अंतर्राष्ट्रीय संबंध
हिंद-प्रशांत देशों के साथ संबंध आसान नहीं
- 10 Jun 2022
- 14 min read
यह एडिटोरियल 09/06/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Dealing with the Indo-Pacific is not Easy” लेख पर आधारित है। इसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र की प्रमुख भू-राजनीतिक चुनौतियों के बारे में चर्चा की गई है।
हाल के समय में प्रमुख विश्व शक्तियों ने अपना ध्यान संघर्ष के अन्य क्षेत्रों से हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र की ओर स्थानांतरित किया है। इसका सबसे प्रमुख कारण दक्षिण चीन सागर में चीन की आक्रामकता है जहाँ वह स्थापित संयुक्त राष्ट्र अभिसमयों और अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों को धता बताते हुए संपूर्ण समुद्री क्षेत्र पर हावी होने की अपनी मंशा प्रकट कर रहा है।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र का वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य क्षेत्र को अस्थिर करने वाले प्रमुख अड़चनों से भरा हुआ है। भविष्य के गहन एकीकरण हेतु आधार तैयार करने और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत एक अधिकार के रूप में सभी देशों के लिये वैश्विक कल्याण तक एकसमान पहुँच सुनिश्चित करने हेतु साझा मानक स्थापित करने की आवश्यकता है।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हाल की भू-राजनीतिक प्रगति
- अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति: हाल ही में अमेरिकी प्रशासन ने अपनी चिर-प्रतीक्षित हिंद-प्रशांत रणनीति की घोषणा की है जो इस क्षेत्र की चुनौतियों से निपटने के लिये सामूहिक क्षमता के निर्माण पर केंद्रित है।
- इनमें चीन की चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना, अमेरिकी संबंधों को आगे बढ़ाना, भारत के साथ एक ‘प्रमुख रक्षा साझेदारी’ को विकसित करना और क्षेत्र में एक ‘शुद्ध सुरक्षा प्रदाता’ के रूप में भारत की भूमिका का समर्थन करना शामिल है।
- यूरोपीय संघ की हिंद-प्रशांत रणनीति: यूरोपीय संघ (EU) भी हाल ही में एक हिंद-प्रशांत रणनीति लेकर आया है जो व्यापक दृष्टिकोण के साथ अपनी संलग्नता बढ़ाने पर लक्षित है।
- यूरोपीय संघ पहले से ही स्वयं को और हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ‘प्राकृतिक भागीदार क्षेत्रों’ (Natural Partner Regions) के रूप में देखता है।
- यह हिंद महासागर के तटवर्ती राज्यों, आसियान क्षेत्र और प्रशांत द्वीप राज्यों में एक महत्त्वपूर्ण अभिकर्त्ता रहा है।
- AUKUS समूह: सितंबर 2021 में अमेरिका ने हिंद-प्रशांत के लिये एक नई त्रिपक्षीय सुरक्षा साझेदारी की घोषणा की जिसमें ऑस्ट्रेलिया, यू.के. और अमेरिका (AUKUS) शामिल हैं।
- सुरक्षा समूह AUKUS हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करेगा।
- इस समूह के अंतर्गत ऑस्ट्रेलिया के साथ अमेरिकी परमाणु पनडुब्बी प्रौद्योगिकी की साझेदारी एक उल्लेखनीय घटनाक्रम है।
- सुरक्षा समूह AUKUS हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करेगा।
- हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा: इस भू-भाग का लगभग प्रत्येक देश ही चीन की मुखरता और आक्रामकता को चिह्नित करता है।
- चीन से निपटने के लिये अमेरिका ने हाल ही में टोक्यो में आयोजित क्वाड शिखर सम्मेलन में हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा (Indo-Pacific Economic Framework- IPEF) लॉन्च किया ताकि इस क्षेत्र को अपने विकास लक्ष्यों की पूर्ति हेतु बेहतर विकल्प प्रदान किये जा सकें।
- IPEF चार प्रमुख स्तंभों के सुसंयोजन में कार्य करेगा:
- डिजिटल व्यापार के लिये मानक एवं नियम;
- प्रत्यास्थी आपूर्ति शृंखला;
- हरित ऊर्जा प्रतिबद्धताएँ; और
- न्यायसंगत व्यापार
क्यों महत्त्वपूर्ण है हिंद-प्रशांत?
- हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दुनिया की आधी से अधिक आबादी का वास है जहाँ 2 बिलियन से अधिक लोग लोकतांत्रिक शासन में रहते हैं।
- यह क्षेत्र विश्व के आर्थिक उत्पादन में एक तिहाई योगदान करता है जो विश्व के किसी भी अन्य क्षेत्र के योगदान की तुलना में अधिक है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के तीन सबसे महत्त्वपूर्ण सहयोगी- जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया इसी भू-भाग में अवस्थित हैं।
- विश्व का एक तिहाई से अधिक विदेशी व्यापार इसी क्षेत्र में संपन्न होता है।
- दुनिया की कुछ सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, जैसे चीन, भारत, जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, ताइवान, मलेशिया और फिलीपींस हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ही अवस्थित हैं।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मौजूद प्रमुख चुनौतियाँ
- कुछ देशों की आक्रामक नीतियाँ: हिंद-प्रशांत क्षेत्र, विशेष रूप से पूर्वी एशिया, एक दबाव का सामना करता रहा है। दक्षिण कोरिया और जापान को उत्तर कोरिया की ओर से नियमित रूप से परमाणु एवं मिसाइल खतरों का सामना करना पड़ रहा है।
- चीन भी न केवल दक्षिण चीन सागर में अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों को चुनौती देता रहा है, बल्कि सेनकाकू द्वीप को लेकर जापान से संघर्ष रखता है।
- चीन और ताइवान सहित छह देश स्प्रैटली द्वीप समूह को लेकर विवाद में संलग्न हैं, जिसके बारे में अनुमान है कि वहाँ तेल और प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार मौजूद है।
- चीन ने विवादित द्वीपों, समुद्री टापुओं और प्रवाल भित्तियों के कुछ हिस्सों का कठोरता से सैन्यीकरण किया है और वियतनाम एवं फिलीपींस जैसे देश इस होड़ में पीछे नहीं रह जाने को लेकर इच्छा रखते हैं।
- चीन के विरुद्ध कार्रवाई करने की अनिच्छा: इस बात की अपनी सीमा है कि इस क्षेत्र के कौन-से देश चीन विरोधी आर्थिक या रणनीतिक बग्घी पर सवार होना चाहेंगे।
- पूर्व, दक्षिण पूर्व या दक्षिण एशिया के प्रत्येक देश का चीन के साथ अपना एक अलग संबंध है।
- हालाँकि दक्षिण कोरिया और जापान एक प्रबल अमेरिकी सुरक्षा/रणनीतिक साझेदारी का अंग हैं, लेकिन वे चीन के साथ अपनी आर्थिक स्थिति बनाए रखने के इच्छुक होंगे।
- आसियान देशों पर भी यही बात लागू होती है।
- भारत क्वाड का भागीदार होने के बावजूद इस बात को लेकर पर्याप्त सचेत है कि वह इस समूह का एकमात्र देश है जो चीन के साथ भूमि सीमा साझा करता है जो विवादों से घिरा हुआ है।
- IPEF से जुड़े मुद्दे: पहला संकेत यह है कि भले ही IPEF एक अच्छा विचार हो सकता है, लेकिन इस बात को लेकर असंतोष है कि यह ढाँचा व्यापार और टैरिफ संबंधी मुद्दों को संबोधित नहीं करता है।
- इसके साथ ही, चूँकि अमेरिका की पिछली पहलों— ‘ब्लू डॉट नेटवर्क’ और ‘बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड’ (B3W) ने इस क्षेत्र की ढाँचागत आवश्यकताओं की पूर्ति में बहुत कम प्रगति दिखाई, IPEF को विश्वसनीयता की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
हिंद-प्रशांत की स्थिरता के लिये क्या आवश्यक है?
