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भारत का डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर

  • 03 Aug 2023
  • 17 min read

यह एडिटोरियल 31/07/2023 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Pathways for digital inclusion’’ लेख पर आधारित है। इसमें डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI) की चुनौतियों और लाभों के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर, आधार (Aadhaar), UPI, अकाउंट एग्रीगेटर्स, इंडिया स्टैक

मेन्स के लिये:

डेटा संरक्षण, डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे से संबंधित लाभ।

डिजिटल पब्लिक गुड्स (Digital Public Goods- DPGs), ऐसे डिजिटल पैथवे हैं जो आवश्यक सेवाएँ प्रदान करने और समाज को समग्र रूप से लाभ पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये DPGs डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (Digital Public Infrastructure- DPI) पर निर्मित हैं, जिसमें खुले/ओपन और इंटरऑपरेबल प्लेटफॉर्म शामिल हैं, जो उपयोग और विकास के लिये हर किसी के लिये भी सुलभ हैं। 

भारत ने इस क्षेत्र में अग्रणी हितधारक के रूप में आधार (Aadhaar), यूपीआई (UPI) और अकाउंट एग्रीगेटर्स (account aggregators) सहित विभिन्न DPI प्रयोगों को लागू किया है। इन पहलों ने डिजिटल परिदृश्य में क्रांति ला दी है, जहाँ विभिन्न क्षेत्रों में वित्तीय और सामाजिक समावेशन सक्षम हो रहा है। भारत का DPI पारितंत्र, जिसे ‘इंडिया स्टैक’ (India Stack) के नाम से जाना जाता है, परस्पर जुड़े हुए लेकिन स्वतंत्र ‘ब्लॉक’ (blocks) से बना है जो पहचान, भुगतान, डेटा साझाकरण और सहमति तंत्र के रूप में कार्य करते हैं। इंडिया स्टैक की मॉड्यूलर परतें डिजिटल क्षेत्र में नवाचार, समावेशन और प्रतिस्पर्द्धा के अवसर सृजित करती हैं। 

इंडिया स्टैक: 

  • इंडिया स्टैक, एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (Application programming interface- APIs) का एक सेट है जो सरकारों, व्यवसायों, स्टार्टअप्स और डेवलपर्स को प्रजेंस-लेस, पेपरलेस और कैशलेस सेवा वितरण की दिशा में भारत की जटिल समस्याओं को हल करने के लिये एक अद्वितीय डिजिटल अवसंरचना का उपयोग करने की अनुमति देता है। 
  • यह आबादी के पैमाने पर पहचान, डेटा और भुगतान की आर्थिक प्राथमिकताओं को अनलॉक करने का लक्ष्य रखता है। 
  • इंडिया स्टैक का दृष्टिकोण किसी एक देश तक सीमित नहीं है; इसे किसी भी राष्ट्र पर लागू किया जा सकता है, चाहे वह विकसित राष्ट्र हो या विकासशील राष्ट्र। 
  • इस परियोजना की संकल्पना और पहली बार कार्यान्वयन भारत में किया गया, जहाँ करोड़ों व्यक्तियों एवं व्यवसायों द्वारा इसे तेज़ी से अपनाने से वित्तीय एवं सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देने में मदद मिली तथा देश, ‘इंटरनेट युग’ के लिये तैयार हो सका है। 

समावेशी DPIs के लिये आवश्यक प्रमुख तत्त्व:

  • उपयोगकर्ता-केंद्रित डिज़ाइन: 
    • उपयोगकर्ता की आवश्यकताओं एवं पसंदों को प्राथमिकता देना, प्रौद्योगिकी जोखिमों को कम करना और विविध समूहों को सेवा देना, जिनमें ऐसे लोग भी शामिल हैं जो स्मार्टफोन तक सीमित पहुँच रखते हैं या निम्न डिजिटल साक्षरता रखते हैं। 
  • नीति उद्देश्य: 
    • नियामक ढाँचे के तहत एक प्रमुख नीति उद्देश्य के रूप में समावेशन को शामिल करना, सभी उपयोगकर्ताओं के लिये डेटा सुरक्षा एवं गोपनीयता सुनिश्चित करना एवं क्षेत्रों या समुदायों के बीच सूचना असमानताओं (information disparities) से बचना। 
  • ‘यूज़ केस’ का विकास करना: 
    • वंचित वर्गों की पहचान करना और उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप ‘यूज़ केस’ (Use Cases) विकसित करना। 
      • अलग-अलग डेटा संग्रह और फीडबैक तंत्र के माध्यम से कमज़ोर उपभोक्ताओं पर इसके प्रभाव की नियमित रूप से निगरानी करना। 
  • संलग्नता: 
    • ऑफ़लाइन चैनलों, संस्थागत क्षमता निर्माण, विश्वास-निर्माण और जागरूकता सृजन के माध्यम से उपयोगकर्ताओं के साथ संलग्नता बनाना। कमज़ोर उपभोक्ताओं के बीच डिजिटल सुविधा को बढ़ावा देने के लिये बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट या सामुदायिक हितधारकों जैसे विश्वसनीय मानवीय संपर्क बिंदुओं का लाभ उठाना। 

