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सामाजिक न्याय

विकलांगता को समाप्त करना

  • 10 Nov 2022
  • 14 min read

यह एडिटोरियल 08/11/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “On disabled persons, Supreme Court gives a welcome order with problematic observations’’ लेख पर आधारित है। इसमें भारत में दिव्यांगजनों से संबंधित मुद्दों और इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के रुख के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ:

भारत का संविधान दिव्यांगजनों सहित सभी व्यक्तियों की समानता, स्वतंत्रता, न्याय और गरिमा सुनिश्चित करता है तथा सभी के लिये एक समावेशी समाज को अनिवार्य करता है। हालाँकि, दिव्यांगता को मापना एक जटिल परिघटना है क्योंकि अलग-अलग दृष्टिकोणों के कारण अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर दिव्यांगता की परिभाषाएँ व्यापक रूप से भिन्न-भिन्न हैं।

भारत दिव्यांगजनों के अधिकारों पर अभिसमय (Convention on the Rights of Persons with Disabilities) का हस्ताक्षरकर्त्ता है। हालाँकि वर्ष 2020 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने संकेत दिया कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों द्वारा 44% संकेतकों का पालन नहीं किया जाता है।

इसे भारत के संदर्भ में देखें तो न्याय तक पहुँच और समावेशी होने का अधिकार एक चुनौती है क्योंकि भारत में ‘दिव्यांग’ के रूप में वर्गीकृत होने के लिये कठोर शर्तें आरोपित हैं, जिन्हें संबोधित किये जाने की आवश्यकता है।

संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता को कैसे देखता है?

  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत दिव्यांगजनों के अधिकारों पर अभिसमय (CRPD), 2006 की प्रस्तावना में दिव्यांगता को इस रूप में वर्णित किया गया है:
    • ‘‘दिव्यांगता दिव्यांगजनों और व्यवहारगत एवं पर्यावरणीय बाधाओं के बीच अंतःक्रिया उत्पन्न होती है जो अन्य व्यक्तियों के साथ समान आधार पर समाज में उनकी पूर्ण एवं प्रभावी भागीदारी को अवरुद्ध करती है।’’
  • संयुक्त राष्ट्र की यह अभिव्यक्ति दिव्यांगता के चिकित्सा मॉडल से सामाजिक मॉडल की ओर एक संक्रमण को दर्शाती है।

भारत में दिव्यांगता के संबंध में संवैधानिक प्रावधान

  • समता और गरिमा का मूल अधिकार: भारत के संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत सभी मूल अधिकारों के पीछे व्यक्ति की समानता और गरिमा एक मौलिक धारणा है, जो दिव्यांगजनों के अधिकारों की भी रक्षा करती है।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत: भारत के संविधान के अनुच्छेद 41 में घोषणा की गई है कि राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।
    • अनुच्छेद 46 राज्य के लिये यह दायित्व निर्धारित करता है कि वह कमज़ोर वर्गों के लोगों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों की विशेष देखभाल करेगा और सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।
  • विधायी शक्ति: भारतीय संविधान ने केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण करते हुए दिव्यांगता के विषय को राज्य सूची में रखा है।

भारत में दिव्यांगजनों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

  • चिह्नित नहीं करना, विकास से वंचित करना: भारत में दिव्यांगता को चिह्नित करने की जटिलता न केवल हमें मानव विकास के अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर पीछे रखती है, बल्कि किसी व्यक्ति को स्वास्थ्य देखभाल एवं कल्याण तक उनकी पहुँच को सुनिश्चित करने के लिये न्यायपालिका और नौकरशाही तक पहुँच सकने से अवरुद्ध भी करती है।
    • इसके साथ ही, प्रमाणीकरण की एक परत दिव्यांगजनों (PwD), विशेष रूप से मानसिक दिव्यांगजनों को कल्याण के गलियारों तक पहुँचने से वंचित कर देती है क्योंकि उन्हें प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया जाता है।
  • अवसंरचनात्मक पहुँच का अभाव: दिव्यांगजनों द्वारा स्वच्छता, सीढ़ी, रैंप, कैंटीन एवं मनोरंजन कक्ष, अलग वॉश रूम, उद्यान क्षेत्र जैसे बुनियादी ढाँचों के अभाव का सामना करना पड़ता है।
    • इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले युवा प्रतिभाशाली दिव्यांगजनों को रोज़गार अवसरों से वंचित रहना पड़ता है क्योंकि रोज़गार के अवसर प्रायः शहरी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। उन्हें कभी-कभी नौकरी छोड़नी भी पड़ती है क्योंकि परिवहन सुविधाएँ उपयुक्त नहीं होती हैं।
  • समानुभूति के बजाय सहानुभूति का व्यवहार: सहपाठियों/सहकर्मियों और शिक्षकों की असंवेदनशीलता, समावेशी शिक्षा तक पहुँच, अधिकारों का संस्थानीकरण आदि कुछ प्रमुख चिंताएँ हैं जो प्रायः दिव्यांग उम्मीदवारों द्वारा व्यक्त की जाती हैं, जिन्हें किसी तरह स्वीकार तो किया जाता है लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं की जाती है। नतीजतन,दिव्यांगजनों को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
  • समयबद्ध सर्वेक्षण का अभाव और नीति विलंबन: विकलांग जन अधिकार अधिनियम, 2016 दिव्यांग बच्चों की पहचान करने, उनकी विशेष ज़रूरतों और उनकी पूर्ति की स्थिति का पता लगाने के लिये प्रत्येक पाँच वर्ष पर स्कूल जाने वाले बच्चों के सर्वेक्षण का प्रावधान करता है।
    • लेकिन चूँकि प्राथमिक सर्वेक्षण अभी तक नहीं किया गया है, इसलिये अधिनियम के कार्यान्वयन हेतु नीति निर्माण अभी भी पाइपलाइन में है।
  • समावेशी शिक्षा का अभाव: कोविड-19 के कारण लगाए गए लॉकडाउन के दौरान कई दिव्यांग बच्चों को महामारी के प्रकोप का सामना करना पड़ा। जनभागीदारी शून्य होने के कारण, उन्हें अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिये स्क्राइब, सांकेतिक भाषा के दुभाषिए आदि खोजने में संघर्ष करना पड़ा।
    • भले ही स्कूली पाठ्यक्रम को त्वरित रूप से ऑनलाइन मोड में स्थानांतरित कर दिया गया था, समावेशी शिक्षण को हानि उठानी पड़ी। इसने मौजूदा समस्याओं को और कष्टजनक बनाया।
  • रोज़गार सुरक्षा का अभाव: बेरोज़गारी प्रमुख कारकों में से एक है क्योंकि ऐसे प्रतिकूल समय में दिव्यांगजन नौकरी से निकाल दिए जाने के लिये सबसे पहले बलि का बकरा बनाए जाते हैं।
    • कंपनियों द्वारा लागत में कटौती के तरीके अपनाए जाने पर सबसे पहले उन्हें ही उनकी सेवाओं से मुक्त कर दिया जाता है।

