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भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में महिला श्रम बल

  • 22 Jan 2021
  • 12 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारत में महिला श्रम बल भागीदारी में गिरावट संबंधी बाधाओं, समाधान व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

भारत अभी भी महिलाओं को आर्थिक क्षेत्र में समान अवसर प्रदान करने के लिये निरंतर संघर्ष कर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2019 में COVID-19 महामारी से पहले भारत में महिला श्रम बल की भागीदारी 23.5% थी। 

COVID-19 महामारी ने इस स्थिति को और अधिक खराब किया है। इस महामारी ने महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित किया है क्योंकि  पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएँ असंगठित क्षेत्र या उन क्षेत्रों में कार्य करती हैं जिन पर इस महामारी का प्रभाव सबसे अधिक देखने को मिला है या वे घर की प्राथमिक देखभाल के लिये उत्तरदायी हैं और इस महामारी ने उनके लिये उपलब्ध अवसरों को सीमित किया है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनः गति प्रदान करने के लिये सरकार और नागरिक दोनों के साझा मज़बूत प्रयास की आवश्यकता होगी, ऐसे में महिलाएँ इस आर्थिक सुधार में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। भारत में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी में बाधा बनने वाले और काफी समय से लंबित मुद्दों का समाधान किये जाने की आवश्यकता है।

महिला श्रम बल भागीदारी में प्रमुख बाधाएँ:   

  • सामाजिक रूढ़िवादिता: भारत में प्रचलित सामाजिक मानदंडों के तहत महिलाओं से परिवार और बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी लेने की अपेक्षा की जाती है। यह रुढ़िवादिता महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी में वृद्धि करने के मार्ग में एक प्रमुख बाधा है।
    • इसके कारण महिलाएँ कार्य के लिये समय निकाल पाने हेतु लगातार संघर्ष करती रहती हैं।
  • डिजिटल डिवाइड: वर्ष 2019 में भारत के कुल इंटरनेट उपभोक्ताओं में 67% पुरुष और मात्र 33% महिलाएँ थीं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में यह अंतर और भी अधिक है।
    • यह विभाजन महिलाओं की प्रगति के लिये आवश्यक शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय सेवाओं तक पहुँचने अथवा उन गतिविधियों या क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने में बाधा बन सकता है, जो तेज़ी से डिजिटलीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। 
  • तकनीकी व्यवधान: वर्तमान में महिलाएँ जिन अधिकांश प्रशासनिक और डेटा-प्रोसेसिंग भूमिकाओं पर कार्यरत हैं, उन नौकरियों के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता और ऑटोमेशन जैसी अन्य कई प्रौद्योगिकियों के आने से खतरा उत्पन्न होने लगा है।   
    • जैसे-जैसे नियमित नौकरियाँ स्वचालित होती जाती हैं, इसका एक प्रभाव महिलाओं पर दबाव की वृद्धि के रूप में देखने को मिलेगा और वे उच्च बेरोज़गारी दर का अनुभव/सामना करेंगी।
  • लिंग आधारित डेटा का अभाव:  वैश्विक स्तर पर लिंग आधारित डेटा का अभाव और श्रम बाज़ार के चलन से जुड़े डेटा की कमी के कारण इस क्षेत्र में हो रही प्रगति की निगरानी करना कठिन हो जाता है।
    • भारत में भी लड़कियों (Girl Child) से संबंधित डेटा में व्यापक अंतराल उनके जीवन के व्यवस्थित अनुदैर्ध्य मूल्यांकन को बाधित करता है।
  • COVID-19 का प्रभाव:  ILO के अनुमान के अनुसार, COVID-19 महामारी के कारण वैश्विक महिला रोज़गार दर 19% ही रही है जो कि महिलाओं के लिये पुरुषों की तुलना में बेरोज़गारी के जोखिम को बढ़ाता है।
    • कई अनुमानों के अनुसार, भारत में अगस्त 2019 की तुलना में अगस्त 2020 में पुरुषों के सापेक्ष महिलाओं को रोज़गार मिलने की संभावना  9.5% कम थी।
    • विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum- WEF) के वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक (जो महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में मौजूद अंतराल को मापता है) के अनुसार, इस वर्ष भारत 112वें स्थान पर पहुँच गया, क्योंकि लगभग 70 लाख महिलाओं को अपने नौकरी गँवानी पड़ी है।      

आगे की राह: 

‘मैकेंज़ी ग्लोबल इंस्टीट्यूट’ (McKinsey Global Institute) की एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाएँ भी पुरुषों के स्तर पर सामान रूप से भाग लेती हैं, तो यह वर्ष 2025 तक देश की अनुमानित जीडीपी में  60% तक वृद्धि कर सकता है। इसे देखते हुए सभी स्तरों पर सरकारों, नागरिक समाज को लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त उपाय करने चाहिये।

