हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यूरोप की भूमिका | 24 Dec 2020
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत और यूरोपीय देशों के बीच रणनीतिक सहयोग को बढ़ाने की आवश्यकता व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
एशिया में चीन के एक महाशक्ति के रूप में उभरने के साथ ही इसने क्षेत्र के शक्ति संतुलन को भी प्रभावित किया है। हाल में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LOC) पर चीनी सेना के साथ संघर्ष की स्थिति और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की आक्रामकता ने भारत के लिये एक गंभीर भू-रणनीतिक चुनौती खड़ी कर दी है। ऐसे में चीनी आक्रामकता का दृढ़ता से मुकाबला करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय गठबंधनों को मज़बूत करना भारतीय विदेशी एवं सुरक्षा नीति की एक महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता होगी। इस संदर्भ में अमेरिका (USA) भारत के लिये एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा सहयोगी बन गया है। हालाँकि अमेरिकी नीति की राजनीतिक अनिश्चितता से बचने के लिये भारत को रणनीतिक रूप से यूरोपीय शक्तियों के साथ सहयोग (विशेष रूप से हिंद-प्रशांत क्षेत्र के संदर्भ में) को बढ़ाना होगा।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यूरोपीय देशों के साथ सहयोग के हालिया प्रयास:
- हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े हालिया तीन घटनाक्रम यूरोप के प्रति भारत की बदलती रणनीतिक धारणा को रेखांकित करते हैं:
- पहला, हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (Indian Ocean Rim Association - IORA) में फ्राँस की सदस्यता के लिये भारत का समर्थन।
- दूसरा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यूरोप की बड़ी भूमिका के लिये भारत की सहमति। भारत ने हिंद-प्रशांत में एक नए भू-राजनीतिक तंत्र के निर्माण के लिये जर्मनी और नीदरलैंड की इच्छा का स्वागत किया है।
- तीसरा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग भारत और ब्रिटेन के बीच संबंधों में एक महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में भी उभर रहा है।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत-यूरोप सहयोग का महत्त्व:
- बहु-ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था: वर्तमान में भारत द्वारा अमेरिका और चीन के बीच द्विध्रुवीय प्रतिस्पर्द्धा से परे एक बहु-ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था की स्थापना पर कार्य करने की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
- गैर-क्षेत्रीय शक्तियों की भागीदारी का स्वागत: भारत क्षेत्रीय और गैर-क्षेत्रीय कारकों से प्रभावित अपने पूर्व के हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण से स्वयं को अलग कर रहा है।
- उत्तर-औपनिवेशिक मानसिकता से प्रस्थान: भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यूरोपीय देशों के साथ काम करते हुए क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के संदर्भ में उत्तर-औपनिवेशिक काल के मानसिक द्वन्द्वको पीछे छोड़ दिया है।
- द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के बाद शीत युद्ध (Cold War) की द्विध्रुवीय व्यवस्था (पूर्व-पश्चिम आयाम) और उत्तर-दक्षिण ढाँचे (विकासशील बनाम विकसित देश) ने भारत को यूरोप की राजनीतिक स्वायत्तता के बारे में अधिक गहन दृष्टिकोण अपनाने से रोक रखा था।
चुनौतियाँ:
- भिन्न दृष्टिकोणों का समेकन: कई बहुपक्षीय मंचों पर यूरोपीय संघ के एक बड़ी शक्ति होने के बावजूद इसमें शामिल देशों की विदेश नीति के सभी पहलुओं में समन्वय स्थापित करने में कई मतभेद हैं।
