सर्वोच्च न्यायालय ने SC और ST उप-वर्गीकरण की अनुमति दी | 01 Aug 2024
प्रिलिम्स के लिये:भारत का सर्वोच्च न्यायालय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अनुच्छेद 14, ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामला, 2004 मेन्स के लिये:अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण पर कानूनी झगड़ा, उप-वर्गीकरण से संबंधित लाभ और चुनौतियाँ। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पुनर्विचार निर्णय में एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें राज्यों को आरक्षण के प्रयोजनार्थ अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) जैसे आरक्षित श्रेणी समूहों को उप-वर्गीकृत करने का अधिकार दिया गया।
- 6-1 के बहुमत वाले इस निर्णय ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में वर्ष 2004 के निर्णय को बदल दिया है, जिससे भारत में आरक्षण नीतियों का परिदृश्य मौलिक रूप से बदल गया है।
SC और ST के उप-वर्गीकरण पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या था?
- उप-वर्गीकरण की अनुमति: न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्यों को संवैधानिक रूप से पिछड़ेपन के विभिन्न स्तरों के आधार पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति है।
- सात न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय सुनाया कि राज्य अब सबसे वंचित समूहों को बेहतर सहायता प्रदान करने के लिये 15% आरक्षण कोटे के भीतर अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश ने "उप-वर्गीकरण" और "उप-श्रेणीकरण" के बीच अंतर पर ज़ोर दिया तथा इन वर्गीकरणों का वास्तविक उत्थान के बजाय राजनीतिक तुष्टिकरण के लिये प्रयोग करने के प्रति आगाह किया।
- न्यायालय ने कहा कि उप-वर्गीकरण मनमाने या राजनीतिक कारणों के बजाय अनुभवजन्य आँकड़ों और प्रणालीगत भेदभाव के ऐतिहासिक साक्ष्य पर आधारित होना चाहिये।
- निष्पक्षता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिये राज्यों को अपने उप-वर्गीकरण को अनुभवजन्य साक्ष्य पर आधारित करना चाहिये।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी भी उप-वर्ग के लिये 100% आरक्षण स्वीकार्य नहीं है। उप-वर्गीकरण पर राज्य के निर्णय राजनीतिक दुरुपयोग को रोकने के लिये न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि 'क्रीमी लेयर' सिद्धांत जो पहले केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) पर लागू होता था (जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में उजागर किया गया था), अब SC और ST पर भी लागू होना चाहिये।
- इसका अर्थ है कि राज्यों को SC और ST के भीतर क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिये तथा उसे आरक्षण के लाभ से बाहर करना चाहिये। यह निर्णय आरक्षण के लिये अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता पर प्रतिक्रिया करता है, यह सुनिश्चित करता है कि लाभ उन लोगों तक पहुँचे जो वास्तव में वंचित हैं।
- न्यायालय ने कहा कि आरक्षण केवल पहली पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिये।
- यदि परिवार में किसी पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ ले लिया है और उच्च दर्जा प्राप्त कर लिया है तो आरक्षण का लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी को उपलब्ध नहीं होगा।
- निर्णय का तर्क: न्यायालय ने माना कि प्रणालीगत भेदभाव अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के कुछ सदस्यों को आगे बढ़ने से रोकता है और इसलिये संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत उप-वर्गीकरण इन असमानताओं को दूर करने में सहायता कर सकता है।
- यह दृष्टिकोण राज्यों को इन समूहों के सबसे वंचित लोगों को अधिक प्रभावी ढंग से सहायता प्रदान करने के लिये आरक्षण नीतियों को तैयार करने की अनुमति देता है।
उप-वर्गीकरण मुद्दे का संदर्भ किस कारण से आया?
