भारत में बाढ़ प्रबंधन | 17 Jul 2024

यह एडिटोरियल 16/07/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Behind Assam’s annual flood woes, a history of unintended consequences” लेख पर आधारित है। इसमें चर्चा की गई है कि हिमालय और मानसून से प्रभावित असम के भूगोल ने किस प्रकार लगातार बाढ़ की समस्या को जन्म दिया है। इसमें बाढ़ प्रबंधन में जटिल मानव-प्रकृति संबंधों को भी उजागर किया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

मानसून, हिमनद झील के फटने से बाढ़, चक्रवात मिचौंग, वनों की कटाई, मुल्लापेरियार बाँध, केन-बेतवा लिंकिंग परियोजना, भाखड़ा नांगल बाँध, केंद्रीय जल आयोग (CWS), नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मिष्टी पहल। 

मेन्स के लिये:

भारत में समग्र आपदा प्रबंधन में सरकारी नीतियों और हस्तक्षेपों का महत्व।

असम में हाल ही में आई बाढ़ ने भारत में बार-बार सामने आने वाले इस वार्षिक संकट की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जिसकी गंभीरता प्राकृतिक एवं मानव-निर्मित दोनों कारकों से और भी बढ़ जाती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे संगठनों द्वारा बाढ़ को आमतौर पर प्राकृतिक आपदाओं के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। लेकिन यह वर्गीकरण बाढ़ से होने वाली क्षति में योगदान देने वाले मानवीय कारकों की अनदेखी करता है।

भारी मानसूनी वर्षा बाढ़ की इन घटनाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है, लेकिन अकुशल आपदा प्रबंधन एवं अपर्याप्त तैयारियाँ इनके प्रभावों को और बढ़ा देती हैं। भारत की भौगोलिक भेद्यता के कारण हर साल भारी क्षति होती है, जिसे देखते हुए एक एकीकृत बाढ़ प्रबंधन प्रणाली (Integrated Flood Management System) की आवश्यकता अनुभव की जाती है।

वार्षिक वर्ष में मानसून की 75% हिस्सेदारी के साथ, देश बाढ़ और सूखे की दोहरी चुनौती का सामना करता है। मानसून प्रत्येक वर्ष इसी विनाशकारी पैटर्न का पालन करता है, जिससे जान-माल की सुरक्षा के लिये व्यापक बाढ़ जोखिम शमन रणनीतियों की तत्काल आवश्यकता महसूस होती है।

भारत में बाढ़ के प्रमुख कारण :