- उदाहरण के लिये ब्रेक्ज़िट (Brexit) के बाद यूके (UK) एक स्वतंत्र विदेशी नीति (यूरोपीय संघ के अन्य देशों के प्रभावों से मुक्त) का अनुसरण करते हुए अपने लिये एक नई अंतर्राष्ट्रीय भूमिका गढ़ना चाहता है।
- पूर्व के विवाद: पश्चिमी हिंद-महासागर क्षेत्र में विउपनिवेशीकरण काल से संबंधित फ्राँस और ब्रिटेन के मध्य कुछ विवाद अभी भी बने हुए हैं।
- चीन से सीधा टकराव: क्वाड (QUAD) समूह के तहत विश्व की चार लोकतांत्रिक और महत्त्वपूर्ण शक्तियों के साथ आने तथा उनके द्वारा साझा नौसैनिक अभ्यास (मालाबार नौसैनिक अभ्यास के तहत) को चीन अपनी घेराबंदी के प्रयास के रूप में देखता है।
- इसी प्रकार यूरोपीय देशों का हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शामिल होना, चीनी आक्रामकता में तेज़ी का कारण बन सकता है।
- चीन के साथ यूरोपीय देशों की आर्थिक साझेदारी को देखते हुए इस बात की संभावना बहुत ही कम है कि यूरोप शीघ्र ही हिंद-प्रशांत रणनीति में अपनी शक्ति का विस्तार शुरू कर देगा।
आगे की राह:
- भू-आर्थिक सहयोग: भारत यूरोपीय देशों को सैन्य दृष्टिकोण से न सही परंतु आर्थिक रूप से हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिये प्रेरित कर सकता है।
- भारत हिंद-प्रशांत विमर्श को दिशा देने के लिये राजनीतिक प्रभुत्त्व और अपनी महत्त्वपूर्ण सॉफ्ट पॉवर का लाभ उठाने के अतिरिक्त क्षेत्रीय अवसंरचना के सतत् विकास के लिये बड़े पैमाने पर आर्थिक संसाधन जुटाने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।
- भारत-ईयू व्यापार संधि को अंतिम रूप देना: भारत और यूरोपीय संघ (EU) द्वारा काफी समय से एक मुक्त व्यापार संधि पर चर्चा की जा रही है परंतु यह वर्ष 2007 से ही लंबित है।
- ऐसे में भारत और ईयू के बीच विभिन्न क्षेत्रों में बेहतर समन्वय बनाने के लिये दोनों पक्षों को शीघ्र ही इस मुक्त व्यापार संधि को अंतिम रूप देने पर कार्य करना होगा।
- महत्त्वपूर्ण शक्तियों के साथ सहयोग: वर्ष 2018 की शुरुआत में फ्राँसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन की भारत की यात्रा ने रणनीतिक साझेदारी को फिर से जीवंत करने के लिये एक व्यापक रूपरेखा प्रस्तुत की।
- फ्राँस के साथ भारत की साझेदारी को अब हिंद-प्रशांत के दृष्टिकोण के माध्यम से एक मज़बूत क्षेत्रीय आधार प्राप्त हुआ है।
- साथ ही फ्राँस पश्चिमी हिंद महासागर और दक्षिण प्रशांत महासागर में अपने द्वीपों तथा ऐतिहासिक सैन्य उपस्थिति के माध्यम से चीन के समुद्री विस्तार से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को शीघ्र ही पहचानने में सक्षम होगा।
- इसके अतिरिक्त भारत को अन्य मध्यम शक्तियों को शामिल करने वाले बहुपक्षीय समूहों (जैसे भारत-ऑस्ट्रेलिया-जापान फोरम और फ्राँस व ऑस्ट्रेलिया के साथ त्रिपक्षीय वार्ता आदि) के एक नेटवर्क के माध्यम से अमेरिका के साथ अपनी साझेदारी को अतिरिक्त बल प्रदान करने पर विशेष ध्यान देना होगा।
निष्कर्ष:
यदि संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ सुरक्षा सहयोग में वृद्धि इस दशक में भारतीय विदेश नीति की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बन गई है, तो भारत के लिये यूरोपीय देशों के लिये अपनी रणनीतिक पहल को एकीकृत करना आगामी दशक का एक प्रमुख उद्देश्य होना चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: यूरोपीय देशों के साथ क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग को बढ़ाना वर्तमान में भारत की एक रणनीतिक आवश्यकता बन गया है। टिप्पणी कीजिये।