भारतीय राजनीति
केंद्र- राज्य विधायी संबंध
- 21 Aug 2020
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भारत का संविधान अपने स्वरूप में संघीय है तथा समस्त शक्तियाँ (विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय) केंद्र एवं राज्यों के मध्य विभाजित हैं।
केंद्र-राज्य के विधायी संबंध-
- संविधान के भाग- XI में अनुच्छेद 245 से 255 तक केन्द्र-राज्य विधायी संबंधों की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनुच्छेद भी इस विषय से संबंधित हैं।
- संविधान के अनुच्छेद 245 में कहा गया है कि इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र अथवा उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधानमंडल उस संपूर्ण राज्य अथवा किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा।
- भारतीय संविधान में केंद्र व राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के रूप में सातवीं अनुसूची में तीन प्रकार की सूचियाँ उपस्थित हैं। प्रथम ‘संघ सूची’ में महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख है जिसमें रक्षा, संचार, विदेश नीति आदि शामिल हैं और जहाँ सिर्फ केंद्र के कानून प्रभावी हैं।
- द्वितीय ‘राज्य सूची’ में राज्य सरकार के पास कानून बनाने की शक्ति है लेकिन मतभेद की स्थिति में राज्य कानून के ऊपर केंद्रीय कानून को वरीयता मिलेगी। इस सूची में 61 विषय (मूलतः 66 विषय) हैं, जैसे- स्थानीय शासन, मत्स्य पालन, सार्वजनिक व्यवस्था आदि।
- तीसरी ‘समवर्ती सूची’ जहाँ केंद्र व राज्य के कानूनों में विरोध नहीं होना चाहिये अन्यथा केंद्र के कानून प्रभावी होंगे। वर्तमान में इसमें 52 विषय (मूलतः 47) हैं, जैसे- आपराधिक कानून प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह एवं तलाक, श्रम कल्याण, बिजली आदि।
- 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के तहत पाँच विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। वे हैं- शिक्षा, वन, नाप-तौल, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, न्याय का प्रशासन।
- संविधान के अनुच्छेद 248 (1) में यह कहा गया है कि संसद को उन सभी विषयों पर कानून बनाने का अनन्य अधिकार है जिनका उल्लेख राज्य व समवर्ती सूची में नहीं है। दूसरे शब्दों में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र सरकार के पास हैं।
- साथ ही संसद को यह शक्ति दी गई है कि वह किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि, करार, अभिसमय को कार्य रूप देने के लिये समूचे देश या उसके किसी भाग के लिये कोई विधि बना सके ( अनुच्छेद 253)।
- अनुच्छेद 250 के अनुसार, यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के संबंध में विधि बनाने की शक्ति संसद की होगी।
- अनुच्छेद 356 के अनुसार, जब राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट पर यह समाधान हो जाए कि किसी राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें राज्य का शासन वैधानिक उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति यह घोषित करेगा कि राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद के प्राधिकार के द्वारा प्रयोग की जाएंगी।
- अनुच्छेद 368 में यह स्पष्ट किया गया है कि संविधान के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए आधे से अधिक राज्यों के विधानमंडलों द्वारा अनुसमर्थन किया जाना आवश्यक है। ये विषय हैं- राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया, संघ की कार्यपालिका शक्ति का क्षेत्र, राज्य की कार्यपालिका शक्ति का क्षेत्र, विधायी शक्ति का वितरण आदि।
- यद्यपि संविधान द्वारा केंद्र तथा राज्यों की विधायी शक्तियों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया गया है लेकिन व्यावहारिक रूप से संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान है जिसके द्वारा केंद्र सरकार राज्य सरकारों की विधायी शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकती है।
- संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार, यदि राज्यसभा अपने उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव करें कि राष्ट्र हित में यह आवश्यक या हितकर है तो संसद राज्य सूची में दिये गए किसी विषय पर कानून बना सकती है।
- किसी विषय विशेष पर विधि निर्माण का अधिकार राज्य विधानपालिका का है अथवा संघ विधानपालिका का, इस पर राज्य और संघ के बीच अथवा राज्यों के बीच मतभेद हो सकता है। निर्णय करने के लिए न्यायालय को यह देखना होगा कि अमुक विषय का सार और सत्त्व सातवीं अनुसूची की कौन सी सूची के अंतर्गत आता है। इसे ‘सार और सत्त्व का सिद्धांत’ या ‘डॉक्ट्रिन ऑफ पीथ एंड सब्सटेंस’ कहा जाता है।
- अनुच्छेद 252 के अनुसार, दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमंडल एक संकल्प पारित करके संसद से अनुरोध कर सकते हैं कि वे राज्य सूची के किसी विषय के बारे में विधियाँ बनाएँ। ऐसी विधियों का विस्तार अन्य राज्यों पर भी किया जा सकता है बशर्ते संबद्ध राज्यों के विधानमंडल इस आशय के संकल्प पारित करें।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन हेतु केवल एक सूची का उल्लेख है, जबकि ऑस्ट्रेलिया के संविधान में भी शक्ति विभाजन की दो सूचियों का उल्लेख है।
उपर्युक्त वर्णित प्रावधान व बिंदु केंद्र-राज्य के मध्य विधायी संबंधों को प्रभावित करते हैं। स्पष्ट है कि परंपरागत संघात्मक सिद्धांत के अनुसरण से अधिक हमारे संविधान निर्माताओं ने देश की एकता एवं अखंडता को प्राथमिकता दी है। इसके अतिरिक्त देश के विकास के लिये केंद्रीय नियंत्रण आवश्यक माना गया है।