  • प्राकृतिक कारण:
    • भारी वर्षा: भारत में बाढ़ का प्राथमिक कारण भारी वर्षा है, जो विशेष रूप से जून से सितंबर माह तक मानसून के मौसम के दौरान होती है।
      • तीव्र एवं अनियमित वर्षा मृदा की अवशोषण क्षमता को पार कर सकती है या जल निकासी प्रणालियों को प्रभावित कर सकती है, जिससे बाढ़ आ सकती है।
    • ग्लेशियरों का पिघलना: बढ़ते तापमान के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में हिम और ग्लेशियरों के पिघलने से नदी एवं जलधाराओं में जल स्तर बढ़ सकता है, जिसके परिणामस्वरूप निचले इलाकों में बाढ़ आ सकती है।
    • चक्रवात और तूफान: चक्रवात और तूफान तेज़ हवाओं और भारी वर्षा का कारण बन सकते हैं, जिससे विशेष रूप से तटीय क्षेत्र प्रभावित होते हैं।
      • उदाहरण के लिये, दिसंबर 2023 में आए चक्रवात मिचांग के कारण भारी वर्षा और बाढ़ की स्थिति बनी, जिससे 13 लोगों की मौत हो गई।
    • नदी का अतिप्रवाह: बाढ़ तब भी आ सकती है जब नदी का जल स्तर ऊपर की ओर से अत्यधिक प्रवाह या नीचे की ओर कम बहिर्वाह के कारण अपनी क्षमता से अधिक हो जाता है।
      • वर्ष 2023 में हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में भारी वर्षा के कारण यमुना नदी उफान पर आ गई, जिससे दिल्ली में बैराज पर दबाव बढ़ा और नदी के किनारे के कई इलाकों में बाढ़ आ गई।
  • मानव-निर्मित कारण:
    • अनियोजित एवं तीव्र शहरीकरण : अनियोजित शहरीकरण और शहरी केंद्रों के बाहरी इलाकों में मलिन बस्तियों का विकास भारी वर्षा की स्थिति में बाढ़ की तबाही को बढ़ाता है।
      • वर्ष 2020 में हैदराबाद और 2015 में चेन्नई में आई बाढ़ में हज़ारों घर जलमग्न हो गए थे, जो आगाह करता है कि किस तरह तीव्र शहरीकरण शहरों को शहरी बाढ़ के प्रति संवेदनशील बना रहा है।
      • इसका एक अन्य उदाहरण गुरुग्राम है, जहाँ हर वर्ष मानसून के मौसम में भारी बाढ़ की समस्या उत्पन्न होती है।
    • कंक्रीटीकरण: डामर और कंक्रीट के उपयोग के कारण तेज़ी से हो रहे कंक्रीटीकरण (Concretisation) से अभेद्य सतहें बढ़ गई हैं, जो वर्षा जल को अवशोषित नहीं कर पाती हैं और इसके परिणामस्वरूप सतही अपवाह में वृद्धि होती है।
      • परिणामस्वरूप, भारी वर्षा के दौरान जल का तेज़ी से जमाव हो जाता है, जिससे जल निकासी प्रणालियाँ प्रभावित होती हैं और स्थानीय स्तर पर बाढ़ आ जाती है।
    • जल संसाधनों पर अतिक्रमण: नदी तलों और बाढ़ के मैदानों में निर्माण एवं विकास गतिविधियों और झीलों एवं तालाबों के अतिक्रमण से जल का प्राकृतिक प्रवाह गंभीर रूप से बाधित हो सकता है।
      • उदाहरण के लिये, भोपाल और चेन्नई जैसे शहरों में झीलों में अतिक्रमण गतिविधियों के कारण बाढ़ की घटनाएँ बढ़ गई हैं।
    • वनों की कटाई: वर्षा जल के अवशोषण और भूजल पुनर्भरण को सुगम बनाने में वन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
      • वनों की कटाई से मृदा की जलधारण क्षमता कम हो जाती है, जिससे सतही अपवाह बढ़ जाता है। यह अतिरिक्त जल को नदियों और जलधाराओं में ले जाता है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
    • बाँध और बैराज: बाँध और बैराज जल प्रवाह को प्रबंधित करने तथा जलविद्युत शक्ति उत्पन्न करने के लिये बनाए जाते हैं, लेकिन भारी वर्षा और अकुशल प्रबंधित जलाशयों से गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है।
      • उदाहरण के लिये, तमिलनाडु और केरल सीमा क्षेत्र में मुल्लापेरियार बाँध में जल के कथित अकुशल प्रबंधन के कारण वर्ष 2018 में बाढ़ आई।
    • असंवहनीय खनन अभ्यास: खनन कार्य भूदृश्य को बाधित कर सकते हैं, जिससे मृदा क्षरण हो सकता है तथा निकटवर्ती नदियों में अवसादन हो सकता है।
      • यह अवसाद संचय नदियों की वहन क्षमता को कम कर देता है, जबकि खनन गतिविधियाँ प्राकृतिक जल निकासी पैटर्न को बदल सकती हैं, जिससे जल जमाव का खतरा बढ़ जाता है।
    • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन में योगदान देने वाली मानवीय गतिविधियाँ दुनिया भर में मौसम के पैटर्न को बदल रही हैं। तापमान में वृद्धि से अधिक तीव्र और अप्रत्याशित वर्षा की स्थिति बन सकती है, जिससे बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है।
    • खराब जल निकासी व्यवस्था: कई शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गाद एवं ठोस अपशिष्ट के कारण जल निकासी अवसंरचना भारी वर्षा से निपटने के लिये अनुपयुक्त हो गई है।
      • खराब डिज़ाइन या रखरखाव से ग्रस्त जल निकासी प्रणालियाँ मध्यम वर्षा के दौरान भी गंभीर बाढ़ का कारण बन सकती हैं।
      • उदाहरण के लिये, अनुपयुक्त शहरी नियोजन और अप्रभावी जल निकासी समाधान दिल्ली जैसे शहरों में जलभराव का कारण बनते हैं।

