वैश्विक ऊर्जा संक्रमण | 10 Dec 2020
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में वैश्विक स्तर पर ऊर्जा क्षेत्र में हो रहे व्यापक बदलाव और इसकी चुनौतियों के साथ इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में ‘तेल निर्यातक देशों के संगठन’ (Organization of Petrolium Exporting Countries- OPEC) अर्थात् ओपेक द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन की सीमा बढ़ाने की अनुमति देने का निर्णय लिया गया है। कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ने से वैश्विक बाज़ार में इसके मूल्य में गिरावट आएगी जिससे भारत जैसे तेल आयातक देशों को प्रत्यक्ष रूप से लाभ होगा।
हालाँकि वर्तमान में वैश्विक ऊर्जा प्रणाली जीवश्म ईंधनों पर अपनी पूर्ण निर्भरता को कम करने के साथ स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ते हुए एक बड़े परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है। वर्तमान में कम कार्बन उत्सर्जन की तरफ यह झुकाव वैश्विक ऊर्जा से जुड़ी भू-राजनीति को भी प्रभावित करता है। ऐसे में भारत की ऊर्जा कूटनीति केवल सस्ते तेल तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिये बल्कि यह स्वच्छ पर्यावरण की प्रतिबद्धताओं का पालन करते हुए भारत की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने वाली दीर्घकालिक नीतियों पर केंद्रित होनी चाहिये।
अतः वर्तमान में द्विपक्षीय ऊर्जा कूटनीति इस परिवर्तन के भू-राजनीतिक परिणामों का प्रबंधन करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण विदेश नीति उपकरण है।
वैश्विक ऊर्जा भू-राजनीति संक्रमण:
- कच्चा तेल और वैश्विक भू-राजनीति: कोयले से हटते हुए खनिज तेल को ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में अपनाए जाने के साथ ही मध्य-पूर्व वैश्विक भू-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरा और इसके साथ ही खनिज तेल राष्ट्रीय सुरक्षा का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया।
- 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के बाद से तेल संसाधनों पर नियंत्रण ने कई युद्धों में केंद्रीय भूमिका निभाई है, जैसे कि ईरान-इराक युद्ध (1980-1988), खाड़ी युद्ध (1990-1991) आदि।
- ग्लोबल वार्मिंग और वैश्विक चिंता: लगभग आधी से अधिक सदी से तेल और प्राकृतिक गैस ऊर्जा की भू-राजनीति के केंद्र में रहे हैं। हालाँकि तेल और गैस पर इसी अत्यधिक निर्भरता ने ही ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्या को हमारे समक्ष ला खड़ा किया है।
- क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) और पेरिस समझौते (Paris Agreement) पर हस्ताक्षर किये जाने जैसी कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं ने ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती से निपटने हेतु वैश्विक प्रयासों में महत्त्वपूर्ण कदमों/पहलों को चिह्नित किया।
- कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण: पेरिस समझौते के तहत देशों ने पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम किये जाने हेतु कार्य करने के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
- यह विश्व के कई हिस्सों में पहले से ही लागू डीकार्बोनाइज़ेशन के प्रयासों को मज़बूती प्रदान करता है।
- इन दोनों तत्त्वों के समायोजन ने वैश्विक ऊर्जा प्रणाली को नया रूप देना शुरू कर दिया है। इसे भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance- ISA) की स्थापना के उदाहरण के रूप देखा जा सकता है।
वैश्विक ऊर्जा संक्रमण की चुनौतियाँ:
- तेल उत्पादक देशों की चुनौतियाँ: वर्तमान में वैश्विक ऊर्जा संक्रमण ने तेल और गैस उत्पादक देशों के लिये एक नई चुनौती प्रस्तुत की है, विशेष रूप से अर्थव्यवस्था में विविधता की कमी वाले ऐसे देश जो अपने खर्च के लिये तेल से प्राप्त राजस्व पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं।
- यदि वैश्विक ऊर्जा संक्रमण अनुमान से कहीं अधिक तेज़ी से होता है और इस दौरान ये देश अपने आपको इस परिवर्तन के लिये तैयार नहीं कर पाते हैं, तो इसके परिणाम सामाजिक-आर्थिक के साथ भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से भी गंभीर हो सकते हैं।
