लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवैधानिक शक्तियों का संतुलन | 19 Apr 2025

यह एडिटोरियल 14/04/2025 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “Tamil Nadu governor case: Judicial overreach, not constitutional interpretation” पर आधारित है। इस लेख में संवैधानिक पदाधिकारियों, विशेष रूप से राष्ट्रपति और राज्यपालों के बीच विकसित होते संबंधों एवं उनकी जिम्मेदारियों और समयसीमाओं को निर्धारित करने में न्यायपालिका की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 200, राष्ट्रपति, रिट याचिकाएँ, अनुच्छेद 143, धन विधेयक, एस.आर. बोम्मई मामला, सरकारिया आयोग, पुंछी आयोग 

मेन्स के लिये:

राज्य विधेयक में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका, राज्यपाल के कार्यालय से संबंधित चिंताएँ, राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय ने संवैधानिक प्रमुखों, राष्ट्रपति और राज्यपालों को ‘उचित समय’ के भीतर विधेयकों पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया है, जिसने शक्तियों के संतुलन पर समयोचित बहस को जन्म दिया है। हालाँकि कई लोगों ने इसे जानबूझकर किये जाने वाले कार्यकारी विलंब के खिलाफ सुधारात्मक कदम के रूप में सराहना की है, लेकिन इस निर्णय ने संवैधानिक पदाधिकारियों के विवेकाधीन क्षेत्र में न्यायिक अतिक्रमण के बारे में चिंता भी जताई है। तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल का मामला सहकारी संघवाद, विधायी प्रक्रियाओं की अखंडता और न्यायिक सक्रियता की सीमाओं के लिये एक लिटमस टेस्ट बन गया है।

राज्य विधेयकों में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या है?

  • मामले की पृष्ठभूमि: तमिलनाडु के राज्यपाल ने 10 विधेयकों पर अपनी स्वीकृति रोक दी, जिससे अनुच्छेद 200 (राज्य विधानमंडल के विधेयकों पर स्वीकृति देने की राज्यपाल की शक्ति) के तहत कार्रवाई में विलंब हुआ। 
    • राज्यपाल द्वारा अनुमति न दिये जाने के बाद तमिलनाडु विधानसभा ने विधेयकों को पुनः पारित कर वापस भेज दिया। राज्यपाल ने अनुमति देने या टिप्पणियों के साथ उन्हें वापस भेजने के बजाय उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया। 
    • राज्य सरकार ने संवैधानिक उल्लंघन और शासन में व्यवधान का हवाला देते हुए इस विलंब को चुनौती दी। 
  • राज्य विधेयकों में राज्यपालों की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा पुनः अधिनियमित विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने को ‘कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण’ बताया। 
    • न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत ‘पूर्ण वीटो’ या ‘पॉकेट वीटो’ की कोई अवधारणा नहीं है तथा यह कहा कि राज्यपाल विधेयकों पर कार्रवाई को अनिश्चित काल तक विलंबित नहीं कर सकते। 
      • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिये बाध्य हैं। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने विधेयकों पर विचार करते समय राज्यपालों के लिये स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित की है, जिसमें एक माह के भीतर स्वीकृति रोकने, राज्य मंत्रिमंडल की सलाह के विरुद्ध कार्य करने पर तीन माह तथा पुनर्विचार के बाद पुनः प्रस्तुत किये गए विधेयकों के लिये एक माह का समय दिया गया है। 
  • राज्य विधेयकों में राष्ट्रपति की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
    • सहमति रोकने का कारण ठोस और विशिष्ट आधार पर होना चाहिये, मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिये। 
    • यदि राष्ट्रपति समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं, तो राज्य न्यायालय से आदेश प्राप्त करने के लिये रिट याचिकाएँ दायर कर सकते हैं।
    • इसके अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 143 के तहत, यदि राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को असंवैधानिक होने के आधार पर सुरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय की राय लेनी चाहिये।  
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति की मंजूरी के लिये कोई विशिष्ट समयसीमा नहीं दी गई है, और इस तरह की विलंबित विधायी प्रक्रियाओं को रोक सकती है, जिससे राज्य विधेयक ‘अनिश्चित और अनिश्चित स्थगित’ हो सकते हैं।
    • इसने इस बात पर बल दिया कि निष्क्रियता सत्ता के प्रयोग में मनमानी न करने के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करती है।
    • समय सीमा: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति अनिश्चित काल तक स्वीकृति में विलंब करके ‘पूर्ण वीटो’ का प्रयोग नहीं कर सकते। निर्णय तीन महीने के भीतर किया जाना चाहिये तथा किसी भी विलंब का कारण बताना चाहिये और राज्य को सूचित करना चाहिये।
      • यद्यपि यह अनिवार्य नहीं है, फिर भी ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का संदर्भ अत्यधिक प्रेरक महत्त्व रखता है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के विपरीत, जिन्हें राज्य विधेयक को वापस भेजे जाने के बाद दोबारा पारित किये जाने पर उसे मंज़ूरी देनी होती है, राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत ऐसा करने के लिये बाध्य नहीं हैं।  
      • ऐसा इसलिये है क्योंकि अनुच्छेद 201 केवल उन विशिष्ट मामलों में लागू होता है जहाँ राज्य के कानून के संभावित राष्ट्रीय निहितार्थ होते हैं। 
    • संदर्भ: सर्वोच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय द्वारा जारी वर्ष 2016 के कार्यालय ज्ञापन का हवाला दिया, जिसमें राष्ट्रपति के लिये आरक्षित राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने के लिये तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की गई थी।  
      • न्यायालय ने सरकारिया आयोग (वर्ष 1988) और पुंछी आयोग (वर्ष 2010) की सिफारिशों को लागू किया, जिनमें आरक्षित विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेने की बात कही गई थी।
    • पुंछी आयोग: किसी राज्य की विधान सभा द्वारा पारित विधेयक के संबंध में राज्यपाल को छह महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिये कि उसे स्वीकृति दी जाए या राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखा जाए। 