आगे की राह

  • बजट निर्माण और योजना में पारदर्शिता: दिव्यांगता प्रतिक्रिया योजना (Disability Response Planning) सभी मंत्रालयों के बजट का अंग हो।
    • तदनुसार, शासन का नीतिगत प्रतिमान वंचित परिस्थितियों में रह रहे लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने और उन्हें विकास के हर क्षेत्र में समान अवसर प्रदान करने की दिशा में सक्रिय हो।
  • भारतीय सांकेतिक भाषा को चिह्नित करना: ऐसे सभी आधिकारिक संचार में ISL (Indian Sign Language) दुभाषिए को अनिवार्य किया जाना चाहिये जहाँ दिव्यांग संलग्न हों।
    • इसके अलावा,भौतिक डिज़ाइन के साथ-साथ सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) में दिव्यांगों के लिये सुलभ कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • अधिगम के लिये सार्वभौमिक डिज़ाइन: स्कूलों में पाठ के योजना निर्माण और उसके वितरण में बच्चे के तंत्रिका-मनोवैज्ञानिक, संज्ञानात्मक एवं भावनात्मक प्रोफाइल आदि सभी स्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
    • यूनेस्को ने दिव्यांग शिक्षार्थियों पर कोविड-19 के प्रभाव को समझने के संबंध में अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि:
      • ‘अधिगम के लिये सार्वभौमिक डिज़ाइन’ (Universal Design for Learning) दृष्टिकोण का उपयोग इन स्थितियों को संबोधित करने, अधिगम सामग्री विकसित करने और दूरस्थ शिक्षा की समावेशिता को बढ़ाने का एक तरीका हो सकता है।
  • सामाजिक दिव्यांगता से निपटना: दिव्यांगता को समाज में एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है, जिसमें सुधार की आवश्यकता है। निःशक्तता और कुछ नहीं बल्कि अंगों से क्षीण होने के बजाय लोगों के मन की अक्षमता है।
    • समस्या तब उत्पन्न होती है जब समाज दिव्यांगजनों को एक दायित्व या ‘चैरिटी’ के एक मामले के रूप में देखता है।
    • ‘स्पेशल किड्स’ शब्द की पूरी अवधारणा ही त्रुटिपूर्ण है। कोई भी दिव्यांग व्यक्ति असाधारण रूप से व्यवहार किये जाने की इच्छा नहीं रखता है। हमें बस उनकी बुनियादी ज़रूरतों के प्रति संवेदनशीलता के निर्माण की आवश्यकता है।
    • इस प्रकार, उनके अधिकार को एक अनिवार्य कदम के रूप में मान्यता दी जानी चाहिये न कि वह दूसरों की सद्भावना पर निर्भर हो।
  • एक पार-विषयक दृष्टिकोण (Transdisciplinary Approach) अपनाना: हमें विभिन्न स्तरों पर जागरूकता और क्षमता निर्माण करने की आवश्यकता है।
    • पारिवारिक स्तर पर जागरूकता, सामुदायिक स्तर पर संवेदनशीलता और सरकारी फ्रंटलाइन कार्यकर्त्ताओं एवं पेशेवरों के स्तर पर क्षमता की आवश्यकता है।
      • भारत पोलियो और कुष्ठ से लड़ने में सक्षम हुआ क्योंकि हमने ट्रांसडिसिप्लिनरी दृष्टिकोण अपनाया। दिव्यांगता से संबद्ध कलंक को मिटाने के लिये भी इसी तरह के एक ‘ट्रांसडिसिप्लिनरी मॉडल’ की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: चर्चा करें कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 ने भारत में दिव्यांगता से संबद्ध कलंक को मिटाने में किस हद तक योगदान किया है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत लाखों विकलांग व्यक्तियों का घर है। कानून के तहत उन्हें क्या लाभ उपलब्ध हैं? (2011)

  1. सरकारी स्कूलों में 18 साल की उम्र तक मुफ्त स्कूली शिक्षा।
  2. व्यवसाय स्थापित करने के लिए भूमि का अधिमान्य आवंटन।
  3. सार्वजनिक भवनों में रैंप।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(A) केवल 1
(B) केवल 2 और 3
(C) केवल 1 और 3
(D) 1, 2 और 3

उत्तर: (D)

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