- अनुसूचित जातियों (SC) के उप-वर्गीकरण का मुद्दा और इसे सात न्यायाधीशों की पीठ को भेजे जाने की पहल पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह, 2020 के मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की गई थी।
- इस संदर्भ के लिये प्राथमिक कारक निम्नलिखित थे:
- ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर पुनर्विचार: पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2004 के निर्णय पर पुनर्विचार करना आवश्यक पाया।
- ई.वी. चिन्नैया मामले में दिये गए निर्णय में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि अनुसूचित जातियाँ समरूप समूह हैं।
- पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006: इस मामले में विशिष्ट कानूनी चुनौती पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग अधिनियम, 2006 की धारा 4(5) की वैधता से संबंधित थी।
- इस प्रावधान के तहत यह अनिवार्य किया गया कि सीधी भर्ती में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित 50% रिक्तियाँ बाल्मीकि और मज़हबी सिखों को उनकी उपलब्धता के आधार पर प्रदान की जाएंगी।
- उच्च न्यायालय का निर्णय: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने वर्ष 2010 में ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर भरोसा करते हुए इस प्रावधान को रद्द कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 341(1) के तहत राष्ट्रपति के आदेश में सभी जातियाँ एक समरूप समूह हैं और उन्हें आगे विभाजित नहीं किया जा सकता।
- ई.वी. चिन्नैया मामले में दिये गए निर्णय में यह स्थापित किया गया था कि संविधान का अनुच्छेद 341, जो राष्ट्रपति को अनुसूचित जातियों की पहचान करने और उन्हें अधिसूचित करने का अधिकार देता है, आरक्षण का आधार है।
- अनुच्छेद 341 के अनुसार, अनुसूचित जातियों की पहचान और वर्गीकरण केवल राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल के परामर्श से तथा सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से किया जा सकता है।
- ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर पुनर्विचार: पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2004 के निर्णय पर पुनर्विचार करना आवश्यक पाया।
उप-वर्गीकरण के पक्ष और विपक्ष में तर्क क्या हैं?
- उप-वर्गीकरण के पक्ष में तर्क:
- अधिक लचीलापन: उप-वर्गीकरण से केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को ऐसी नीतियाँ तैयार करने की अनुमति मिलती है जो SC/ST समुदायों के सबसे वंचित लोगों की आवश्यकताओं को बेहतर ढंग से पूरा करती हैं।
- सामाजिक न्याय के साथ संरेखण: समर्थकों का तर्क है कि उप-वर्गीकरण उन लोगों को लक्षित लाभ प्रदान करके सामाजिक न्याय के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करता है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
- संवैधानिक प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत, यह प्रावधान राज्य सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व वाले पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 15(4) राज्य को समाज के सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों जैसे अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के हितों और कल्याण को बढ़ावा देने के लिये विशेष व्यवस्था बनाने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 342A राज्यों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची बनाए रखने में लचीलापन प्रदान करता है।
- उप-वर्गीकरण के विपक्ष में तर्क:
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की एकरूपता: आलोचकों का तर्क है कि उप-वर्गीकरण से राष्ट्रपति सूची में मान्यता प्राप्त अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की एकरूप स्थिति कमज़ोर पड़ सकती है।
- असमानता की संभावना: ऐसी चिंताएँ हैं कि उप-वर्गीकरण से और अधिक विभाजन हो सकता है तथा अनुसूचित जाति समुदाय के भीतर असमानताएँ बढ़ सकती हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का क्या महत्त्व है?
- पिछले निर्णय को खारिज करना: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने ई.वी. चिन्नैया के निर्णय को बदल दिया है, जिसमें पहले कहा गया था कि SC और ST एक समरूप समूह हैं और इसलिये राज्यों द्वारा आरक्षण के प्रयोजनों के लिये उन्हें उप-विभाजित नहीं किया जा सकता है तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत यह असंवैधानिक है।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उप-वर्गीकृत करने का नया निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14 या 341 का उल्लंघन नहीं करता है।
- राज्य कानूनों पर प्रभाव: इस निर्णय में विभिन्न राज्य कानूनों, जैसे कि पंजाब और तमिलनाडु के कानून को बरकरार रखा गया है जिन्हें पहले निरस्त कर दिया गया था, जो राज्यों को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति समूहों के भीतर उप-श्रेणियाँ बनाने की अनुमति देते हैं।
- पंजाब सरकार की वर्ष 1975 की अधिसूचना, जिसने अनुसूचित जाति के आरक्षण को वाल्मीकि और मज़हबी सिखों के लिये श्रेणियों में विभाजित किया था, को शुरू में बरकरार रखा गया था, लेकिन बाद में ई.वी. चिन्नैया निर्णय के बाद इसे चुनौती दी गई।
- आरक्षण का भविष्य: राज्यों के पास अब उप-वर्गीकरण नीतियों को लागू करने का अधिकार होगा, जिससे अधिक सूक्ष्म और प्रभावी आरक्षण रणनीतियाँ बन सकेंगी।
- यह निर्णय आरक्षण के प्रशासन के लिये एक नई मिसाल कायम करता है तथा संभवतः पूरे देश में इसी प्रकार के मामलों और नीतियों को प्रभावित करेगा।
उप-वर्गीकरण के लिये चुनौतियाँ क्या हैं?