राज्य विधेयकों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?

  • अनुच्छेद 200: 
    • जब किसी राज्य की विधान सभा (या विधान परिषद होने पर दोनों सदनों) द्वारा कोई विधेयक पारित कर दिया जाता है, तो उसे अनुमोदन के लिये राज्यपाल के पास भेजा जाना चाहिये।
      • राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं: विधेयक पर अनुमति देना (इसे अनुमोदित करना); अनुमति न देना (इसे अस्वीकार करना); विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये सुरक्षित रखना (इसे अंतिम निर्णय के लिये राष्ट्रपति के पास भेजना)।
    • यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है, तो राज्यपाल विधेयक को विधानमंडल को इस संदेश के साथ वापस भेज सकते हैं कि वे इस पर पुनर्विचार करें या राज्यपाल द्वारा सुझाए गए किसी भी परिवर्तन को प्रस्तुत करें।
      • विधानमंडल द्वारा विधेयक पर पुनर्विचार करने और उसे पुनः पारित करने के बाद (संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के), यदि विधेयक राज्यपाल के पास पुनः भेजा जाता है तो उसे उस पर अपनी सहमति देनी होगी।
    • यदि विधेयक उच्च न्यायालय की शक्तियों को प्रभावित करता हो तो राज्यपाल को उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना चाहिये।
  • अनुच्छेद 201:
    • यदि राज्यपाल राष्ट्रपति के पास कोई विधेयक भेजता है, तो राष्ट्रपति के पास दो विकल्प होते हैं: विधेयक पर अनुमति देना (अनुमोदन करना) या अनुमति न देना (अस्वीकार करना)।
    • यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है, तो राष्ट्रपति विधेयक को राज्यपाल के पास इस संदेश के साथ वापस भेज सकता है कि विधानमंडल इस पर पुनर्विचार करे, जैसा कि राज्यपाल ने अनुच्छेद 200 में किया था।
    • राष्ट्रपति का संदेश प्राप्त होने की तिथि से छह माह के भीतर विधानमंडल को विधेयक पर पुनर्विचार करना होगा।
    • यदि विधानमंडल विधेयक को पुनः पारित कर देता है (परिवर्तनों के साथ या बिना परिवर्तन के), तो विधेयक को अंतिम अनुमोदन के लिये राष्ट्रपति के पास वापस भेज दिया जाता है।

राज्य विधेयकों में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के क्या निहितार्थ हैं?

