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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारतीय विदेश नीति

  • 19 Aug 2022
  • 18 min read

यह एडिटोरियल 18/08/2022 को ‘लाइवमिंट’ में प्रकाशित “It can address this challenge by reclaiming its moral leadership in the region as well as the world at large” लेख पर आधारित है। इसमें सक्रिय राष्ट्रीय हित और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता की आवश्यकता से प्रेरित भारत की विदेश नीति के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता से लेकर अब तक विश्व व्यापक रूप से बदल चुका है। इस दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के द्विध्रुवीय विश्व से लेकर अमेरिकी आधिपत्य के एक संक्षिप्त एकध्रुवीय काल तक और अब चीन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के द्विध्रुवीय प्रतियोगिता की ओर आगे बढ़ने से लेकर बहुध्रुवीयता के एक भ्रम तक विश्व ने कई स्वरुप  देखे हैं।

आज के इस विशृंखल विश्व में भारत को अपनी विशिष्ट विदेश नीति पहचान को परिभाषित करने और नैतिक मूल्यों के साथ राष्ट्रीय हित को संतुलित करने के लिये अपनी संलग्नता की रूपरेखा को आकार देने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।

‘स्टेट’ और ‘नेशन’ के बीच क्या अंतर है?

  • स्टेट (State) या राज्य में चार तत्त्व होते हैं- जनसंख्या, क्षेत्र, सरकार और संप्रभुता।
    • जबकि नेशन (Nation) या राष्ट्र साझा जातीयता, इतिहास, परंपराओं और आकांक्षाओं पर आधारित एक समुदाय होता है।
  • एक वैधानिक निकाय के रूप में राज्य अपने लोगों की सुरक्षा एवं कल्याण के लिये उत्तरदायी है और यह बाह्य मानवीय कार्यकरण से संबंधित है।
    • जबकि राष्ट्र उन लोगों का एक निकाय होता है जो भावनात्मक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूप से एकजुट होते हैं।
  • क्षेत्र (Territory) भी राज्य का एक अनिवार्य अंग होता है, क्योंकि यह राज्य का भौतिक तत्त्व होता है।
    • लेकिन एक राष्ट्र के लिये, क्षेत्र इसका अनिवार्य अंग नहीं है। राष्ट्र एक निश्चित क्षेत्र के बिना भी अस्तित्व में रह सकता है।
  • अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में राज्य में कई राष्ट्र शामिल हैं और इस प्रकार वे ‘बहुराष्ट्रीय समाज’ (Multinational societies) हैं।

भारत की विदेश नीति अपने सक्रिय राष्ट्रीय हित को कैसे परिलक्षित करती है?