भारत के लिये समावेशी DPIs के लाभ:

  • समतामूलक डिजिटल अर्थव्यवस्था: 
    • समावेशी DPIs एक अधिक समतामूलक और सुलभ डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देते हैं जो सभी नागरिकों तथा संगठनों को समान रूप से आवश्यक सेवाएँ प्रदान करती है। 
  • धन अंतराल में कमी: 
    • धन के अंतराल को कम करना और एक कुशल एवं प्रत्यास्थी डिजिटल अर्थव्यवस्था का निर्माण करना जो आर्थिक विकास और सामाजिक विकास को गति दे। 
  • डिजिटल समावेशन और सशक्तीकरण: 
    • समावेशी DPIs यह सुनिश्चित करते हैं कि हाशिये पर स्थित और वंचित समुदायों सहित समाज के सभी वर्गों की आवश्यक डिजिटल सेवाओं तक पहुँच हो। यह डिजिटल समावेशन को बढ़ावा देता है, व्यक्तियों को डिजिटल अर्थव्यवस्था में भागीदारी करने, सूचना तक पहुँच रखने और उन्हें विभिन्न ऑनलाइन सेवाओं का लाभ उठाने के लिये सशक्त बनाता है। 
  • उन्नत सेवा वितरण: 
    • समावेशी DPIs स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और शासन जैसी सार्वजनिक सेवाओं के वितरण में सुधार लाते हैं। डिजिटल चैनलों के माध्यम से सरकारी एजेंसियाँ नागरिकों तक अधिक कुशलता से पहुँच सकती हैं, नौकरशाही बाधाएँ कम हो सकती हैं एवं इससे बेहतर सेवा परिणाम सुनिश्चित किया जा सकता है। 
  • कम लेन-देन लागत: 
    • समावेशी DPIs के माध्यम से डिजिटल लेन-देन में पारंपरिक तरीकों की तुलना में लेन-देन की लागत प्रायः कम होती है। यह विभिन्न लेन-देन संचालन लागत को कम कर व्यवसायों, उपभोक्ताओं और सरकार को लाभ पहुँचाता है। 
  • डेटा-संचालित शासन और निर्णयन प्रक्रिया: 
    • समावेशी DPIs विभिन्न स्रोतों से डेटा के संग्रह और विश्लेषण की सुविधा प्रदान करते हैं। डेटा-संचालित दृष्टिकोण से शासन, सार्वजनिक नीति और सेवा वितरण में अधिक सूचना-संपन्न निर्णय लेने में सहायता मिलती है। 
  • उन्नत कृषि पद्धतियाँ: 
    • समावेशी DPIs किसानों को मौसम, बाज़ार मूल्यों और सर्वोत्तम कृषि प्रणालियों से संबंधित सूचना प्रदान कर सकते हैं। इससे उन्हें बेहतर निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त होती है, जिससे कृषि उत्पादकता में सुधार होता है। 
  • आपदा प्रबंधन और आपातकालीन प्रतिक्रिया: 
    • समावेशी DPIs, आपदा प्रबंधन और आपातकालीन प्रतिक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे अधिकारियों को शीघ्रता से सूचना प्रसारित करने एवं राहत प्रयासों का अधिक प्रभावी ढंग से समन्वय करने में सक्षम बनाते हैं। 

भारत में DPIs से संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ:  

