जल संरक्षण: पारंपरिक दृष्टिकोण | 31 May 2019
चर्चा में क्यों?
वर्तमान में जल संकट को देखते हुए भारत को अपने राष्ट्रीय जल आपातकाल से संबंधित विकास मॉडल को पुनः परिभाषित करने की तत्कालिक आवश्यकता है।
- विशेषज्ञों के अनुसार, राष्ट्रीय जल आपातकाल के खतरों का मुकाबला करने के लिये जल संरक्षण की पारंपरिक विधि एकमात्र स्थायी तरीका है।
प्रमुख बिंदु
- भारत में जल संसाधन समुचित मात्रा में उपलब्ध हैं, साथ ही यहाँ पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती है जिसके संरक्षण की पारंपरिक विधि से लोग भलीभाँति परिचित हैं।
- जल को पूजनीय मानकर विभिन्न अनुष्ठानों, सांस्कृतिक प्रथाओं आदि में इसका उपयोग किया जाना एक सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। जो जल के उपयोग संबंधी ज्ञान के आधार पर हमारी पारंपरिक विरासत के मूल्य की पुष्टि करता है।
जल एवं महिलाएँ
- महिलाओं का जल पारिस्थितिकी से विशेष संबंध है।
- आइकॉनिक बुक "आज भी खरे हैं तालाब" जिसमें वर्तमान समय में तालाबों की प्रासंगिकता को स्पष्ट किया गया है, के कवर पेज पर बने टैटू जिसे दिवंगत वाटरमैन अनुपम मिश्रा द्वारा तैयार किया गया था, को 'सीता बावड़ी' कहा जाता है।
- टैटू के केंद्र में इनलेट स्रोत है जिसमें से चारों ओर लहरें फैलती हुई प्रदर्शित हो रही हैं। केंद्र में नाभिक, जो कि ऊर्जा का स्रोत है तथा चार कोनों में पत्थर के फूल उकेरे गए हैं, जो जीवन की आवश्यक सुगंध का प्रतीक हैं।
- महिलाओं द्वारा बड़ी संख्या में निर्मित जल निकायों में कुएँ, टैंक और यहाँ तक कि तालाब भी शामिल हैं, जैसे- पाटन, गुजरात में क्वींस स्टेप-वेल (रानी की वाव) और जोधपुर में रानी और पदम सागर।
- कर्नाटक में यागति और नागामंडला नामक टैंक के निर्माण का भी उल्लेख प्राप्त हुआ है।
- शिमला इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के अंतर्गत महिलाओं और पानी की सामुदायिक संस्कृति का वर्णन किया गया है जिसमें उत्तराखंड में गंगा यात्रा के साथ महिलाएँ ‘गंगा गीत’ के गायन के साथ विशिष्ट नृत्य करती हैं।
जल का सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्त्व
- पानी की शुचिता और स्वच्छता कई क्षेत्रों में विस्तारित है।
- उत्तराखंड में ऐसा माना जाता है कि सभी सिंचाई चैनलों में पानी की आत्मा (मसान) मौजूद है जो फसलों की सुरक्षा के लिये आवश्यक है।
- राजस्थान में मानसून के पहले एक पर्व मनाया जाता है जिसे ‘लसिपा’ कहते हैं। इस पर्व के दौरान गाँव के समस्त लोग एकत्र होकर सभी जल निकायों की सफाई करते हैं, उनकी देखभाल करते हैं। अंततः यह अनुष्ठान एक सामुदायिक दावत के साथ समाप्त होता है।
- इसी तरह गणगौर और अक्खा तीज के त्योहारों के दौरान महिलाएं झीलों और टैंकों को एक साथ मिलकर साफ करती हैं।
भवाई नृत्य
- राजस्थान का भवाई नृत्य जो मुख्यतः शीतला माता को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है, में एक नर्तकी सिर पर कलश लेकर प्रदर्शन करती है, यह पारंपरिक रूप से एक कहानी से संबंधित है।
जल का सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्त्व
- अरुणाचल प्रदेश में ज़ीरो घाटी की प्राचीन ‘अपातानी जनजाति’ इसका एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। वे धान के साथ मछली की सह-खेती करते हैं जो सदियों से एशिया के कई हिस्सों में पाए जाते हैं।
- ‘अपातानी जनजाति’ की कृषि प्रणाली जानवरों और आधुनिक मशीनों के बिना ही संपन्न होती है।
- जीरो वैली एक पठार है, जहाँ घरों के उपयोग तथा कृषि सिंचाई के लिये पानी का मुख्य स्रोत एक छोटी नदी और कुछ जल-कुएँ है। सिंचाई हेतु नहरों और चैनलों के एक नेटवर्क के माध्यम से पूरी घाटी में धान के खेतों की सिंचाई की जाती है।
- मतौर पर महिलाएँ इन खेतों का प्रबंधन करती हैं। धान के खेतों में इस्तेमाल होने वाला यह पानी बहकर घाटी में और खेतों में जाता है। बाद में पुनः वापस उस छोटी धारा में विलीन हो जाता है जो नदी में वापस मिलती है। इस तरह से यह घाटी में पानी का बारहमासी स्रोत है। घाटी में धान के क्षेत्र में आधुनिक संरचनाओं का निर्माण नहीं करने के लिये सख्त नियमों का पालन किया जाता है क्योंकि यह पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित करेगा।
- इसी प्रकार विभिन्न जातियों जन-जातियों द्वारा पानी के उपयोग को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने एवं संरक्षित करने का प्रयास किया गया है।
सामुदायिक स्वामित्व
- उपरोक्त सांस्कृतिक परंपराएँ जल संबंधी ज्ञान/विधि की महत्वपूर्ण और प्रमुख विशेषताओं के साथ-साथ सामुदायिक स्वामित्व, भागीदारी और ज़िम्मेदारी को दर्शाती हैं।
- विभिन्न अध्ययनों ने जल के प्रति जागरूकता को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रदर्शित किया है जिसके तहत पारंपरिक अभ्यास को विकास मॉडल की कुंजी के रूप में दर्शाया गया है।
- भारत में वर्षा की विविधता के कारण कहीं पर वार्षिक वर्षा लगभग 200 सेमी. होती है तो कहीं पर यह केवल 75 से 100 मिमी. होती है। जहाँ पर वार्षिक वर्षा कम होती है वहाँ समाज के सभी सदस्य पानी की हर बूँद को महत्व देते हैं।
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