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शासन व्यवस्था

सफल लोकतंत्र हेतु निष्पक्ष स्पीकर की आवश्यकता

  • 20 Aug 2021
  • 12 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 19/08/2021 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘How can we guarantee the Speaker's impartiality?’’ लेख पर आधारित है। इसमें लोकसभा अध्यक्ष की भूमिकाओं एवं उत्तरदायित्वों और अन्य संबद्ध विषयों पर चर्चा की गई है।

हमारे संसदीय लोकतंत्र में लोकसभा अध्यक्ष का पद केंद्रीय स्थान रखता है। लोकसभा अध्यक्ष के पद के बारे में कहा गया है कि जहाँ संसद के सदस्य अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं अध्यक्ष सदन की पूर्ण अधिकारिता का प्रतिनिधित्व करता है।  

वह उस सदन की गरिमा और शक्ति का प्रतीक होता है जिसकी वह अध्यक्षता करता है। इसलिये, यह अपेक्षा की जाती है कि इस उच्च गरिमा वाले पद का धारक ऐसा व्यक्ति हो जो सदन का प्रतिनिधित्व उसके सभी कार्यों और दायित्वों में कर सके।

हालाँकि, पिछले दो दशकों से संसद की कार्यवाही को अवरुद्ध करना प्रत्येक विपक्षी दल की मानक कार्रवाई प्रक्रिया ही बन गई है। भारतीय संसद—साथ ही राज्य विधानसभाओं—के कार्य-संचालन में अध्यक्ष के पद का दुरूपयोग विधान-मंडलों के स्तर और उत्पादकता में गिरावट के कुछ प्रमुख कारणों में से एक है।

अध्यक्ष की स्वतंत्रता का महत्त्व

  • सर्वोच्च अधिकारिता: लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा में सर्वोच्च अधिकारिता रखता है। उसमें व्यापक शक्तियाँ निहित हैं और यह उसका प्राथमिक कर्त्तव्य है कि वह सदन के कार्यकलाप का व्यवस्थित संचालन सुनिश्चित करे। 
  • राष्ट्र की स्वतंत्रता का प्रतीक: जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा अध्यक्ष को "राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक" माना था और इस बात पर बल दिया था कि अध्यक्ष "उत्कृष्ट क्षमता और निष्पक्षता" वाले व्यक्ति हों। 
  • सदन के संरक्षक: एम.एन कौल और एस.एल शकधर ने लोकसभा अध्यक्ष को सदन की अंतरात्मा और उसका संरक्षक माना था।  
    • लोकसभा के सर्वप्रमुख प्रवक्ता के रूप में लोकसभा अध्यक्ष सदन की सामूहिक अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।

अध्यक्ष की भूमिकाएँ और उत्तरदायित्व

  • यह तय करना अध्यक्ष का कर्त्तव्य है कि किन मुद्दों पर लोकसभा में चर्चा की जाएगी।
  • व्याख्या: वह सदन के अंदर भारतीय संविधान के प्रावधानों, लोकसभा के प्रक्रिया और कार्य-संचालन संबंधी नियम और संसदीय पूर्व-दृष्टांतों का अंतिम व्याख्याकार होता है। 
  • दोनों सदनों की संयुक्त बैठक: वह संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करता है।   
  • स्थगन प्रस्ताव: उसके पास स्थगन प्रस्ताव पेश करने या ध्यानाकर्षण नोटिस स्वीकार करने की अनुमति देने (यदि कोई विषय तात्कालिक सार्वजनिक महत्त्व का है) का पूर्ण विवेकाधिकार है। 
  • धन विधेयक: वह तय करता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, और इस विषय में उसका निर्णय अंतिम होता है।  
  • सदस्यों की निरर्हता: दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के अंतर्गत दल-बदल के आधार पर सदस्यों की निरर्हता का निर्णय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा ही लिया जाता है।   
  • समितियों का गठन: सदन की समितियाँ लोकसभा अध्यक्ष द्वारा गठित की जाती हैं और उसके समग्र निर्देशन में कार्य करती हैं।  
    • सभी संसदीय समितियों के अध्यक्ष उसके द्वारा मनोनीत किये जाते हैं।