  • अवसंरचना तक पहुँच का अभाव: 
    • कई भूभागों में (विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में) विश्वसनीय इंटरनेट कनेक्टिविटी और डिजिटल अवसंरचना तक अपर्याप्त पहुँच के अभाव की स्थिति है। बिजली तक सीमित पहुँच और कंप्यूटर एवं स्मार्टफोन जैसे आवश्यक डिजिटल हार्डवेयर का अभाव इस समस्या को और बढ़ा देता है। 
  • ‘डिजिटल डिवाइड’: 
    • भारत में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच काफी अधिक ‘डिजिटल डिवाइड’ बना हुआ है। शहरी केंद्रों में आमतौर पर डिजिटल अवसंरचना और सेवाओं तक बेहतर पहुँच होती है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः विश्वसनीय इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी होती है तथा ये तकनीकी असमानताओं (technological disparities) का सामना करते हैं। 
  • वहनीयता: 
    • डिजिटल अवसंरचना उपलब्ध हों तो भी इंटरनेट तक पहुँच और डिजिटल उपकरणों की लागत कई व्यक्तियों और परिवारों के लिये (विशेष रूप से निम्न आय समुदायों से संबंधित) निषेधात्मक सिद्ध हो सकती है। 
  • भाषा और कंटेंट संबंधी बाधाएँ: 
    • कुछ प्रमुख भाषाओं में कंटेंट का प्रभुत्व गैर-अंग्रेज़ी भाषी लोगों को या उन लोगों को अपवर्जित कर सकता है जो किसी प्रमुख भाषा में कुशल नहीं हैं। स्थानीयकृत और प्रासंगिक सामग्री की कमी महत्त्वपूर्ण सूचना और सेवाओं तक पहुँच में बाधा उत्पन्न कर सकती है। 
  • शारीरिक और संज्ञानात्मक विकलांगताएँ: 
    • डिजिटल प्लेटफॉर्म में सीमित पहुँच सुविधाओं और डिज़ाइन संबंधी सीमितताओं के कारण विकलांग व्यक्तियों को डिजिटल प्रौद्योगिकियों तक पहुँच बनाने तथा उनका उपयोग करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। 
  • गोपनीयता और सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: 
    • गोपनीयता के उल्लंघन और डेटा सुरक्षा संबंधी मुद्दों का भय, व्यक्तियों को डिजिटल प्रौद्योगिकियों को अपनाने से हतोत्साहित कर सकता है (विशेष रूप से जब संवेदनशील सूचना को लेकर कोई भय हो) । 
  • भौगोलिक विषमताएँ: 
    • शहरी क्षेत्रों में प्रायः ग्रामीण और दूरदराज़ क्षेत्रों की तुलना में डिजिटल अवसंरचना तथा सेवाओं तक बेहतर पहुँच की स्थिति होती है, जिससे डिजिटल समावेशन में विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। 

आगे की राह: 

  • नीति और नियामक समर्थन: 
    • सरकार को ऐसी नीतियाँ का निर्माण और क्रियान्वयन करना चाहिये जो डिजिटल समावेशन को एक प्रमुख उद्देश्य के रूप में प्राथमिकता दें। नियामक ढाँचे के माध्यम से डेटा सुरक्षा, गोपनीयता और डिजिटल सेवाओं तक गैर-भेदभावपूर्ण पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिये। सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने से संसाधन एवं विशेषज्ञता जुटाने में मदद मिल सकती है। 
  • डिजिटल अवसंरचना में निवेश: 
    • इंटरनेट कनेक्टिविटी और डिजिटल सेवाओं तक पहुँच में सुधार के लिये (विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज़ के क्षेत्रों में) डिजिटल अवसंरचना में निवेश को बढ़ाया जाना चाहिये। इसमें ब्रॉडबैंड नेटवर्क का विस्तार करना और सस्ती एवं विश्वसनीय इंटरनेट सेवाएँ सुनिश्चित करना शामिल है। 
  • स्थानीयकृत कंटेंट और भाषा विविधता: 
    • विविध भाषाई समुदायों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये क्षेत्रीय भाषाओं में डिजिटल कंटेंट को बढ़ावा देने के प्रयास किये जाने चाहिये। इससे यह सुनिश्चित होगा कि सूचना और सेवाएँ वृहत आबादी तक पहुँच सकें। 
  • लक्षित ‘यूज़ केस’ और सेवाएँ: 
    • लक्षित यूज़ केस और सेवाओं की पहचान करना तथा इन्हें विकसित करना आवश्यक है, जो वंचित समुदायों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हों। इससे डिजिटल अंगीकरण को बढ़ावा मिल सकता है। 
      • उदाहरण के लिये, डिजिटल स्वास्थ्य देखभाल समाधान, कृषि सलाह और डिजिटल शिक्षा प्लेटफॉर्म ग्रामीण आबादी को लाभ पहुँचा सकते हैं। 

अभ्यास प्रश्न: भारत में डिजिटल समावेशन प्राप्त करने और सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में समावेशी डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPIs) के महत्त्व को बताते हुए इसके संभावित लाभों की चर्चा कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)  

  1. आधार कार्ड का उपयोग नागरिकता या अधिवास के प्रमाण के रूप में किया जा सकता हैै। 
  2. एक बार जारी होने के बाद आधार संख्या को जारीकर्त्ता प्राधिकारी द्वारा समाप्त या छोड़ा नहीं जा सकता है। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों  
(d) न तो 1 और न ही 2  

उत्तर: (d) 

  • आधार प्लेटफॉर्म सेवा प्रदाताओं को निवासियों की पहचान को सुरक्षित और त्वरित तरीके से इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रमाणित करने में मदद करता है, जिससे सेवा वितरण अधिक लागत प्रभावी एवं कुशल हो जाता है। भारत सरकार और UIDAI के अनुसार आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है। 
  • हालाँकि UIDAI ने आकस्मिकताओं का एक सेट भी प्रकाशित किया है जो उसके द्वारा जारी आधार अस्वीकृति के लिये उत्तरदायी है। मिश्रित या विषम बायोमेट्रिक जानकारी वाला आधार निष्क्रिय किया जा सकता है। आधार का लगातार तीन वर्षों तक उपयोग न करने पर भी उसे निष्क्रिय किया जा सकता है।
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