  • इंडिया फर्स्ट’ की नीति: स्वतंत्रता के 75 वर्षों के साथ देश में ‘इंडिया फर्स्ट’ की विदेश नीति को अभिव्यक्त करने का वृहत आत्म-विश्वास और आशावाद मौजूद है। भारत अपने लिये स्वयं निर्णय लेता है और इसकी स्वतंत्र विदेश नीति किसी भयादोहन या दबाव के अधीन नहीं लाई जा सकती।
    • विश्व की लगभग 1/5 आबादी के साथ भारत को अपना स्वयं का पक्ष चुनने और अपने हितों का ध्यान रखने का अधिकार है।
      • यह निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक मूल तत्त्व है कि राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं और भारत ने भी अन्य देशों की तरह विदेशी एवं राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों के अनुपालन में अपने हितों पर बल दिया है।
  • यथार्थवादी कूटनीति: आज के आत्मविश्वास से परिपूर्ण भारत के पास वैश्विक फलक पर अपनी नई आवाज़ है जिसकी जड़ें घरेलू वास्तविकताओं एवं सभ्यतागत लोकाचार में निहित होने के साथ ही स्वयं के प्रमुख हितों की खोज में गहराई से जमी हैं।
    • जैसा कि भारतीय विदेश मंत्री ने ‘रायसीना डायलॉग’ में टिप्पणी की थी कि ‘‘विश्व को खुश करने की कोशिश करने के बजाय ‘हम कौन हैं’ के आधार पर विश्व से संलग्न होना बेहतर है।’’ भारत अपनी पहचान और प्राथमिकताओं को लेकर पर्याप्त आत्म-विश्वास रखता है, दुनिया भारत के साथ इसकी शर्तों पर संलग्न होगी।
  • अपने लाभ के लिये शक्ति संतुलन बनाए रखना: चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल को वर्ष 2014 में ही चुनौती दे देने वाली एकमात्र वैश्विक शक्ति होने से लेकर एक मज़बूत सैन्य कार्रवाई के साथ चीनी सैन्य आक्रमण का जवाब देने वाले देश के रूप में भारत ने दृढ़ता का परिचय दिया है।
    • दूसरी ओर, भारत ने किसी औपचारिक गठबंधन में शामिल हुए बिना ही अमेरिका के साथ एक कार्यकरण संबंध का विकास किया है और घरेलू क्षमताओं के निर्माण के लिये पश्चिमी देशों से संलग्नता बढ़ाई है।
      • भारत संलग्नता में अत्यंत व्यावहारिक रहा है और शक्ति के मौजूदा संतुलन का उपयोग अपने लाभ के लिये करने की इच्छा रखता है।
  • बढ़ते आर्थिक संबंध: चूँकि शेष विश्व के साथ भारत की आर्थिक अन्योन्याश्रयता गहरी होती गई है, यह अपने उत्पादों, कच्चे माल के स्रोतों और इसके विस्तारित विदेशी सहायता के संभावित प्राप्तकर्त्ताओं के लिये बाज़ारों के प्रति अधिक चौकस हो गया है।

बहु-संरेखित/बहुपक्षीय दृष्टिकोण: चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता (क्वाड/Quad) से लेकर ब्रिक्स (BRICS) तक, भारत कई समूहों की सदस्यता रखता है।

प्रायः इसे पुरानी शैली की संलग्नता के रूप में देखा जाता है। हालाँकि भारत अपनी प्राथमिकताओं को अधिक प्रत्यक्ष तरीके से अभिव्यक्त और प्रोत्साहित करने लगा है।

हस्तक्षेप और अनुचित हस्तक्षेप: भारत अन्य देशों के आंतरिक मामलों में अनुचित हस्तक्षेप (Iinterference) में विश्वास नहीं करता है।

हालाँकि, यदि किसी देश द्वारा किये गए किसी सायास या निष्प्रयास कार्यकरण में भारत के राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करने की क्षमता है तो भारत त्वरित और समयबद्ध हस्तक्षेप (Intervention) करने में संकोच नहीं करता है।

भारत की विदेश नीति के नैतिक पहलू

पंचशील (Five Virtues): 29 अप्रैल, 1954 को हस्ताक्षरित ‘चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के के बीच व्यापार समझौते’ में पहली बार व्यावहारिक रूप से ‘पंचशील’ के सिद्धांत को अपनाया गया था, जो बाद में विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिये आचरण के आधार के रूप में विकसित हुआ।

ये पाँच सिद्धांत हैं:

एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिये परस्पर सम्मान

परस्पर गैर-आक्रामकता

परस्पर गैर-हस्तक्षेप

समानता और पारस्परिक लाभ

शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व

वसुधैव कुटुम्बकम् (The World is One Family): ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भारतीय दर्शन ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ की अवधारणा को आधार प्रदान करता है।

दूसरे शब्दों में, भारत संपूर्ण विश्व समुदाय को एकल वृहत वैश्विक परिवार के रूप में देखता है, जहाँ इसके सदस्य सद्भाव से रहते हैं, एक साथ कार्य एवं विकास करते हैं और एक दूसरे पर भरोसा करते हैं।

सक्रिय और निष्पक्ष सहायता: भारत जहाँ भी संभव हो, लोकतंत्र को बढ़ावा देने में संकोच नहीं करता है।