सकारात्मक प्रभाव:

  • शासन में जवाबदेही को मज़बूत करना:
    • राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्य विधेयकों पर उचित समय के भीतर कार्रवाई करने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश लोकतांत्रिक जवाबदेही को सुदृढ़ करता है। 
      • इससे यह सुनिश्चित होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को अनावश्यक विलंब से परेशानी न हो, जिससे विधायी प्रक्रिया अधिक कुशल बन जाती है।
    • संवैधानिक प्रावधान, विशेषकर अनुच्छेद 200 और 201, विधेयकों पर कार्यकारी निर्णयों के लिये एक संरचना प्रदान करते हैं तथा संवैधानिक पदाधिकारियों के कामकाज़ में पारदर्शिता सुनिश्चित करते हैं।
  • संघीय कार्यढाँचे का संरक्षण:
    • यह सुनिश्चित करके कि राज्यपाल अनिश्चित काल तक सहमति नहीं रोक सकते, सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय संघीय संतुलन की पुष्टि करता है तथा राज्य विधायी कार्यों पर केंद्र के अनुचित प्रभाव डालने की संभावना को कम करता है।
      • यह निर्णय राजनीतिक उद्देश्यों के लिये गवर्नर की शक्तियों के दुरुपयोग पर रोक लगाने का काम कर सकता है।
    • अनुच्छेद 200 में यह प्रावधान है कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को या तो स्वीकृत कर दिया जाएगा या राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा जाएगा, जिससे राज्य विधानसभाओं की स्वायत्तता सुरक्षित रहेगी।
  • विधायी स्वतंत्रता में वृद्धि:
    • यह निर्णय कार्यपालिका (राज्यपाल) के अतिक्रमण को रोकता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को बिना उचित कारण के अवरुद्ध नहीं किया जा सकेगा। 
      • यह शक्तियों के पृथक्करण को कायम रखता है, जो संविधान का एक मुख्य सिद्धांत है (इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण केस मामले, 1975 में मूल संरचना घोषित किया गया) और यह सुनिश्चित करता है कि कार्यपालिका शाखा विधायिका को अनुचित रूप से प्रभावित न करे।
    • कानून बनाने का अधिकार अब अधिक सुरक्षित हो गया है, जिससे राज्य सरकारों को राज्यपाल कार्यालय के अनावश्यक हस्तक्षेप के बिना अपने नीतिगत एजेंडे को क्रियान्वित करने का अधिकार मिल गया है।
  • सुरक्षा के रूप में न्यायिक निगरानी:
    • सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप यह सुनिश्चित करता है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति मनमाने ढंग से कार्य न करें तथा जहाँ आवश्यक हो वहाँ न्यायिक जाँच (परमादेश रिट) उपलब्ध कराता है। 
      • यह कार्यपालिका द्वारा की जाने वाली कार्रवाई की समयबद्धता को स्पष्ट करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि संवैधानिक नैतिकता कायम रहे।
    • अनुच्छेद 200 और 201 को बरकरार रखते हुए, इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि कार्यपालिका को लोकतांत्रिक और संघीय सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिये, तथा रामेश्वर प्रसाद मामले (वर्ष 2006) में सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है कि राज्यपाल की अनुमति रोकने की शक्ति, यदि मनमाने ढंग से प्रयोग की जाती है, तो न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

नकारात्मक प्रभाव:

  • कार्यकारी कार्यों में न्यायिक हस्तक्षेप:
    • राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिये समयसीमा निर्धारित करने में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप को न्यायिक अतिक्रमण के रूप में देखा जा सकता है, जो संभवतः शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन करता है। 
      • निर्दिष्ट समय के भीतर कार्रवाई को अनिवार्य बनाने से, न्यायालय को कार्यकारी और संवैधानिक कार्यों में हस्तक्षेप करने के रूप में देखा जा सकता है, जो मूल रूप से न्यायिक नियंत्रण से परे थे।
      • अनुच्छेद 212 के प्रकाश में, विधायी कार्यवाही न्यायिक जाँच से मुक्त है। चूँकि कानून बनाने में राज्यपाल की भूमिका इस प्रक्रिया का हिस्सा है, इसलिये यह भी इसी तरह संरक्षित है। राज्यपाल की जो भूमिका कानून बनाने की प्रक्रिया में होती है, वह भी संविधान द्वारा सुरक्षित है। इसलिये यदि न्यायपालिका राज्यपाल या राष्ट्रपति को किसी कार्य के लिये समयसीमा तय करने का निर्देश देती है, तो यह ‘न्यायिक अतिक्रमण’(अर्थात् न्यायपालिका का अपनी सीमा से बाहर जाकर दखल देना) माना जा सकता है।
    • आलोचकों का तर्क है कि राज्यपाल का विवेकाधिकार, विशेष रूप से विवादास्पद मुद्दों से जुड़े मामलों में, न्यायिक समयसीमा के अधीन नहीं होना चाहिये, क्योंकि इससे कार्यालय की स्वतंत्रता बाधित हो सकती है।
  • संवैधानिक कार्यालय को कमज़ोर करना:
    • सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने संविधान को प्रभावी ढंग से पुनः लागू किया तथा इसमें वे शर्तें लगा दीं, जिन्हें संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर टाला था। 
    • अनुच्छेद 142 का आह्वान करके, न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिकाओं को न्यायिक जाँच के अधीन कर दिया है, जिससे राष्ट्रपति के खिलाफ रिट जारी करने की अनुमति मिल गई है, जो मूल संवैधानिक संरचना के विपरीत है। 
    • यह निर्णय इन संवैधानिक पदों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को कमज़ोर करता है, जिनका उद्देश्य राजनीतिक दबावों से ऊपर उठकर कार्य करना था।
    • इस निर्णय से राज्यपाल और राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों में न्यायिक हस्तक्षेप का खतरा उत्पन्न हो गया है, जिससे उनकी स्वायत्तता खत्म हो सकती है तथा संविधान में शक्ति संतुलन में बदलाव आ सकता है।
  • शक्ति पृथक्करण को कमज़ोर करना: 
    • सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति पर विधेयकों पर सहमति के लिये निश्चित समयसीमा लागू करके संविधान में प्रभावी संशोधन किया है। यह अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के प्रक्रियात्मक कार्यढाँचे को बदल देता है, जो परंपरागत रूप से इन संवैधानिक कार्यालयों को विवेकाधिकार की अनुमति देता था। 
    • ऐसा करके न्यायालय ने संसद द्वारा निर्धारित मूल प्रक्रियाओं को संशोधित करते हुए अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति का अतिक्रमण किया है।
  • विवाद और समस्या का कारण बनना:
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने विधायी मामलों में न्यायिक निगरानी की शुरुआत की है, जिसके परिणामस्वरूप केंद्र-राज्य विवादों और विवेकाधीन शक्तियों से संबंधित इसी प्रकार के मामलों में वृद्धि हो सकती है, जैसा कि केरल, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना एवं पंजाब जैसे राज्यों में हुआ, जहाँ राज्यपालों ने विधेयकों को अनुमोदन देने में विलंब किया है।
    • इससे पहले से ही बोझ से दबी न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय में 80,000 से अधिक लंबित मामले) पर अतिरिक्त भार पड़ सकता है, जिससे अधिक आवश्यक कानूनी मुद्दों से ध्यान हट सकता है और विधायी कार्यों में न्यायिक हस्तक्षेप के लिये एक मिसाल कायम हो सकती है।

राज्य विधेयकों में राज्यपाल की भूमिका के संबंध में संरचनात्मक उपाय क्या हो सकते हैं?

