डेमोसाइड: कारण और आगे की राह | 02 Aug 2021

यह एडिटोरियल दिनाँक 31/07/2021 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘How does a democracy die?’’ पर आधारित है। इसमें उन कारणों पर विचार किया गया है जो किसी देश में लोकतंत्र के दम तोड़ने का कारण बनते हैं।

वैश्विक सर्वेक्षण हर जगह लोकतंत्र के प्रति भरोसे में कमी और सरकार के भ्रष्टाचारपूर्ण रवैये एवं अक्षमता को लेकर नागरिकों की निराशा में भारी उछाल की बात कर रहे हैं। युवा लोग लोकतंत्र से सबसे कम संतुष्ट हैं और उसी आयु में पिछली पीढ़ियों में व्याप्त रहे असंतोष की तुलना में अधिक असंतुष्ट हैं।

स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट (V-Dem Institute) ने अपनी ‘डेमोक्रेसी रिपोर्ट 2021’ में कहा है कि भारत "एक लोकतंत्र के रूप में अपनी स्थिति लगभग खो चुका है।" इसने भारत को सिएरा लियोन, ग्वाटेमाला और हंगरी जैसे देशों से भी नीचे स्थान दिया है। 

इस संदर्भ में भारत में लोकतंत्र के सामने उपस्थित चुनौतियों और इसके वास्तविक अर्थ को समझना महत्त्वपूर्ण होगा।

लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ

  • लोकतंत्र महज एक बटन दबाकर या बैलेट पेपर को चिह्नित कर अपना प्रतिनिधि चुन सकने के अधिकार तक सीमित नहीं हो सकता। इसका दायरा चुनाव परिणामों और बहुमत के शासन की गणितीय सुनिश्चितता से परे है।
  • यह स्वतंत्र न्यायालयों या स्थानीय सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने के माध्यम से वैध शासन की स्थापना तक सीमित नहीं माना जा सकता।
  • लोकतंत्र जीवन जीने का एक संपूर्ण तरीका है। यह भूख, अपमान और हिंसा से मुक्ति है।  
  • लोकतंत्र हर तरह के मानवीय और गैर-मानवीय अपमान को अस्वीकार करता है। 
  • यह स्त्रियों के प्रति सम्मान, बच्चों के प्रति कोमल व्यवहार और रोज़गार तक पहुँच है जो आराम से रह सकने की संतुष्टि और पर्याप्त प्रतिफल लेकर आता है।    
  • एक स्वस्थ लोकतंत्र में नागरिकों को पशुओं की तरह बसों और ट्रेनों में यात्रा करने, नालों के गंदे पानी से गुजरने या जहरीली हवा में साँस लेने के लिये मज़बूर नहीं किया जाता है।   
  • लोकतंत्र उपयुक्त चिकित्सा देखभाल तक एकसमान पहुँच सुनिश्चित करता है और हाशिये में स्थित लोगों के प्रति सहानुभूति रखता है।  
  • लोकतंत्र इस हठधर्मिता की अस्वीकृति है कि परिदृश्य को बदला नहीं जा सकता क्योंकि वे "नैसर्गिक रूप से" तय हैं।  

