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भारतीय राजनीति

समान नागरिक संहिता

  • 08 Jan 2022
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 44, अनुच्छेद 25, अनुच्छेद 14

मेन्स के लिये:

पर्सनल लॉ पर समान नागरिक संहिता के प्रभाव।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कानून और न्याय मंत्रालय ने वर्ष 2019 में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में कहा कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का कार्यान्वयन, संविधान के तहत एक निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 44) है जो सार्वजनिक नीति का मामला है और यह कोई निर्देश नहीं है। यह न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है।

  • केंद्र ने भारतीय विधि आयोग (21वें) से यूसीसी से संबंधित विभिन्न मुद्दों की जाँच करने और उस पर सिफारिशें प्रदान करने का अनुरोध किया है।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय
    • समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिये एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है।
    • संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
      • अनुच्छेद-44, संविधान में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में से एक है।
      • अनुच्छेद-37 में परिभाषित है कि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व संबंधी प्रावधानों को किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है लेकिन इसमें निहित सिद्धांत शासन व्यवस्था में मौलिक प्रकृति के होंगे।
  • भारत में समान नागरिक संहिता की स्थिति
    • भारतीय कानून अधिकांश नागरिक मामलों में एक समान कोड का पालन करते हैं जैसे कि भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1882, भागीदारी अधिनियम 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 आदि।
    • हालाँकि राज्यों ने सैकड़ों संशोधन किये हैं, इसलिये कुछ मामलों में इन धर्मनिरपेक्ष नागरिक कानूनों के तहत भी विविधता है।
  • भूमिका:
    • समान नागरिक संहिता (UCC) की अवधारणा का विकास औपनिवेशिक भारत में तब हुआ, जब ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की आवश्यकता पर बल दिया गया, हालाँकि रिपोर्ट में हिंदू और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की गई। 
    • ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बी.एन. राव समिति गठित करने के लिये मजबूर किया।
    • इन सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिये निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया।
      • हालाँकि मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे।
    • कानून में समरूपता लाने के लिये विभिन्न न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये।
      • शाह बानो मामले (1985) में दिया गया निर्णय सर्वविदित है।
      • सरला मुद्गल वाद (1995) भी इस संबंध में काफी चर्चित है, जो कि बहुविवाह के मामलों और इससे संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था।
    • प्रायः यह तर्क दिया जाता है ‘ट्रिपल तलाक और बहुविवाह जैसी प्रथाएँ एक महिला के सम्मान और उसके गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, केंद्र ने सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाओं को दी गई संवैधानिक सुरक्षा उन प्रथाओं तक भी विस्तारित होनी चाहिये जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
  • व्यक्तिगत कानूनों के लिये समान नागरिक संहिता के निहितार्थ: 
    • समाज के संवेदनशील वर्ग को संरक्षण
      • समान नागरिक संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा।
    • कानूनों का सरलीकरण
      • समान नागरिक संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनाएगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों।
    • धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का पालन करना
      • भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून बनाना चाहिये।
    • लैंगिक न्याय
      • यदि समान नागरिक संहिता को लागू किया जाता है, तो वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जाएंगे, जिससे उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निपटा जा सकेगा।
  • चुनौतियाँ
    • केंद्र सरकार के पारिवारिक कानूनों में मौजूद अपवाद
      • स्वतंत्रता के बाद से संसद द्वारा अधिनियमित सभी केंद्रीय पारिवारिक कानूनों में प्रारंभिक खंड में यह घोषणा की गई है कि वे ‘जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू होंगे।’
        • इन सभी अधिनियमों में 1968 में एक दूसरा अपवाद जोड़ा गया था, जिसके मुताबिक, ‘अधिनियम में शामिल कोई भी प्रावधान केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी पर लागू होगा।’
        • एक तीसरे अपवाद के मुताबिक, इन अधिनियमों में से कोई भी गोवा और दमन एवं दीव में लागू नहीं होगा।
        • नगालैंड और मिज़ोरम से संबंधित एक चौथा अपवाद, संविधान के अनुच्छेद 371A और 371G में शामिल किया गया है, जिसके मुताबिक कोई भी संसदीय कानून इन राज्यों के प्रथागत कानूनों और धर्म-आधारित प्रणाली का स्थान नहीं लेगा।
    • सांप्रदायिक राजनीति:
      • कई विश्लेषकों का मत है कि समान नागरिक संहिता की मांग केवल सांप्रदायिक राजनीति के संदर्भ में की जाती है।
      • समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक सुधार की आड़ में इसे बहुसंख्यकवाद के रूप में देखता है। 
    • संवैधानिक बाधा:
      • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।

आगे की राह 

  • परस्पर विश्वास निर्माण के लिये सरकार और समाज को कड़ी मेहनत करनी होगी, किंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़िवादियों के बजाय इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाए।
  • एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण के बजाय सरकार विवाह, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे अलग-अलग पहलुओं को चरणबद्ध तरीके से समान नागरिक संहिता में शामिल कर सकती है।
  • सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परिक्षण किया जा सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

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