चमोली फ्लैश फ्लड | 12 Feb 2021
Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में हिमालयी क्षेत्र में फ्लैश फ्लड की बढ़ती आवृत्ति और इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में उत्तराखंड के चमोली ज़िले में हिमनद टूटने की घटना को मानवीय गतिविधियों के कारण पारिस्थितिकी संतुलन के लिये उत्पन्न हो रहे व्यवधान की एक चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है। इसी प्रकार वर्ष 2013 में भी एक हिमनद झील के टूटने के कारण आए फ्लैश फ्लड (Flash Flood) ने केदारनाथ पवित्र स्थल को तहस-नहस कर दिया था।
विश्व के किसी हिस्से में एक दशक से भी कम समय में एक ही क्षेत्र में ऐसी दो बड़ी आपदाएँ बहुत ही असामान्य प्रतीत होती हैं । वर्तमान में यह बताने हेतु पर्याप्त वैज्ञानिक डेटा उपलब्ध है कि हिमनद पिघलने के कारण गंभीर फ्लैश फ्लड की बढ़ती घटनाओं के लिये जलवायु परिवर्तन उत्तरदायी है। हालाँकि फ्लैश फ्लड के कारण लगातार आपदा की घटनाओं के लिये जलवायु परिवर्तन के अलावा पर्यावरणीय-प्रतिकूल विकास गतिविधियों में आई अचानक तेज़ी भी एक प्रमुख कारक रही है।
जलवायु संकट और फ्लैश फ्लड:
- काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, यद्यपि विश्व के सभी देश तापमान वृद्धि को पेरिस जलवायु समझौते (Paris Climate Agreement) के अनुरूप 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के भीतर रखने में सफल रहते हैं परंतु फिर भी वर्ष 2100 के अंत तक हिंदू-कुश हिमालयी क्षेत्र में हिमनद का 36% हिस्सा समाप्त जाएगा।
- इसी प्रकार भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के आँकड़ों से पता चलता है कि इस सदी के पहले 20 वर्षों में ग्लेशियरों के पिघलने की दर में वृद्धि देखने को मिली है।
- गंगा ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के कारण उत्तर में उत्तराखंड से लेकर दक्षिण में बाँग्लादेश तक फैले गंगा नदी बेसिन में रहने वाले लगभग 600 मिलियन लोगों की आजीविका प्रभावित होगी।
फ्लैश फ्लड्स: एक मानव निर्मित आपदा:
- हिमालय, एक अस्थिर पर्वत प्रणाली:
- हिमालय एक युवा और अस्थिर पर्वत प्रणाली है, यहाँ तक कि इसकी चट्टानों के अभिविन्यास में मामूली बदलाव भी भूस्खलन का कारण बन सकता है।
- इसके बावजूद हिमालय क्षेत्र में निर्माणाधीन बाँधों के लिये उच्च तीव्रता के साथ पत्थर खनन, पहाड़ों में ब्लास्टिंग और संवेदनशील पर्वत प्रणाली में सुरंगों की खुदाई लगातार की जा रही है।
- पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी:
- इसके अतिरिक्त पर्यावरणीय मानदंडों की अनदेखी करते हुए पनबिजली से संबंधित बाँधों और चौड़ी सड़कों के निर्माण के कारण मध्य हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में वन आवरण और स्थानीय पारिस्थितिकी को पहुँच रहे नुकसान की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
- उत्तराखंड के ऊपरी भाग, जो गंगा की सहायक कई छोटी नदी प्रणालियों का उद्गम क्षेत्र है, में पहले से ही 16 बाँध सक्रिय हैं और अन्य 13 बाँध अभी निर्माणाधीन हैं।
- राज्य सरकार ने इन नदियों की जल ऊर्जा क्षमता का दोहन करने के लिये 54 नए बाँध प्रस्तावित किये हैं।
- हाइड्रोपावर, पूर्णरूप से ग्रीन प्रोजेक्ट नहीं: हाइड्रोपावर एक कम उत्सर्जन वाला ऊर्जा स्रोत है, परंतु इनके डिज़ाइन के कारण ये परियोजनाएँ पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं।