लोकसभा में अध्यक्ष पद से संबद्ध समस्याएँ

  • सत्तारूढ़ दल के प्रति पक्षधरता: सर्वोच्च न्यायालय ने दल-बदल विरोधी कानून पर कई निर्णय दिये हैं। इन सभी निर्णयों में एक सामान्य बात यह प्रकट होती है कि विभिन्न राज्य विधानसभाओं में अध्यक्ष पक्षपातपूर्ण आचरण करते रहे हैं।      
    • पिछले एक दशक से अधिक समय से एक निष्पक्ष और स्वतंत्र अध्यक्ष का उदाहरण पाना कठिन हो गया है।
  • राष्ट्रीय हित पर दलीय हित हावी: अध्यक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल का सक्रिय सदस्य बने रहने के वर्तमान आचरण का अनिवार्य परिणाम यह है कि वह ऐसे किसी भी बहस या चर्चा की अनुमति देने से इनकार कर देता है जो भले राष्ट्रीय हित में आवश्यक हो लेकिन सत्तारूढ़ दल को असहज या लज्जित कर सकता है। 
  • संसदीय कार्यवाही में बढ़ते अवरोध: अध्यक्ष का पक्षपातपूर्ण आचरण और विपक्षी दलों की माँगों के प्रति उसकी उदासीनता कई बार विपक्ष द्वारा संसद को लगातार बाधित किये जाने का कारण बनती है।  
    • वस्तुतः एक अध्यक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल का सक्रिय सदस्य बना रहना ऐसा है, जैसे बल्लेबाजी करते पक्ष ने अपना स्वयं का अंपायर नियुक्त कर रखा हो।
    • संसद की कार्यवाही में लगातार व्यवधान से न केवल सदन की प्रतिष्ठा को व्यापक हानि पहुँचती है, बल्कि विधानमंडल का प्राथमिक कार्य—गंभीर बहस और विचार-विमर्श के साथ देश के सुशासन के लिये विधि निर्माण का उत्तरदायित्व भी बाधित होता है।
  • विधेयकों को समितियों के पास नहीं भेजा जाना: संसदीय कार्यवाही के अवरुद्ध होने के कारण महत्त्वपूर्ण विधेयकों को कई सत्रों में बिना किसी चर्चा के ही पारित कर दिये जाने की स्थिति बनी है।  
    • वर्ष 2021 के मानसून सत्र में एक भी विधेयक किसी भी प्रवर समिति को नहीं भेजा गया।

आगे की राह 

लोकसभा अध्यक्ष में दो आवश्यक गुण अवश्य होने चाहिये: स्वतंत्रता और निष्पक्षता। 

  • अध्यक्ष की स्वतंत्रता: शक्तियों का पृथक्करण हमारे संविधान की मूल संरचना का अंग है। यदि संसद की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है तो हमारे लोकतंत्र की नींव उत्तरोत्तर कमज़ोर होती जाएगी।  
    • यह सर्वथा उचित होगा है कि प्रत्येक विधानमंडल का अध्यक्ष स्वतंत्रता और निष्पक्षता के अपने संवैधानिक दायित्व के निर्वहन हेतु अपने संबद्ध दल की सदस्यता से त्यागपत्र दे दे।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 1967 में नीलम संजीव रेड्डी ने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होने पर अपनी पार्टी से त्यागपत्र दे दिया था।
  • सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन: वास्तव में हमारे पास मौजूद विकल्प द्विआधारी है—या तो संसद और राज्य विधानसभाओं को क्रमिक गिरावट का शिकार होने दें अध्यक्ष को वास्तविक रूप से स्वतंत्र बनाएँ और प्रत्येक विधानमंडल को सार्वजनिक महत्त्व के विषयों पर विचार-विमर्श करने तथा पर्याप्त बहस के बाद कानून पारित करने का संवैधानिक कार्य करने का अवसर दें।  
  • विचार-विमर्श की निरंतरता सुनिश्चित करने का अध्यक्ष का उत्तरदायित्व: वर्ष 1951 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने (दिल्ली विधि अधिनियम मामले में) निर्णय दिया कि आवश्यक विधायी कार्यों को नौकरशाही को नहीं सौंपा जा सकता है; विधि-निर्माण विधायिका के अधिकार क्षेत्र में बने रहना चाहिये।  
    • अध्यक्ष को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि विधायिका की लगातार बैठकें हों और विधेयकों पर यथोचित बहस हो।
  • लोकसभा के पहले अध्यक्ष के अनुसार जी.वी. मावलंकर ने अपेक्षा प्रकट की थी कि कोई व्यक्ति जब अध्यक्ष चुन लिया जाता है, तब उसे दलगत प्रतिबद्धताओं और राजनीति से ऊपर उठ जाना चाहिये। उसे या तो सभी सदस्यों से संबंधित होना चाहिये या किसी से भी संबंधित नहीं होना चाहिये। 
    • उसे दल या व्यक्ति से परे एक समान रूप से न्यायिक बने रहना चाहिये।

निष्कर्ष

भारत में लोकसभा अध्यक्ष का कार्यालय एक जीवंत और गतिशील संस्था है जो अपने कार्यों के निष्पादन में संसद की वास्तविक आवश्यकताओं और समस्याओं से संबोधित होता है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे लोकतांत्रिक ढाँचे में इस पद के महत्त्व को चिह्नित किया था और इसी महत्त्व को समझते हुए उन्होंने देश की शासन योजना में इसे सर्वप्रमुख और प्रतिष्ठित पदों में से एक के रूप में स्थापित किया था।

अभ्यास प्रश्न: लोकसभा अध्यक्ष देश की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक होता है। इसलिये उत्कृष्ट योग्यता और निष्पक्षता से युक्त व्यक्ति द्वारा ही इस पद को धारण किया जाना चाहिये। चर्चा कीजिये।

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