उपासना स्थल अधिनियम, 1991 | 14 Jul 2023
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चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उपासना स्थल अधिनियम, 1991 की वैधता के मामले को स्थगित करते हुए केंद्र को इस मामले पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिये 31 अक्तूबर, 2023 तक का समय दिया है
उपासना स्थल अधिनियम:
- परिचय:
- यह किसी भी उपासना स्थल के रूपांतरण को प्रतिबंधित करने और उसके धार्मिक स्वरूप के रखरखाव और उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक मामलों के लिये एक अधिनियम के रूप में वर्णित किया गया है जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 को था।
- अधिनियम के प्रमुख प्रावधान:
- धर्मांतरण पर रोक (धारा 3):
- यह धारा किसी भी उपासना स्थल के परिवर्तन पर रोक लगाने का प्रावधान करती है अर्थात् कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी वर्ग के उपासना स्थल को उसी धार्मिक संप्रदाय के किसी भिन्न वर्ग या किसी भिन्न धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी वर्ग के उपासना स्थल में परिवर्तित नहीं करेगा।
- धार्मिक प्रकृति का रखरखाव (धारा 4-1):
- यह घोषणा करती है कि 15 अगस्त, 1947 तक अस्तित्व में आए उपासना स्थलों की धार्मिक प्रकृति पूर्ववत् बनी रहेगी।
- लंबित मामलों का निवारण (धारा 4-2):
- इसमें कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को मौजूद किसी भी उपासना स्थल की धार्मिक प्रकृति के परिवर्तन के संबंध में किसी भी न्यायालय के समक्ष लंबित कोई भी मुकदमा या कानूनी कार्यवाही समाप्त हो जाएगी और कोई नया मुकदमा या कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी।
- अधिनियम के अपवाद (धारा 5):
- यह अधिनियम प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारकों, पुरातात्त्विक स्थलों तथा प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्त्व स्थल अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत आने वाले अवशेषों पर लागू नहीं होता है।
- वे मामले भी इसमें शामिल नहीं हैं जो पहले ही लागू हो चुके हैं या सुलझे हुए हैं और इस तरह के विवादों में सिद्धांत लागू होने से पहले तय किये गए रूपांतरण शामिल हैं।
- यह अधिनियम अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के नाम से पहचाने जाने वाले विशिष्ट उपासना स्थल तक विस्तारित नहीं है, जिसमें इससे जुड़ी कोई कानूनी कार्यवाही भी शामिल है।
- दंड (धारा 6):
- यह धारा अधिनियम का उल्लंघन करने पर अधिकतम तीन वर्ष की कैद और ज़ुर्माने सहित दंड निर्दिष्ट करती है।
- धर्मांतरण पर रोक (धारा 3):
- आलोचना:
- न्यायिक समीक्षा पर रोक:
- आलोचकों का तर्क है कि अधिनियम न्यायिक समीक्षा को रोकता है, जो संविधान का एक मूलभूत पहलू है।
- उनका मानना है कि यह प्रतिबंध नियंत्रण और संतुलन प्रणाली को कमज़ोर करता है तथा संवैधानिक अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को सीमित करता है।
- पूर्वव्यापी कटऑफ तिथि:
- धार्मिक स्थलों की स्थिति निर्धारित करने के लिये एक मनमानी तिथि (स्वतंत्रता दिवस, 1947) का उपयोग करने के लिये इस अधिनियम की आलोचना की जाती है।
- विरोधियों का तर्क है कि यह अंतिम तिथि ऐतिहासिक अन्यायों की उपेक्षा करती है और उस तिथि से पहले अतिक्रमणों के निवारण को अस्वीकृत करती है।
- धर्म के अधिकार का उल्लंघन:
- आलोचकों का दावा है कि यह अधिनियम हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- उनका तर्क है कि यह उनके उपासना स्थलों पर दावा करने और पुनर्स्थापित करने की उनकी क्षमता को प्रतिबंधित करता है जिससे धर्म का पालन करने की उनके अनुयायियों की स्वतंत्रता में बाधा उत्पन्न होती है।
- धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन:
- इस अधिनियम का विरोध करने वालों का तर्क है कि यह अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और एक समुदाय को दूसरे समुदाय से अधिक महत्त्व/प्राथमिकता प्रदान करता है।
- उनका तर्क है कि यह कानून के तहत सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार की भावना को कमज़ोर करता है।
- अयोध्या विवाद मामले को अलग रखा जाना:
- अयोध्या विवाद मामले को अलग रखा जाना भी इस अधिनियम की आलोचना का एक अन्य कारण है।
- इस अधिनियम का विरोध करने वाले इसकी निरंतरता पर सवाल उठाते हैं और धार्मिक स्थलों के साथ हो रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार को लेकर चिंता व्यक्त करते हैं।
- न्यायिक समीक्षा पर रोक:
- अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख:
- उपासना स्थल अधिनियम को सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता को बनाए रखने वाले एक विधायी कार्रवाई के रूप में देखता है।
- यह अधिनियम सभी धर्मों के बीच समानता सुनिश्चित करने के राज्य के संवैधानिक दायित्व को लागू करता है। यह प्रत्येक धार्मिक समुदाय के उपासना स्थलों के संरक्षण की गारंटी देता है।
आगे की राह
- मामले से संबंधित आलोचनाओं और कमियों को दूर करने के लिये उपासना स्थल अधिनियम की गहन समीक्षा किये जाने की आवश्यकता है।
- यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि यह अधिनियम संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखने में न्यायपालिका की भूमिका को संरक्षित करते हुए न्यायिक समीक्षा को प्रतिबंधित नहीं करता है।
- धार्मिक विशिष्टता के संरक्षण और विभिन्न समुदायों के अधिकारों का सम्मान करने के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
- निष्पक्षता और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिये सार्वजनिक परामर्श को शामिल कर पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ ही विशिष्ट साइट्स के मामले को इस अधिनियम से अलग रखे जाने के कारणों की समीक्षा की जानी चाहिये।