- ऐसा इसलिये है क्योंकि विद्युत उत्पादन के लिये नदी के प्रवाह को मोड़ दिया जाता है और यह नदी की पारिस्थितिकी को नष्ट कर देता है।
- बाँध बनाते समय होने वाली ब्लास्टिंग और टनलिंग के कारण पहाड़ के झरने जो कि पीने तथा कृषि के लिये जल उपलब्ध कराते हैं, सूख जाते हैं।
नोट:
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आगे की राह:
- संवेदनशील क्षेत्रों के लिये व्यापक रूपरेखा: हिमालयी क्षेत्र में फ्लैश फ्लड की बढ़ती आवृत्ति को देखते हुए मज़बूत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, अवसंरचना विकास, निर्माण और संवेदनशील क्षेत्रों में खुदाई के लिये एक व्यापक रूपरेखा विकसित की जानी चाहिये।
- हाइड्रोपावर विकल्पों की पुनर्समीक्षा: जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की एक रिपोर्ट में प्रकाशित आकलन के अनुसार, जलवायु संकट ने विश्व भर के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में फ्लैश फ्लड की आवृत्ति और प्रभाव में वृद्धि की है।
- अतः वर्तमान परिस्थिति में चोपड़ा समिति (Chopra Committee) की सिफारिशों का अनुसरण करने की आवश्यकता है, जिसने हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट्स (HEPs) पर ग्लेशियरों के प्रभाव का अध्ययन किया और पैराग्लाइकियल क्षेत्रों (समुद्र तल से 2,200 से 2,500 मीटर के बीच) में HEPs के निर्माण पर आपत्ति जताई।
- इसलिये जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण से पहले उनके लाभ और दुष्प्रभावों की व्यापक समीक्षा की जानी चाहिये।
- इसके अतिरिक्त सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे अन्य विकल्पों को उन्नति के हरित विकास मॉडल के रूप में अपनाया जाना चाहिये।
- एनडीएमए दिशा-निर्देशों का पालन करना: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण या एनडीएमए (NDMA) के दिशा-निर्देशों के अनुसार, किसी भी उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में आवास का निर्माण निषिद्ध होना चाहिये।
- हिमनद झील बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में निर्माण और विकास को प्रतिबंधित करना, बिना किसी लागत के जोखिम को कम करने का एक बहुत ही कुशल साधन है।
- हिमनद झीलों पर शोध: यह समझने के लिये एक विस्तृत परियोजना विश्लेषण किया जाना चाहिये कि उत्तराखंड की लगभग 12,000 हिमनद झीलों में से कितनों की बाढ़ प्रवणता का खतरा है।
- ऐसे शोध से प्राप्त जानकारियों का उपयोग पर्यावरण प्रभाव आकलन और इन क्षेत्रों में विकासात्मक परियोजनाओं से जुड़े निर्णयों के मार्गदर्शन में किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
- चमोली की हालिया हिमनद झील त्रासदी के कारणों का पता आने वाले दिनों में ही चल पाएगा परंतु इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि इस क्षेत्र में परियोजनाओं का विकास अधिक विवेकपूर्ण ढंग से किया गया होता तो इस त्रासदी का प्रभाव बहुत कम होता। नीति निर्माताओं को यह समझना चाहिये कि ‘आज नुकसान पहुँचाना और कल मरम्मत करने की धारणा’ हिमालयी क्षेत्र के स्थायी विकास का विकल्प नहीं हो सकती है।
अभ्यास प्रश्न: देश में फ्लैश फ्लड के मामलों में वृद्धि को देखते हुए उच्च पर्वतीय क्षेत्रों के संदर्भ में देश के विकास मॉडल की पुनर्समीक्षा किये जाने की आवश्यकता है। चर्चा कीजिये।