भारत बाढ़ के प्रति कितना संवेदनशील है?

  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के अनुसार, बाढ़ के प्रति संवेदनशील क्षेत्र मुख्यतः गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन के किनारे स्थित हैं जो उत्तरी राज्यों हिमाचल प्रदेश और पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार तक तथा पूर्वोत्तर में असम और अरुणाचल प्रदेश तक विस्तृत हैं।
  • ओडिशा और आंध्र प्रदेश के तटीय राज्य, तेलंगाना और गुजरात के कुछ हिस्से भी प्रतिवर्ष बाढ़ का सामना करते हैं।
  • पुराना अनुमान:
    • वर्तमान सीमांकन वर्ष 1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (RBA) द्वारा किये गए अनुमानों पर आधारित है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग का गठन चार दशक पहले किया गया था।
    • RBA के अनुसार, भारत का लगभग 12.19% भौगोलिक क्षेत्र बाढ़ की दृष्टि से संवेदनशील है।
  • जलवायु परिवर्तन:
    • भारत पिछले चार दशकों से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहा है।
    • विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के अनुसार, वर्ष 1950 से 2015 के बीच मध्य भारत में चरम वर्षा की घटनाओं में तीन गुना वृद्धि हुई है।
    • केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की जलवायु परिवर्तन एवं भारत (Climate Change and India) रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2070 से 2100 के बीच बढ़ते तापमान के कारण भारत में बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि होगी।
  • वर्षा की वृद्धि:
    • हाल के वर्षों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की अवधि भी देश के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर बाढ़ का कारण बन रही है।
    • वर्ष 2020 में भारत के 13 राज्यों के 256 ज़िलों में अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ की सूचना दर्ज की गई।

बाढ़ प्रबंधन में बाँधों और तटबंधों की क्या भूमिका है?