लोकतंत्र के दम तोड़ने (Democide) के कारण

  • सरकार की विफलता: सरकार के विफल होने पर झूठी अफवाहों और संदेहों का प्रसार होता है, साथ ही सड़कों पर विरोध प्रदर्शन और अनियंत्रित हिंसा की स्थिति बनती है। इसके अलावा नागरिक अशांति की आशंका प्रबल होती जाती है तथा सशस्त्र बल उत्तेजित हो जाते हैं।  
    • जैसे ही सरकार ढुलमुल रुख दर्शाती है, सेना अशांति को दबाने और नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिये बैरकों से निकल सड़क पर आ जाती है। लोकतंत्र अंतत: उसी कब्र में दफन कर दिया जाता जिसे उसने स्वयं धीरे-धीरे अपने लिये खोदा था।
    • मिस्र (2013), थाईलैंड (2014), म्याँमार और ट्यूनीशिया (2021) की निर्वाचित सरकारों के विरुद्ध सैन्य तख्तापलट ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। 
  • कमज़ोर होती संस्थाएँ: जब न्यायपालिका निंदा, राजनीतिक हस्तक्षेप और राज्य द्वारा उस पर नियंत्रण के प्रति कमज़ोर पड़ती है तब लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक नैतिकता के लिये खतरा पैदा हो जाता है। 
  • सामाजिक आपात स्थिति: जब सामाजिक ताना-बाना कमज़ोर पड़ता है तब लोकतंत्र के लिये खतरा उत्पन्न होता है और लोकतंत्र एक धीमी गति की सामाजिक मृत्यु की ओर उन्मुख होता है।  
    • संविधान द्वारा नागरिकों के लिये न्याय, स्वतंत्रता और समानता के वादे के बीच सामाजिक जीवन में विभाजन तथा बिखराव नागरिकों में कानून के प्रति अविश्वास की भावना पैदा करता है।
  • समाज में असमानता: गरीब और अमीरों के बीच संपत्ति का असंतुलन, दीर्घकालिक हिंसा, अकाल और असमान रूप से संसाधनों का वितरण भी इस नैतिक सिद्धांत का उपहास करते हैं कि लोकतंत्र में लोग एकसमान सामाजिक मूल्यों के नागरिक भागीदार के रूप में रह सकते हैं। 
  • बुनियादी सुविधाओं की अनुपलब्धता: घरेलू हिंसा, बदतर स्वास्थ्य देखभाल, सामाजिक असंतोष की व्यापक भावनाएँ और भोजन की दैनिक कमी एवं आवास का अभाव लोगों की गरिमा को नष्ट करता है। यह लोकतंत्र की भावना और उसके मूलभूत सार को समाप्त कर देता है। 
  • हाशिये पर स्थित लोगों की अनदेखी: नागरिकों के जवाबी हमले की क्षमता, जहाँ वे समृद्ध और शक्तिशाली वर्ग के विरूद्ध लाखों विद्रोहों को जन्म दे सकते हैं, लोकतंत्र में निहित है।  
    • लेकिन क्रूर तथ्य यह है कि सामाजिक तिरस्कार सार्वजनिक मामलों में सक्रिय रुचि लेने और शक्तिशाली वर्ग पर अंकुश रखने तथा उन्हें संतुलित कर सकने की नागरिकों की क्षमता को कमज़ोर करता है।
  • भावना-प्रधान राजनीति (Demagoguery): यहाँ लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को बदतर स्वास्थ्य, कमज़ोर मनोबल और बेरोज़गारी से जीर्ण हुए समाज के कमज़ोर वर्गों द्वारा उत्तरदायी ठहराया जाना बंद हो जाता है। भावनाओं की राजनीति करते नेता अदूरदर्शिता और अयोग्यता प्रदर्शित करते हैं।    
    • वे लापरवाह, मूर्खतापूर्ण और अक्षम निर्णय लेते हैं जो सामाजिक असमानताओं को और मज़बूत बनाते हैं।
    • सरकारी मंत्रालयों, निगमों और सार्वजनिक/निजी परियोजनाओं में सत्ता का उपभोग करते लोग सार्वजनिक उत्तरदायित्व के लोकतांत्रिक नियमों का पालन नहीं करते।

भावना-प्रधान राजनीति (Demagoguery)

यह तार्किक विचार के बजाय आम लोगों की लालसाओं और पूर्वाग्रहों को संपोषित कर उनका समर्थन प्राप्त करने की राजनीतिक गतिविधि या अभ्यास है।  

  • अप्रभावी पुनर्वितरण: कमज़ोरों/वंचितों को पर्याप्त भोजन, आश्रय, सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल की गारंटी देने वाली पुनर्वितरणकारी लोक कल्याणकारी नीतियों (redistributive public welfare policies) के अभाव में नागरिकों के बीच लोकतंत्र का आदर्श कमज़ोर हो जाता है।  
    • लोकतंत्र समृद्ध राजनीतिक शिकारियों द्वारा पहने गए किसी फैंसी मुखौटे सा दिखने लगता है।
    • समाज राज्य के अधीन होता है। लोगों से ईमानदार प्रजा के रूप में व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है अन्यथा उन्हें परिणाम भुगतना होता है।