- डेटा संग्रहण और साक्ष्य: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विभिन्न उप-समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर सटीक एवं व्यापक डेटा एकत्र करना आवश्यक है।
- राज्यों को अपने उप-वर्गीकरण निर्णयों को सही ठहराने के लिये अनुभवजन्य साक्ष्य पर निर्भर रहना चाहिये। डेटा की सटीकता सुनिश्चित करना और पूर्वाग्रहों से बचना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
- हितों में संतुलन: उप-वर्गीकरण का उद्देश्य सबसे वंचित उप-समूहों का उत्थान करना है, लेकिन प्रतिस्पर्द्धी हितों में संतुलन बनाना जटिल हो सकता है।
- एकरूपता बनाम विविधता: जबकि उप-वर्गीकरण नीतियों को अनुकूलित करने की अनुमति देता है, इससे राज्यों में भिन्नता हो सकती है। एकरूपता और स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के बीच संतुलन बनाना एक चुनौती है।
- यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि उप-श्रेणियाँ आरक्षण नीतियों के समग्र लक्ष्यों को कमज़ोर न करें।
- राजनीतिक प्रतिरोध: उप-वर्गीकरण नीतियों को राजनीतिक समूहों के विरोध का सामना करना पड़ सकता है जो आरक्षण प्रणालियों में परिवर्तन का समर्थन या विरोध करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप संभावित विलंब और संघर्ष की स्थिति हो सकती है।
- सामाजिक तनाव: उप-वर्गीकरण से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदायों के भीतर विद्यमान सामाजिक तनाव बढ़ सकता है, जिससे समुदाय के भीतर संघर्ष और विभाजन उत्पन्न हो सकता है।
- प्रशासनिक बोझ: उप-श्रेणियों को बनाने, प्रबंधित करने और अद्यतन करने की प्रक्रिया से सरकारी एजेंसियों पर महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक बोझ बढ़ जाता है, जिसके लिये अतिरिक्त संसाधनों तथा जनशक्ति की आवश्यकता होती है।
आगे की राह
- राज्यों को ऐतिहासिक भेदभाव, आर्थिक असमानताओं और सामाजिक कारकों पर विचार करने की आवश्यकता है। राजनीतिक प्रेरणाओं से बचना और निष्पक्षता सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है।
- आगामी जनगणना का लाभ उठाकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर उप-समूह विशिष्ट जानकारी सहित व्यापक आँकड़े एकत्र करना आवश्यक है।
- विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनाए रखने के लिये स्वतंत्र डेटा सत्यापन प्रक्रियाएँ स्थापित करना आवश्यक है।
- उप-वर्गीकरण के लिये स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ मानदंड निर्धारित करना, व्यक्तिपरक या राजनीतिक रूप से प्रेरित निर्णयों से बचना आवश्यक है। जाति या जनजातीय संबद्धता के बजाय सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
- प्रभाव की निगरानी करना और परिणामों के आधार पर नीतियों को समायोजित करना आवश्यक है। यह सुनिश्चित करना कि लाभ लक्षित लाभार्थियों तक पहुँचे, एक सतत् प्रक्रिया है।
- ऐतिहासिक दोष को दूर करने के लिये अस्थायी उपाय के रूप में उप-वर्गीकरण को मान्यता दी जाए। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास और सशक्तीकरण पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
- जैसे-जैसे व्यापक सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, आरक्षण पर निर्भरता धीरे-धीरे कम होती जाएगी।
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