जैव विविधता और पर्यावरण
उत्सर्जन वृद्धि में संपन्न देशों की भूमिका
- 05 Oct 2020
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प्रिलिम्स के लिये:कार्बन बजट, ग्रीन न्यू डील, समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व मेन्स के लिये:कार्बन उत्सर्जन के कारण और इसके दुष्प्रभाव, जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ऑक्सफैम इंटरनेशनल (Oxfam International) और स्टॉकहोम एन्वायरनमेंटल इंस्टीट्यूट (Stockholm Environmental Institute- SEI) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्सर्जन के मामले में विश्व के 1% सबसे अमीर (Richest) लोग 50% सबसे गरीब (Poorest) लोगों से अधिक उत्तरदायी हैं।
प्रमुख बिंदु:
- ‘कंफ्रंटिंग कार्बन इनइक्वालिटी’ (Confronting Carbon Inequality) नामक इस रिपोर्ट में वर्ष 1990 से वर्ष 2015 के बीच उत्सर्जन आँकड़ों की समीक्षा की गई।
वर्ष 1990- 2015 के बीच उत्सर्जन संबंधी आँकड़े:
- रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990- 2015 के बीच विश्व के सबसे अमीर वर्ग के 1% लोग 15% संचयी उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी रहे, जबकि इसी दौरान विश्व के सबसे गरीब वर्ग के 50% लोग मात्र 7% संचयी उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी थे।
- इस अवधि में विश्व के 10% सबसे अमीर लोग 31% कार्बन बजट (Carbon Budge) के अवक्षय (Depletion) के लिये उत्तरदायी रहे, जबकि इसमें विश्व के सबसे गरीब वर्ग के 50% लोगों की भूमिका मात्र 4% ही थी।
- कार्बन बजट वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित कार्बन डाइऑक्साइड की वह मात्रा है, जिसकी एक समय सीमा के दौरान उत्सर्जन के बाद भी तापमान वृद्धि को एक निश्चित सीमा (2°C) के अंदर रखा जा सकता है।
उत्सर्जन में वृद्धि: रिपोर्ट के अनुसार, उत्सर्जन वृद्धि में विश्व के 10% सबसे अमीर लोगों की भूमिका 46% रही, जबकि सबसे गरीब वर्ग के 50% लोगों की भूमिका मात्र 6% ही थी।
- रिपोर्ट के अनुसार, इस उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी विश्व के 10% सबसे अमीर लोगों में से आधे लोग उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय संघ (European Union- EU) के देशों से संबंधित हैं।
उत्सर्जन वृद्धि में भारत की भूमिका:
- वर्ष 2018 में दिल्ली स्थित ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट’ (Centre for Science and Environment- CSE) नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, एक भारतीय प्रतिवर्ष केवल 1.97 टन कार्बन डाइऑक्साइड (tCO2) उत्सर्जित करता है।
- जबकि प्रतिवर्ष कनाडा या के एक व्यक्ति द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 16 टन से अधिक बताई गई।
- इसी तरह भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन यूरोपीय संघ (6.78 tCO2 /प्रति व्यक्ति) और चीन (7.95 tCO2/प्रति व्यक्ति) से बहुत ही कम रहा।
- इसके अतिरिक्त वर्ष 2018 में भारत के 10% सबसे अमीर लोगों द्वारा किया गया उत्सर्जन 4.4 tCO2/प्रति व्यक्ति था, जबकि इसी दौरान अमेरिका के 10% सबसे अमीर लोगों के लिये यह आँकड़ा 52.4 tCO2/प्रति व्यक्ति था, जो भारत की तुलना में लगभग 12 गुना अधिक है।
- उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सबसे कम है।
कारण और चुनौतियाँ:
- रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में वैश्विक कार्बन बजट का तेज़ी से ह्रास हो रहा है और इसका प्रयोग समुदायों के लिये एक गरिमापूर्ण और सभ्य जीवन प्रदान करने हेतु नहीं बल्कि अमीरों की खपत का विस्तार के लिये हो रहा है।
- इसके अनुसार, अमीरों द्वारा उत्सर्जन का सबसे बड़ा हिस्सा उड़ानों और कारों की वजह से है जिसमें निजी जेट, लक्जरी एसयूवी और स्पोर्ट्स कारों का बड़ी संख्या में उपयोग शामिल है।