- ऊर्जा एकीकरण से उत्पन्न खतरे: अक्षय ऊर्जा के प्रसार से विद्युतीकरण बढ़ेगा और विद्युत के क्षेत्र में सीमा पार व्यापार को भी बढ़ावा मिलेगा। उदाहरण के लिये भारत द्वारा ‘एक सूर्य एक विश्व एक ग्रिड प्रणाली (One Sun One World One Grid- OSOWOG) की स्थापना का आह्वान।
- विद्युत ग्रिडों का डिजिटलीकरण भी कुछ नए सुरक्षा जोखिम प्रस्तुत करता है। क्योंकि आतंकवादी समूह या शत्रु देश आर्थिक और सामाजिक नुकसान पहुँचाने हेतु महत्त्वपूर्ण सूचनाओं को प्राप्त करने या उन्हें प्रभावित करने के लिये इस प्रणाली को हैक करने का प्रयास कर सकते हैं।
- दुर्लभ-मृदा तत्त्वों की आपूर्ति: पवन और सौर ऊर्जा संसाधनों के साथ इलेक्ट्रिक कारों का तीव्र विकास उनके उत्पादन के लिये आवश्यक दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति की सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को भी बढ़ाता है।
- दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति में चीन का वर्चस्व और अमेरिका तथा चीन के बीच मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव दोबारा वर्ष 1978 के कोबाल्ट संकट जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
कोबाल्ट संकट:
- कोबाल्ट संकट वर्ष 1978 में विश्व खनिज निष्कर्षण का केंद्र माने जाने वाले मध्य अफ्रीकी ज़ाईर गणराज्य के कटंगा प्रांत में संघर्ष की शुरुआत के बाद प्रारंभ हुआ।
- इस संकट के कारण वैश्विक स्तर पर कोबाल्ट की आपूर्ति में भारी कमी देखी गई, जिससे अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसका मूल्य काफी बढ़ गया।
भारत के लिये आगे की राह:
- भारत की ऊर्जा कूटनीति के लिये सबसे बड़ी चुनौती बगैर तेल निर्भरता वाले भविष्य के लिये इस प्रकार ज़मीन तैयार करने की होगी कि तेल बाज़ार इस व्यापक पारगमन में बाधक न होकर सहायक की भूमिका निभाए।
- इस संदर्भ में भारत ऊर्जा कूटनीति को जीवाश्म ईंधन और नवीकरणीय ऊर्जा दोनों ही पक्षों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- जीवाश्म ईंधन के संदर्भ में: अमेरिका और चीन के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है। ऐसे में सरकार को कच्चे तेल की आपूर्ति के लिये सबसे पसंदीदा" व्यापार की शर्तों को सुरक्षित करने हेतु एक बड़ा बाज़ार होने की अपनी ताकत का लाभ उठाना चाहिये।
- इस संदर्भ में सरकार देश में तेल की मांग में हो रही वृद्धि और विकसित देशों में तेल की मांग में गिरावट का हवाला देते हुए प्रमुख तेल तथा गैस उत्पादक देशों के साथ दीर्घकालिक समझौते लागू करने के लिये बातचीत कर सकती है।
- नवीकरणीय ऊर्जा के संदर्भ में: नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों की मांग में वृद्धि को देखते हुए भारत को इस क्षेत्र में विश्व स्तरीय और प्रतिस्पर्द्धी विनिर्माण प्रणालियों का विकास करना चाहिये।
- इस संदर्भ में भारत को सबसे पहले कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों को बंद करने तथा उनका स्थान लेने के लिये अभूतपूर्व पैमाने और गति से सौर एवं पवन ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना करनी होगी।
- दूसरा, भारत को इस नवीकरणीय ऊर्जा को उद्योग और परिवहन जैसे अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों तक पहुँचाना होगा, जिनमें परंपरागत रूप से विद्युत का उपयोग नहीं किया जाता है।
- तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत को मूल रूप से अधिक ऊर्जा कुशल और आत्मनिर्भर बनना होगा।
निष्कर्ष:
वैश्विक ऊर्जा संक्रमण से बहुत सी चुनौतियाँ और नई संभावनाएँ उभर कर सामने आई हैं। हालाँकि यह परिवर्तन भारत के विकास के लिये एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है, क्योंकि वर्तमान में भारत अपने बड़े विदेशी मुद्रा भंडार के माध्यम से वैश्विक बाज़ार में तेल की बढ़ती कीमतों की चुनौती से उबरते हुए प्राकृतिक गैस और नवीकरणीय ऊर्जा से जुड़ी अपनी नवीन योजनाओं के लिये आवश्यक बड़े निवेश को आकर्षित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।
अभ्यास प्रश्न: ‘21वीं शताब्दी के द्विपक्षीय संबंधों को बनाए रखने के लिये ऊर्जा कूटनीति एक महत्त्वपूर्ण विदेश नीति उपकरण है।’ चर्चा कीजिये।