठनों का उपयोग: शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे संगठनों का उपयोग अफगान समस्या से निपटने और स्थिरता प्राप्त करने में किया जाना चाहिये।
    • SCO की स्थिति, सदस्यता और क्षमता इसे अमेरिका के बाद अफगानिस्तान की चुनौतियों से निपटने के लिये एक महत्त्वपूर्ण मंच बनाती है।
  • एशिया में शांति एवं स्थिरता के लिये एक स्वतंत्र, संप्रभु, लोकतांत्रिक, बहुलवादी और समावेशी अफगानिस्तान का होना आवश्यक है ।
    • इसे सुनिश्चित करने के लिये अफगान शांति प्रक्रिया अफगान-नेतृत्त्व वाली, अफगान-स्वामित्व वाली और अफगान-नियंत्रित होनी चाहिये (जैसा कि भारत की अफगान नीति में कहा गया है)।
  • साथ ही वैश्विक समुदाय को आतंकवाद की वैश्विक चिंता के खिलाफ लड़ने की ज़रूरत है।
  • प्रशासन और सैन्य सुधार: उस क्षेत्र में अधिक उग्रवाद देखा जाता है जहाँ प्रशासन विफल रहता है। इस प्रकार उभरते तालिबान 2.0 के खतरे से निपटने के लिये अफगानिस्तान के भीतर प्रशासनिक और सैन्य सुधार समय की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के बाहर निकलने से इस क्षेत्र में तालिबान का उदय, भू-राजनीतिक प्रवाह में परिवर्तन जैसी अस्थिरता पैदा हो गई है।
  • चूँकि ये कारक भारत को इस क्षेत्र में एक कठिन भू-राजनीतिक स्थिति में धकेल देंगे, इसलिये अफगानिस्तान में बदलती गतिशीलता से निपटने के लिये स्मार्ट स्टेटक्राफ्ट की आवश्यकता है।
  • यदि भारत सक्रिय और धैर्यवान बना रहा तो नए अफगान में उसे अपनी भू राजनीतिक स्थिति मज़बूत करने के कई अवसर मिल सकते हैं।

प्रश्न:अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने क्षेत्रीय शक्तियों के लिये नई चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं। टिप्पणी कीजिये।

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