भारतीय राजनीति
दल-बदल में स्पीकर की भूमिका
- 20 Feb 2023
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प्रिलिम्स के लिये:दल-बदल विरोधी कानून, 10वीं अनुसूची, अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन, 1985 में 52वाँ संशोधन, 91वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003, न्यायिक समीक्षा। मेन्स के लिये:दल-बदल हेतु आधार, दल-बदल में अध्यक्ष की भूमिका। |
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने 15 फरवरी, 2023 को महाराष्ट्र संकट 2022 से संबंधित एक मामले और क्या स्वयं निष्कासन के नोटिस का सामना कर रहा स्पीकर/अध्यक्ष अपनी विधानसभा में विधायकों को अयोग्य घोषित कर सकता है, पर सुनवाई करते हुए कहा कि अयोग्यता पर फैसला लेने हेतु स्पीकर को पहला अधिकार होना चाहिये।
- इससे पहले वर्ष 2016 में नबाम रेबिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि निष्कासन के नोटिस का सामना करने वाला अध्यक्ष या उपाध्यक्ष विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही तय नहीं कर सकता है।
अध्यक्ष की भूमिका पर वाद-विवाद:
- पिछले तीन वर्षों से लोकसभा अध्यक्ष की अध्यक्षता में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन संविधान की 10वीं अनुसूची में वर्णित अध्यक्ष की भूमिका की समीक्षा कर रहा है, जो सांसदों और विधायकों की अयोग्यता से संबंधित है।
- चर्चाओं का मुख्य केंद्रबिंदु इस मामले में विधानसभा स्पीकर की गरिमा को सुरक्षित करना है। कई पीठासीन अधिकारियों ने विचार व्यक्त किया है कि उसकी भूमिका सीमित होनी चाहिये और दल-बदल के मामलों को तय करने हेतु अन्य तंत्र विकसित किया जाना चाहिये।
- एक प्रस्ताव पर चर्चा की जा रही है कि अयोग्यता के मुद्दे को संबंधित राजनीतिक दलों पर छोड़ दिया जाए क्योंकि वे विधायकों को टिकट देते हैं।
- वर्ष 2021 में देहरादून में अध्यक्षों के सम्मेलन के दौरान कई प्रतिभागियों ने अपनी चिंताओं को व्यक्त किया और उन कमियों की ओर इशारा किया जो अक्सर अध्यक्ष की भूमिका को प्रभावित करती हैं।
भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची:
- परिचय:
- भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसे दलबदल विरोधी कानून के रूप में भी जाना जाता है, वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया था।
- यह वर्ष 1967 के आम चुनावों के बाद दल-बदलने वाले विधायकों द्वारा कई राज्य सरकारों को गिराने की प्रतिक्रिया थी।
- यह दल-बदल के आधार पर संसद (सांसदों) और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित प्रावधानों को निर्धारित करता है।
- भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसे दलबदल विरोधी कानून के रूप में भी जाना जाता है, वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया था।
- अपवाद:
- यह सांसद/विधायकों के एक समूह को दल-बदल हेतु दंडित किये बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (यानी विलय) की अनुमति देता है।
- और यह दल बदलने वाले विधायकों को प्रोत्साहित करने या स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं करता है।
- वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार, किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों में से एक-तिहाई द्वारा 'दलबदल' को 'विलय' माना जाता था।
- 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 ने इसे बदल दिया और अब किसी दल के कम- से-कम दो-तिहाई सदस्यों को "विलय" के पक्ष में होना चाहिये ताकि कानून की नज़र में इसकी वैधता हो।
- यह सांसद/विधायकों के एक समूह को दल-बदल हेतु दंडित किये बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (यानी विलय) की अनुमति देता है।
- विवेकाधिकार:
- दल-बदल के आधार पर अयोग्यता के प्रश्नों पर निर्णय सदन के सभापति या अध्यक्ष द्वारा लिया जाता है, जो 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन है।
- हालाँकि कानून कोई समय-सीमा प्रदान नहीं करता है जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी को दल-बदल मामले का फैसला करना होता है।
- दल-बदल का आधार:
- यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
- यदि वह अपने राजनीतिक दल द्वारा जारी किसी निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता/करती है या मतदान से दूर रहता/रहती है।
- यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
- यदि कोई नामित सदस्य छह माह की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
निष्कर्ष:
दल-बदल के मामलों में अध्यक्ष की भूमिका सरकार और लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थिरता एवं अखंडता सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अध्यक्ष को ऐसे मामलों पर निर्णय लेते समय निष्पक्ष तरीके से कार्य करना होता है तथा निर्णय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों व संविधान के प्रावधानों द्वारा निर्देशित होना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारत के संविधान की निम्नलिखित में से किस अनुसूची में दल-बदल विरोधी प्रावधान हैं? (2014) (a) दूसरी अनुसूची उत्तर: (d) |