आगे की राह 

  • संवैधानिक पुनर्जागरण: यह न्यायनिर्णयन के एक कार्य के रूप में "संविधानवाद" के निरंतर सुधार और नवीनीकरण की प्रक्रिया को संदर्भित करता है।    
  • इसमें निम्नलिखित शामिल हैं: 
    • संवैधानिक भावना, दृष्टि और अर्थ के प्रति आदर रखना। 
    • न्यायपालिका द्वारा संविधान की व्याख्या इस तरह से करना जो इसकी लोकतांत्रिक भावना का महिमामंडन करे और संविधान के प्रति एक 'श्रद्धा' को प्रकट करे।
    • सभी के अधिकारों का संरक्षण, जिसका अर्थ है कि लोग वास्तव में संप्रभु हैं और उन्हें केवल 'प्रजा' या ‘अधीन’ (subject) के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये तथा सभी प्रकार की सार्वजनिक शक्तियों को संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये तत्पर होना चाहिये। 
  • संवैधानिक नैतिकता: यह संस्थाओं के अस्तित्व में बने रहने के मानदंडों और व्यवहार की अपेक्षा को निर्दिष्ट करता है जो न केवल संविधान के पाठ की बल्कि उसकी भावना या सार की पूर्ति करे। यह शासी संस्थाओं और प्रतिनिधियों को उत्तरदायी भी बनाता है। 
  • उद्देश्यपूर्ण व्याख्या: यह भारत के लोगों के हितों और संस्थागत अखंडता को बनाये रखने के आलोक में न्यायपालिका द्वारा संविधान की व्याख्या को संदर्भित करता है। 
  • सुशासन: संविधान-संबंधी न्यायिक अभिव्यक्ति और सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों का अंतिम उद्देश्य एक सुशासन प्रणाली को सक्षम बनाना होना चाहिये।
  • आलोचना की सुनवाई: सरकार को अपनी आलोचना सुननी चाहिये, बजाय इसके कि वह इसे सीधे खारिज कर दे। लोकतांत्रिक मूल्यों को कमतर करने के सुझावों पर एक विचारशील और सम्मानजनक प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। 
  • कार्यकारी शक्तियों पर नियंत्रण: प्रेस और न्यायपालिका लोकतंत्र के स्तंभ कहे जाते हैं और इन्हें किसी भी कार्यकारी हस्तक्षेप से स्वतंत्र रखे जाने की आवश्यकता है। 
  • मज़बूत विपक्ष की आवश्यकता: मज़बूत लोकतंत्र के लिये मज़बूत विपक्ष की आवश्यकता होती है। विकल्प के अभाव में  मनमानी शक्ति पर रोक लगाने का चुनाव का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाता है। 
  • सामाजिक समानता: यदि पुनर्वितरण लोक कल्याणकारी नीतियाँ प्रभावी होंगी तो समाज में असमानता कम हो जाएगी। इस प्रकार, सामाजिक एवं आर्थिक समानता और समावेशी विकास बनाए रखना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये।

निष्कर्ष

संवैधानिक लोकतंत्र की प्रणालीबद्धता ने भारत के लोगों को लोकतंत्र के महत्त्व को समझने और उनमें लोकतांत्रिक संवेदनाओं को विकसित करने में मदद की है। इसके साथ ही यह महत्त्वपूर्ण है कि देश के लोगों के भरोसे को बनाए रखने और वास्तविक लोकतंत्र के उद्देश्यों को सुनिश्चित करने के लिये सभी सरकारी अंग सद्भाव और सामंजस्य में कार्य करें।

अभ्यास प्रश्न: 'मानव विकास के लिये लोकतंत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।' इस कथन के आलोक में वर्तमान में लोकतंत्र के समक्ष विद्यमान चुनौतियों की चर्चा कीजिये।