  • यह क्षमता निर्माण और लोकतंत्र की संस्थाओं को सशक्त करने में सक्रिय रूप से सहायता प्रदान करने के रूप में किया जाता है, यद्यपि ऐसा संबंधित सरकार की स्पष्ट सहमति से किया जाता है (उदाहरण के लिये अफगानिस्तान)।
  • वैश्विक समस्या समाधान दृष्टिकोण: भारत विश्व व्यापार व्यवस्था, जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, बौद्धिक संपदा अधिकार, वैश्विक शासन, स्वास्थ्य संबंधी खतरे जैसे वैश्विक आयामों के मुद्दों पर वैश्विक बहस एवं वैश्विक सहमति की वकालत करता है।
    • वैक्सीन डिप्लोमेसी’ पहल के तहत भारत ने 60 मिलियन खुराक का निर्यात किया, जिनमें से आधे वाणिज्यिक शर्तों पर और 10 मिलियन अनुदान के रूप में प्रदान किये गए।

भारतीय विदेश नीति के समक्ष विद्यमान वर्तमान चुनौतियाँ

  • रूस-यूक्रेन संघर्ष: यह निश्चित रूप से एक जटिल अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा है जहाँ भारत जैसे देशों के लिये राजनीति और नैतिक अनिवार्यता के बीच एक पक्ष चुनना कठिन कार्य है।
    • रूस भारत का व्यापार भागीदार है जिसे यूरेशियाई क्षेत्र में एक बढ़त प्राप्त है। प्रत्यक्ष रूप से रूस के विरुद्ध जाकर भारत इस क्षेत्र में अपने हितों को खतरे में डाल देगा।
      • जैसा कि यथार्थवादी विवेक की मांग है, भारत रूस-यूक्रेन संघर्ष पर राजनीति के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए सीधे एक नैतिक दृष्टिकोण नहीं अपना सकता।
  • आंतरिक चुनौतियाँ: कोई देश बाह्य विश्व में शक्तिशाली नहीं हो सकता यदि वह घरेलू स्तर पर दुर्बल है।
    • भारत का ‘सॉफ्ट पावर’ तब उपयोगी होगा जब इसे ‘हार्ड पावर’ का समर्थन प्राप्त होगा।
      • भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने बार-बार ज़ोर देते हुए कहा था कि भारत विश्व मंच पर तभी प्रभावी भूमिका निभा सकता है जब वह आंतरिक और बाह्य, दोनों रूप से सशक्त हो।
  • शरणार्थी संकट: वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल का एक पक्षकार नहीं होने के बावजूद भारत विश्व में शरणार्थियों के सबसे बड़े स्थल वाले देशों में से एक रहा है।
    • यहाँ चुनौती मानवाधिकारों और राष्ट्रीय हितों के संरक्षण को संतुलित करने की है। रोहिंग्या संकट के उभार के साथ प्रकट है कि समस्या के दीर्घकालिक समाधान के लिये भारत द्वारा अभी भी बहुत कुछ किया कर सकता है।
    • ये कार्रवाइयाँ मानवाधिकार के मामलों पर भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिति को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी।