  • पूर्णकालिक बाल देखभाल: एक एकीकृत बाल विकास योजना कुछ सीमित सहायता प्रदान करती है, परंतु यह पूर्णकालिक बाल देखभाल समाधान नहीं है। 
    • हालाँकि ‘स्व-नियोजित महिला संघ’ (Self Employed Women’s Association- SEWA) के "संगिनी केंद्र"  पोषण, स्वास्थ्य और बच्चों की देखभाल सहित 0-5 वर्षीय बच्चों को पूरे दिन बाल देखभाल प्रदान करते हैं।
    • अतः ऐसे केंद्रों को व्यापक रूप से विस्तारित किया जाना चाहिये।
  • डिजिटल विभाजन को कम करना:  इस चुनौती से निपटने के लिये सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच साझेदारी को बढ़ावा देना सबसे प्रभावी उपाय होगा।
    • इस संबंध में किये जाने वाले प्रयासों के तहत फोन और कंप्यूटर की वहनीयता, महिला डिजिटल साक्षरता और इसकी सामाजिक पृष्ठभूमि, महिलाओं तथा लड़कियों के लिये समर्पित अपर्याप्त तकनीकी सामग्री आदि चुनौतियों को संबोधित करने की आवश्यकता होगी।
  • फ्लेक्सिबल वर्किंग: COVID-19 महामारी के कारण दूरस्थ या ‘वर्क फ्रॉम होम’ मोड़ में कार्य करने के अनुभवों ने  कॉर्पोरेट जगत को सिखाया है कि तकनीकों के माध्यम से सभी के लिये निर्बाध कार्य-जीवन एकीकरण संभव है।  
    • वर्तमान में भारतीय कंपनियों द्वारा मातृत्व अवकाश, अनिवार्य पितृत्व अवकाश जैसे प्रयासों के माध्यम से कार्यक्षेत्रों में विविधता और समावेशन में वृद्धि का प्रयास किया जा रहा है परंतु महिलाओं के लिये कार्य करने के विकल्प तथा कार्य के अधिकार के लक्ष्य की पूर्ति कंपनियों द्वारा फ्लेक्सिबल वर्किंग को जारी रखने पर भी निर्भर करेगी। 
  • आर्थिक प्रोत्साहन:  भारत में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में एक ही कार्य के लिये कम वेतन प्राप्त होता है, ऐसे में महिलाओं के लिये आय कर (Income Tax) को कम करते हुए उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सकता है। 
  • महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करना: हालाँकि वर्तमान में महिलाओं के लिये रोज़गार के अवसर विकसित करना एक तात्कालिक ज़रूरत है। परंतु अधिक-से-अधिक महिलाओं को उद्यमी बनने के लिये प्रोत्साहित करना दीर्घकालिक समाधान प्रदान करेगा। 
    • रोज़गार के अवसरों का निर्माण, नवाचार को बढ़ावा देने और स्वास्थ्य तथा शिक्षा में निवेश एवं महिलाओं के बीच उद्यमशीलता को बढ़ावा देकर भारत की अर्थव्यवस्था व  समाज को बदला जा सकता है। 
  • लैंगिक सांख्यिकी को प्राथमिकता देना:यू.एन. वीमेन’ (UN Women) द्वारा वर्ष 2016 में ‘मेकिंग एवरी वुमन एंड गर्ल काउंट’ (Making Every Woman and Girl Count) नामक एक पहल की शुरुआत की गई थी, जिसका उद्देश्य लैंगिक डेटा को प्राथमिकता देने में सहयोग करना, गुणवत्ता और तुलनात्मक लैंगिक आँकड़ों का नियमित प्रकाशन सुनिश्चित करना तथा यह भी सुनिश्चित करना कि यह डेटा सुलभ हो एवं और नीतियों के निर्माण में इसका उपयोग किया जाए। 
    • वर्तमान में भारत में भी इस तरह की पहल को लागू करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:  

विश्व बैंक (World Bank) के अनुसार, ‘यदि किसी देश की आधी आबादी गैर-पारिश्रमिक, कम उत्पादक और गैर-आर्थिक गतिविधियों तक सीमित हो तो ऐसे स्थिति में कोई भी देश न तो विकसित हो सकता है और न ही अपनी पूरी क्षमता को प्राप्त कर सकता है।’ 

ऐसे में एक ऐसा देश जहाँ शिक्षा के मामले में महिलाएँ पुरुषों के बराबर हैं, वहाँ अर्थव्यवस्था में आधी अबादी के सामान रूप से भाग न लेने के तथ्य को नज़रअंदाज़ करने का अर्थ होगा कि हम नवाचार, उद्यमशीलता और उत्पादकता लाभ के मामले में बहुत कुछ खो रहे हैं।

अभ्यास प्रश्न: ‘आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी उनके स्वयं और परिवार के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है।’ इस कथन के संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी की स्थिति और इसकी प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।

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