  • राज्यपालों के लिये महाभियोग प्रक्रिया: वर्तमान में, राज्यपालों को केवल राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है, जो राज्य-स्तरीय जवाबदेही को सीमित करता है। 
    • पुंछी आयोग ने जवाबदेही में सुधार के लिये राज्य स्तर पर महाभियोग प्रक्रिया (यथोचित परिवर्तनों सहित) शुरू करने का सुझाव दिया।
    • इसके अतिरिक्त, बीपी सिंघल बनाम भारत संघ मामले (वर्ष 2010) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि राज्यपाल को हटाने का निर्णय वैध कारणों पर आधारित होना चाहिये, ताकि प्रक्रिया में निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।
  • अनुच्छेद 163 में संशोधन: अनुच्छेद 163 राज्यपालों को विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है, जिससे कभी-कभी राजनीतिक पूर्वाग्रह उत्पन्न हो सकता है। 
    • संशोधन द्वारा यह स्पष्ट किया जा सकता है कि इन शक्तियों का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिये, जो सीधे राष्ट्रीय हित या संवैधानिक अखंडता को प्रभावित करती हों, जिससे दुरुपयोग की गुंजाइश कम हो जाएगी।
  • राज्यपाल के आचरण की आवधिक समीक्षा: न्यायिक आयोगों के माध्यम से आवधिक समीक्षा प्रणाली स्थापित करने से यह आकलन किया जा सकता है कि राज्यपाल अपनी शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करते हैं। 
    • इससे यह सुनिश्चित होगा कि उनके कार्य संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों, राज्य शासन में हस्तक्षेप न्यूनतम हो तथा पारदर्शिता बढ़े।
  • राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिये स्पष्ट दिशानिर्देश: दुरुपयोग से बचने के लिये, राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने में राज्यपाल के विवेक को वस्तुनिष्ठ मानदंडों द्वारा सख्ती से निर्देशित किया जाना चाहिये और न्यायिक समीक्षा के अधीन होना चाहिये, जैसा कि एस.आर. बोम्मई मामले (वर्ष 1994) में  ज़ोर दिया गया था।
    • सरकारिया आयोग ने सिफारिश की थी कि यह अंतिम उपाय होना चाहिये तथा इसका प्रयोग तभी किया जाना चाहिये जब अन्य सभी संवैधानिक उपचार समाप्त हो गए हों।
  • मंत्रिपरिषद की सलाह की प्रधानता:
    • शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले (वर्ष 1974) में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिये, सिवाय उन परिस्थितियों को छोड़कर जहाँ संविधान स्पष्ट रूप से राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा करता है।
    • वर्तमान निर्णय में भी यही रुख दोहराया गया है, जिसमें इस बात पर बल दिया गया है कि राज्यपाल के कार्य निर्वाचित सरकार की सलाह के अनुरूप होने चाहिये, ताकि लोकतांत्रिक शासन और जवाबदेही सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

स्वीकृति प्रक्रिया में राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लोकतांत्रिक जवाबदेही को सुदृढ़ करता है, लेकिन न्यायिक अतिक्रमण एवं शक्तियों के पृथक्करण के संदर्भ में चिंताएँ बढ़ाता है। यद्यपि यह विधायी दक्षता को बढ़ाता है, फिर भी संवैधानिक कार्यालयों की स्वतंत्रता के साथ जवाबदेही को संतुलित करना महत्त्वपूर्ण है।

भविष्य के सुधारों में राज्यपालों के लिये महाभियोग प्रक्रिया शुरू करने, विवेकाधीन शक्तियों के दायरे को स्पष्ट करने और पारदर्शिता और संवैधानिक संतुलन सुनिश्चित करने के लिये समीक्षा तंत्र स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. स्वीकृति प्रक्रिया में राज्यपालों और राष्ट्रपति की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। संवैधानिक कार्यालयों की स्वायत्तता पर इसके प्रभावों पर चर्चा कीजिये और जवाबदेही एवं स्वतंत्रता के बीच संतुलन सुनिश्चित करने के लिये सुधार सुझाइये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स 

प्रश्न 1. क्या उच्चतम न्यायालय का निर्णय (जुलाई 2018) दिल्ली के उप-राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच राजनैतिक कशमकश को निपटा सकता है? परीक्षण कीजिये।  (2018)

प्रश्न 2. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग की आवश्यक शर्तों का विवेचन कीजिये। विधायिका के समक्ष रखे बिना राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों के पुनः प्रख्यापन की वैधता की विवेचना कीजिये।  (2022)