- इस रिपोर्ट में नस्ल, वर्ग, लिंग, जाति और उम्र जैसे कारकों के साथ आय असमानता तथा जलवायु संकट के संबंधों को भी स्वीकार किया गया।
- उदाहरण के लिये लिंग के आधार पर आय में असमानता का अर्थ है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों को अधिक वेतन प्राप्त हुआ और इसका प्रभाव उनके रहन-सहन, यात्रा और ऐसे ही अन्य खर्चों पर देखने को मिला।
- रिपोर्ट के अनुसार, अनावश्यक और विलासिता की वस्तुओं/गतिविधियों के कारण होने वाले उत्सर्जन में कटौती के व्यापक सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं परंतु वर्तमान में वैश्विक खपत और उत्पादन मॉडल पूंजीवादी विकास और नव-उदारवाद के सिद्धांतों से प्रेरित है, ऐसे में इस व्यवस्था में पर्यावरण संरक्षण एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है।
- वर्तमान में पर्यावरण क्षरण की गंभीर चुनौती से निपटने के लिये औद्योगिक क्षेत्र और देशों पर लगाए जाने वाले कार्बन टैक्स और गैर-बाध्यकारी जलवायु प्रतिबद्धताएँ जैसे उपाय अपर्याप्त हैं।
सुझाव:
- रिपोर्ट में व्यक्तिगत कार्रवाई पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करने के बजाय प्रणालीगत बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया गया है। साथ ही ऐसे नए आर्थिक मॉडल को लागू करने की मांग की गई है जो पहले से ही संपन्न लोगों की खपत में अंतहीन वृद्धि पर निर्भर नहीं करता है।
- रिपोर्ट में विश्व के सबसे अमीर 10% लोगों के उत्सर्जन को कम करने और वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को एक-तिहाई (1/3) करने के लक्ष्य पर ध्यान देने की बात कही गई है।
- रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में अमेरिका में चर्चा में आई ‘ग्रीन न्यू डील’ (Green New Deal) जैसे व्यापक प्रयास वर्तमान में वैश्विक स्तर पर फैली भारी असमानता और शक्ति असंतुलन के बीच जलवायु संकट के गंभीर दुष्प्रभाव को कम करने में सहायक हो सकते हैं।
- ध्यातव्य है कि ‘ग्रीन न्यू डील’ जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स (House of Representatives) की प्रतिनिधि ‘अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़’ (Alexandria Ocasio-Cortez) और मैसाचुसेट्स के सीनेटर एडवर्ड जे मार्के (Edward J. Markey) द्वारा लाया गया एक संसदीय प्रस्ताव है।
- इसके तहत अमेरिकी सरकार से अर्थव्यवस्था को खनिज तेल से अलग करने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाने का आह्वान किया गया।
- साथ ही इसके तहत नवीकरणीय ऊर्जा उद्योगों में उच्च-भुगतान वाली नई नौकरियों की गारंटी दी गई। यह प्रस्ताव जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के साथ आर्थिक असमानता और नस्लीय अन्याय जैसी सामाजिक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है।
- वर्ष 2019 में व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Conference on Trade and Development- UNCTD) द्वारा भी इसका समर्थन किया गया था और वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश के माध्यम से ‘ग्रीन न्यू डील' की पुनरावृत्ति की मांग की गई थी।
आगे की राह:
- इस रिपोर्ट के आँकड़े जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के संदर्भ में ‘समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व’ (Common But Differentiated Responsibilities-CBDR) के सिद्धांत का समर्थन करते हैं।
- अतः विश्व के विकसित और संपन्न देशों को पर्यावरण के प्रति अपने उत्तरदायित्त्वों को स्वीकार करते हुए जलवायु परिवर्तन से निपटने में बड़ी भूमिका निभानी चाहिये। हाल ही में चीन द्वारा वर्ष 2060 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है जो इस दिशा में एक सकारात्मक पहल है।
- कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये समाज के हर वर्ग तक नवीकरणीय ऊर्जा विकल्पों की पहुँच सुनिश्चित करने के प्रयास पर विशेष ज़ोर दिया जाना चाहिये।