  • बाढ़ प्रबंधन में बाँधों की भूमिका:
    • यद्यपि बाँधों को प्रायः नदी की बाढ़ को नियंत्रित करने के समाधान के रूप में देखा जाता है, लेकिन कुछ स्थितियों में वे बाढ़ आपदाओं की उत्पत्ति में भी योगदान कर सकते हैं।
    • नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की एक रिपोर्ट के अनुसार केवल 7% बाँधों के पास आपातकालीन कार्य योजनाएँ हैं, जो आपदा प्रबंधन पूर्व-तैयारी या तत्परता के मामले में गंभीर अंतराल को उजागर करती है।
    • अपर्याप्त प्रबंधन: बाढ़ के खतरों पर विचार किये बिना बाँधों को पूर्ण क्षमता तक भर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अचानक जल छोड़ने की आवश्यकता उत्पन्न होती है, जिससे निचले इलाकों में बाढ़ की स्थिति और भी बदतर हो सकती है।
    • अकुशल संचालन का प्रभाव: यदि बाँधों को बाढ़ नियंत्रण को प्राथमिकता देते हुए संचालित नहीं किया जाता है तो वे अनजाने में ही निचले क्षेत्रों में बाढ़ की गंभीरता को बढ़ा सकते हैं।
    • उदाहरण: भारत में उत्तराखंड (जून 2013), चेन्नई (दिसंबर 2015) और केरल में बाढ़ (2018) जैसी बाढ़ की कई घटनाओं को अनुपयुक्त बाँध प्रबंधन से जोड़कर देखा गया है। दूसरी ओर, ब्रह्मपुत्र बेसिन में विभिन्न बाँध परियोजनाओं ने पूरे क्षेत्र में बाढ़ के खतरे को बढ़ाने में योगदान दिया है।
  • बाढ़ प्रबंधन में तटबंधों की भूमिका:
    • बिहार और असम जैसे कई राज्यों में बाढ़ शमन नीतियाँ मुख्य रूप से तटबंधों के निर्माण पर निर्भर रही हैं।
    • बाढ़ की बढ़ती तीव्रता: बाढ़ की बढ़ती तीव्रता ने इन तटबंधों को काफी हद तक अप्रभावी बना दिया है।
    • विश्लेषण का अभाव: तटबंधों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने के लिये कोई व्यापक लागत-लाभ विश्लेषण नहीं किया गया है।
    • संदिग्ध सुरक्षा: तटबंधों के पास रहने वाले समुदाय तटबंधों के टूटने के भय में रहते हैं, जबकि तटबंधों के भीतर रहने वाले लोग अचानक आने वाली बाढ़ (फ्लैश फ्लड) और अन्य प्रकार की बाढ़ का सामना करते हैं।
    • बाढ़ की गंभीरता में वृद्धि: दरारों के कारण प्राकृतिक नदी बाढ़ की तुलना में अधिक भीषण बाढ़ आती है, जिसके परिणामस्वरूप विनाशकारी जल सोपान (water cascades) बनते हैं।
    • गाद और मलबे का संचय: तटबंधों के कारण नदी तल में गाद और मलबा जमा हो जाता है, जिससे जल स्तर बढ़ जाता है और तटबंध टूटने का खतरा बढ़ जाता है।
    • नदी की गतिशीलता में परिवर्तन: तटबंधों के निर्माण से नदी के प्रवाह पैटर्न में परिवर्तन होता है, जिससे इनके टूटने पर भीषण बाढ़ आती है।
    • तटबंध पर विशेषज्ञों की राय:
      • जी.आर. गर्ग समिति (1951) ने कहा कि यद्यपि तटबंध कम गाद स्तर वाली स्थिर नदियों के लिये लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन वे उन नदियों के लिये लाभ की बजाय अधिक हानि पहुँचा सकते हैं जिनमें गाद अधिक मात्रा में होती है, क्योंकि इससे प्राकृतिक भूमि-निर्माण प्रक्रिया और जल निकासी प्रणालियाँ बाधित हो सकती हैं।
      • राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1976-1980) ने निष्कर्ष दिया कि असम में तटबंधों ने नदी के तल में मोटी गाद एवं रेत जमा कर बाढ़ की समस्या को और बढ़ा दिया है। परिणामस्वरूप, नदी का तल आस-पास की भूमि से ऊपर उठ गया, जिससे ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा हो गई है जो तटबंधों के टूटने पर भयंकर तबाही का कारण बन सकती है।

भारत में बाढ़ प्रबंधन के लिये समाधान :

संरचनात्मक उपाय:

  • नदियों को जोड़ने का कार्यक्रम (InterLinking of Rivers programme- ILR): 
    • इसका उद्देश्य देश की विभिन्न अधिशेष जल वाली नदियों को कम जल वाली नदियों के साथ जोड़ना है ताकि अधिशेष क्षेत्रों से अतिरिक्त जल को कमी वाले क्षेत्रों में लाया जा सके।
    • उदाहरण के लिये, केन-बेतवा लिंकिंग परियोजना राष्ट्रीय सरकार की प्रमुख परियोजना है और बुंदेलखंड क्षेत्र की जल सुरक्षा एवं सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • जलाशय:
    • भंडारण जलाशय वे कृत्रिम संरचनाएँ हैं जिन्हें उच्च प्रवाह अवधि के दौरान अतिरिक्त जल को संग्रहित करने और निम्न प्रवाह अवधि के दौरान उसे छोड़ने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
    • वे अनुप्रवाह क्षेत्र में जल की मात्रा एवं वेग को कम कर बाढ़ की चरमता को नियंत्रित करते हैं; वे सिंचाई, बिजली उत्पादन और आपूर्ति के लिये जल का संरक्षण भी करते हैं।
    • उदाहरण: सतलुज नदी पर बने भाखड़ा-नांगल बाँध की भंडारण क्षमता लगभग 9621 मिलियन क्यूबिक मीटर (MCM) है, जो बाढ़ नियंत्रण, बिजली उत्पादन और सिंचाई में सहायक है।
  • तटीय बाढ़ का प्रबंधन:
    • वर्ष 2004 की सुनामी ने लोगों को यह अनुभव कराया कि मैंग्रोव तूफानी लहरों और तटीय बाढ़ जैसी तटवर्ती आपदाओं के विरुद्ध एक विश्वसनीय सुरक्षा कवच के रूप में कार्य कर सकते हैं।
    • केंद्रीय बजट 2023-24 में मैंग्रोव वृक्षारोपण के लिये मिष्टी पहल (MISHTI Initiative) लॉन्च की गई थी।
  • तटबंध:
    • तटबंध ऐसी ऊँची संरचनाएँ हैं जो जल प्रवाह को चैनलों के भीतर या नदी के किनारों पर सीमित रखती हैं।
    • वे निकटवर्ती क्षेत्रों को बाढ़ से बचाते हैं; नदी की वहन क्षमता बढ़ाते हैं; अतिरिक्त जल की दिशा मोड़ते हैं; पहुँच मार्ग और मनोरंजक क्षेत्र प्रदान करते हैं।
  • मोड़ या डायवर्ज़न:
    • डायवर्ज़न (Diversions) ऐसी संरचनाएँ हैं जो जल प्रवाह को एक चैनल से दूसरे चैनल की ओर पुनर्निर्देशित करती हैं तथा अतिरिक्त जल को कम संवेदनशील क्षेत्रों या जलाशयों में स्थानांतरित कर बाढ़ को कम करती हैं; ये अन्य क्षेत्रों को सिंचाई जल या पेयजल उपलब्ध कराते हैं।
    • उदाहरण: इंदिरा गांधी नहर परियोजना सतलुज और व्यास नदियों के जल को राजस्थान में थार मरुस्थल की र मोड़ती है और सिंचाई एवं पेयजल आवश्यकताओं को पूरा करती है।

गैर-संरचनात्मक उपाय:

  • बाढ़ पूर्वानुमान और पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ: ये ऐसी प्रणालियाँ हैं जो मौसम विज्ञान और जल विज्ञान संबंधी आँकड़ों का उपयोग कर आसन्न बाढ़ का पूर्वानुमान प्रदान करती हैं।
    • वे लोगों और संपत्तियों को समय पर निकाल सकने में सहायता करती हैं; साथ ही, जलाशय प्रबंधन और बाढ़ राहत समन्वय में मदद प्रदान करती हैं।
    • उदाहरण: केंद्रीय जल आयोग (CWC) पूर्वानुमान स्टेशनों का एक नेटवर्क संचालित करता है जो दैनिक बाढ़ चेतावनी जारी करता है।
  • ‘फ्लड प्लेन ज़ोनिंग’: यह एक विनियामक उपाय है जो बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में संवेदनशीलता के आधार पर भूमि उपयोग को नियंत्रित करता है और आर्द्रभूमियों एवं वनों जैसे प्राकृतिक बाढ़ अवरोधकों के संरक्षण को बढ़ावा देता है।
    • उदाहरण: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के दिशा-निर्देश बाढ़-प्रवण भूमि को चार क्षेत्रों में वर्गीकृत करते हैं: निषिद्ध, नियंत्रित, विनियमित और मुक्त।
  • बाढ़ बीमा: यह बाढ़ से संबंधित क्षति के लिये वित्तीय क्षतिपूर्ति के रूप में प्रीमियम का भुगतान करने वाले व्यक्तियों या समूहों को प्रदान किया जाता है, जिससे सरकारी राहत बोझ कम हो सकता है; यह ज़ोखिम शमनकारी उपायों को प्रोत्साहित करता है और बाढ़ जोखिम आकलन के लिये एक डेटाबेस तैयार करता है।
    • उदाहरण: प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) बाढ़ और अन्य आपदाओं से होने वाली हानि के लिये फसल बीमा प्रदान करती है।
  • बाढ़ जागरूकता: बाढ़ के प्रति जागरूकता और शिक्षा संबंधी पहलें पूर्व-तैयारी और प्रतिक्रिया क्षमताओं में योगदान करती हैं; ये समुदायों में सुरक्षा और प्रत्यास्थता की संस्कृति को बढ़ावा देती हैं।
    • उदाहरण: NDMA भारत में बाढ़ प्रबंधन पर केंद्रित जागरूकता अभियान और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करता है।

निष्कर्ष:

बाढ़ से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये, यह चिह्नित करना महत्त्वपूर्ण है कि प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों कारक इस लगातार जारी संकट में योगदान करते हैं। जबकि प्राकृतिक कारण अपरिहार्य हैं, शहरी अतिक्रमण एवं अकुशल अवसंरचना प्रबंधन जैसे मानवीय कृत्यों (जो प्रभाव को गहन बनाते हैं) को प्रबंधित किया जा सकता है। उन्नत पूर्वानुमान, संवहनीय अभ्यासों और सामुदायिक जागरूकता को संलग्न करने वाली एक समग्र रणनीति को अपनाकर, हम बाढ़ की चुनौतियों के लिये बेहतर तरीके से तैयार हो सकते हैं और उस पर उपयुक्त प्रतिक्रिया दे सकते हैं।

अभ्यास प्रश्न: प्राकृतिक और मानव निर्मित कारकों के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए, भारत में बाढ़ के प्रमुख कारणों की चर्चा कीजिये। मौजूदा बाढ़ प्रबंधन रणनीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करते हुए, देश के संवेदनशील क्षेत्रों में बाढ़ के प्रति प्रत्यास्थता बढ़ाने के लिये व्यापक समाधान सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न. ऐसा संदेह है कि ऑस्ट्रेलिया में हाल ही में आई बाढ़ का कारण ला-नीना था। ला-नीना, अल-नीनो से किस प्रकार भिन्न है? (2011)

  1. ला-नीना में विषुवत रेखीय हिंद महासागर का तापमान आमतौर पर कम होता है, जबकि अल-नीनो में विषुवत रेखीय प्रशांत महासागर का तापमान असामान्य रूप से अधिक हो जाता है।   
  2. अल-नीनो का भारत के दक्षिण-पश्चिम मानसून पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है लेकिन ला-नीना का मानसूनी जलवायु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (D)


मेन्स:

प्रश्न. नदियों को आपस में जोड़ना सूखा, बाढ़ और बाधित जल-परिवहन जैसी बहु-आयामी अंतर्संबंधित समस्याओं का व्यवहार्य समाधान दे सकता है। आलोचनात्मक परिक्षण कीजिये। (250 शब्द) 2020

प्रश्न. भारत में दशलक्षीय नगरों जिनमें हैदराबाद एवं पुणे जैसे स्मार्ट सिटीज़ भी सम्मिलित हैं, में व्यापक बाढ़ के कारण बताइए। स्थायी निराकरण के उपाय भी सुझाइए। (250 शब्दों में उत्तर दीजिये) 2020