आगे की राह

  • पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिये सामूहिक दृष्टिकोण: भारत में वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में अग्रणी भूमिका निभाने की क्षमता है, जो वर्ष 2070 तक ‘नेट ज़ीरो’ तक पहुँचने के लक्ष्य (वर्ष 2021 में आयोजित 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में घोषित) में परिलक्षित होती है।
    • पर्यावरणीय समस्याएँ सामाजिक प्रक्रियाओं से जुड़ी हुई हैं। सामाजिक, आर्थिक और साथ ही पारिस्थितिक स्तर पर संवहनीयता प्राप्त करने की आवश्यकता है जैसा कि सतत् विकास लक्ष्यों में रेखांकित किया गया है।
  • आंतरिक और बाह्य विकास को संतुलित करना: भारत को एक बाह्य वातावरण के निर्माण के लिये प्रयास करना चाहिये जो भारत के समावेशी विकास के अनुकूल हो, ताकि विकास का लाभ देश के निर्धनतम व्यक्ति तक पहुँच सके।
    • यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि वैश्विक मंचों पर भारत की आवाज़ सुनी जाए और भारत आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, निरस्त्रीकरण, वैश्विक शासन से संबद्ध संस्थानों के सुधार जैसे वैश्विक आयामों के मुद्दों पर विश्व के विचार को प्रभावित करने में सक्षम हो।
  • विदेश नीति में नैतिक मूल्यों का प्रवेश कराना: महात्मा गांधी ने कहा है कि सिद्धांत और नैतिकता से रहित राजनीति विनाशकारी होगी। भारत को नैतिक अनुनय के साथ सामूहिक विकास की ओर बढ़ना चाहिये और विश्व में अपने नैतिक नेतृत्व को पुनः प्राप्त करना चाहिये।
  • बुनियादी सिद्धांतों को बनाए रखने के साथ-साथ नीति विकास: हम एक गतिशील दुनिया में रह रहे हैं। इसलिये भारत की विदेश नीति को सक्रिय एवं लचीला होने के साथ ही व्यावहारिक होना होगा ताकि उभरती परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया के लिये इसका त्वरित समायोजन किया जा सके।
    • हालाँकि अपनी विदेश नीति के कार्यान्वयन में भारत हमेशा बुनियादी सिद्धांतों की एक शृंखला का पालन करता है, जिस पर कोई समझौता नहीं किया जाता। ये बुनियादी सिद्धांत हैं:
      • राष्ट्रीय आस्था और मूल्य
      • राष्ट्रीय हित
      • राष्ट्रीय रणनीति
  • वैश्विक एजेंडा को आकार देना: भारत के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में एक ‘अग्रणी शक्ति’ के रूप भूमिका निभा सकने की संभावनाओं का पता लगाना महत्त्वपूर्ण है, जो कि वैश्विक मानदंडों और संस्थागत वास्तुकला को आकार दे सके, न कि इन्हें दूसरों द्वारा आकार दिया जाए और भारत बस अनुपालनकर्त्ता हो।
    • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की आकांक्षा इसी भूमिका से संबद्ध है, जिसके लिये बड़ी संख्या में देशों ने पहले ही समर्थन देने का वादा कर रखा है।
  • विकास के लिये कूटनीति: अपने विकास प्रक्षेपवक्र को बनाए रखने के लिये भारत को पर्याप्त बाह्य आदान/इनपुट की आवश्यकता है।
    • मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट सिटीज़, अवसंरचना विकास, डिजिटल इंडिया, क्लीन इंडिया जैसे हमारे कार्यक्रमों की सफलता के लिये विदेशी भागीदारों, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, वित्तीय सहायता और प्रौद्योगिकीय हस्तांतरण की आवश्यकता है।
      • भारत की विदेश नीति को विकास के लिये कूटनीति के इस पहलू पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये जहाँ आर्थिक कूटनीति को राजनीतिक कूटनीति के साथ एकीकृत किया जाए।

अभ्यास प्रश्न: भारत को नैतिक मूल्यों के साथ राष्ट्रीय हित को संतुलित करने के लिये अपनी अंतर्राष्ट्रीय संलग्नता की रूपरेखा को एक आकार देना चाहिये। टिप्पणी कीजिये।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)

मेन्स

Q. "उत्पीड़ित और हाशिए पर पड़े राष्ट्रों के नेता के रूप में भारत की लंबे समय से चली आ रही छवि उभरती वैश्विक व्यवस्था में अपनी नई भूमिका के कारण गायब हो गई है।" स्पष्ट कीजिये। (2019)

Q. शीत युद्ध के बाद के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में भारत की लुक ईस्ट नीति के आर्थिक और रणनीतिक आयामों का मूल्यांकन कीजिये। (2016)

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