- प्रबल कार्रवाइयों पर विचार: भू-राजनीतिक तनावों की प्रतिक्रिया में देशों ने मुक्त व्यापार एवं निवेश प्रवाह से प्राप्त आर्थिक लाभ की तुलना में प्रत्यास्थता एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के विचारों पर अधिक बल दिया है। आवश्यक है कि वास्तविक रूप में संघर्ष उत्पन्न होने से पहले ही चरम उपायों की ओर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति के प्रति वे अत्यंत सतर्क रहें।
- चाहे वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं से स्वयं को अलग करना हो अथवा ‘रीशोरिंग’ या ‘फ्रेंड-शोरिंग’ की ओर आगे बढ़ना हो अथवा उन देशों से संबंध विच्छेद करना हो जो सहयोगी या मित्र नहीं हैं— ऐसी कार्रवाइयाँ क्षेत्रीय विकास एवं सहयोग के रास्ते बंद कर देंगी, देशों के बीच मतभेद को गहरा करेंगी और वस्तुतः उन संघर्षों को तेज़ ही कर देंगी जिन्हें टाले जाने की आवश्यकता थी।
- अगले दशक में ऐसी घटनाएँ (जैसे विवादित क्षेत्रों को लेकर वृहत अंतर-राज्यीय संघर्ष) सामने आ सकती हैं जिनका इस क्षेत्र पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।
- हिंद महासागर में अपने हितों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिये भारत द्वारा उचित नीतियों और कार्यान्वयनों को अपनाने की आवश्यकता है।
- साझा मानकों की स्थापना: हितधारकों को साझा मानकों की स्थापना पर तात्कालिक ध्यान देना चाहिये जो भविष्य में गहन एकीकरण हेतु आधार का निर्माण कर सकते हैं।
- इन मानकों में श्रम अधिकार, पर्यावरण मानक, बौद्धिक संपदा अधिकारों की संरक्षा और डिजिटल अर्थव्यवस्था को कवर करने वाले नियम शामिल होंगे।
- शांति स्थापना के लिये पहल: इस क्षेत्र के देशों को समुद्र और वायु क्षेत्र में साझा स्थानों के उपयोग के संबंध में एकसमान पहुँच प्राप्त हो और यह पहुँच अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत अधिकार के रूप में प्राप्त हो। इसके लिये अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप नेविगेशन की स्वतंत्रता, अबाधित वाणिज्य और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की आवश्यकता होगी।
- संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता, परामर्श, सुशासन, पारदर्शिता, व्यवहार्यता और स्थिरता का सम्मान करते हुए क्षेत्र में कनेक्टिविटी स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है।
- संयुक्त हिंद-प्रशांत रणनीति: सभी हितधारक देशों के साथ संबंधों को सुदृढ़ करने के लिये विभिन्न देशों द्वारा हिंद-प्रशांत रणनीतियों को स्वयं ही विकसित करना होगा।
- जिन प्रमुख मुद्दों को संबोधित किये जाने की आवश्यकता है, उनमें रक्षा सहयोग में सुधार प्रमुख है ताकि एक-दूसरे की सैन्य क्षमताओं को सुदृढ़ किया जा सके, बाह्य सैन्य खतरे को कम किया जा सके, आर्थिक सहायता को बढ़ावा दिया जा सके और ओज़ोन रिक्तीकरण एवं ग्रीनहाउस उत्सर्जन जैसे चिंताजनक पर्यावरणीय मुद्दों पर विचार किया जा सके।
- अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और ताइवान वे प्रमुख देश होंगे जिन्हें सहयोग बढ़ाने तथा चीन की चुनौती का मुकाबला करने के लिये साथ आने की आवश्यकता होगी।
अभ्यास प्रश्न: “वर्तमान में भारत की भागीदारी रणनीतिक हितों और एक नए सुरक्षा वातावरण के अभिसरण पर निर्मित है। इस रूप में हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति और भूमिका को बढ़ावा देने का अवसर प्रदान कर रहा है।’’ टिप्पणी कीजिये।