डॉ. बी.आर. अंबेडकर के दार्शनिक दृष्टिकोण | 18 Mar 2025
प्रिलिम्स के लिये:डॉ. बी.आर. अंबेडकर, मौलिक अधिकार, बंधुत्व मेन्स के लिये:अंबेडकर का सामाजिक न्याय का दर्शन, गांधी के ग्राम स्वराज की तुलना अंबेडकर के मज़बूत केंद्रीकृत लोकतंत्र के दृष्टिकोण से करना। |
स्रोत:द हिंदू
चर्चा में क्यों?
बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर (1891-1956) के सामाजिक न्याय, समानता और स्वतंत्रता के दर्शन, विशेष रूप से जाति और लैंगिक असमानता के संदर्भ में, ने नए सिरे से ध्यान आकर्षित किया है।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर के दार्शनिक दृष्टिकोण क्या हैं?
- प्रयोजनवाद: जॉन डेवी (एक अमेरिकी दार्शनिक) से प्रभावित होकर, अंबेडकर ने वास्तविक जगत के मुद्दों, जैसे जाति व्यवस्था, सामाजिक अन्याय और आर्थिक असमानता को संबोधित करने के लिये प्रयोजनवाद (व्यावहारिक तरीके से समस्याओं का समाधान करना) को लागू किया।
- उनका दृष्टिकोण अमूर्त या सैद्धांतिक रूपरेखाओं के बजाय क्रिया-उन्मुख समाधानों पर ज़ोर देता था।
- जाति व्यवस्था की आलोचना: अंबेडकर ने हिंदू जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना करते हुए इसे दमनकारी और अन्यायपूर्ण बताया तथा तर्क और समानता पर आधारित समाज की वकालत की।
- उन्होंने दलितों को व्यवस्थागत उत्पीड़न का शिकार माना, जिन्हें बुनियादी अधिकारों और सम्मान से वंचित रखा गया।
- अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को नवयान बौद्ध धर्म के रूप में पुनर्निर्मित किया, जिसमें अनुष्ठानों की अपेक्षा सामाजिक समानता और नैतिक जीवन पर ध्यान केंद्रित किया गया, जो उनके कार्य "द बुद्ध एंड हिज धम्म" में परिलक्षित होता है।
- द एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (वर्ष 1936) में उन्होंने तर्क दिया कि जाति केवल श्रम का विभाजन नहीं है बल्कि श्रमिकों का विभाजन है जो सामाजिक और आर्थिक असमानता को कायम रखती है।
- विधिक और संवैधानिक: भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में, अंबेडकर का मानना था कि भारत की नींव स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित होनी चाहिये, जो फ्राँसीसी क्रांति (1789-1799) से प्रेरित थी।
- उन्होंने कहा कि "समानता के बिना स्वतंत्रता, कुछ लोगों के वर्चस्व को जन्म देती है, और स्वतंत्रता के बिना समानता, उत्पीड़न को जन्म देती है", और संवैधानिक नैतिकता पर ज़ोर देते हुए कहा कि विधियों को न्याय और मानवीय गरिमा के मूल्यों को प्रतिबिंबित करने के लिये विकसित किया जाना चाहिये।
- उन्होंने विधि के शासन, मौलिक अधिकारों और उत्पीड़ितों के उत्थान के लिये सकारात्मक कार्यवाही का समर्थन किया। उनके अनुसार भारतीय समाज में बंधुत्व वह तत्त्व है जो लुप्त है, क्योंकि यह जाति और पदानुक्रम से विभाजित है।
- राजनीतिक दर्शन: बी.आर. अंबेडकर ने लोकतंत्र को सिर्फ एक राजनीतिक प्रणाली के रूप में नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति के रूप में देखा, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर ज़ोर दिया गया।
- आर्थिक दर्शन: बी.आर. अंबेडकर ने अनियमित पूंजीवाद और चरम समाजवाद दोनों को अस्वीकार कर दिया तथा एक मध्यम मार्ग का समर्थन किया, जिसमें राज्य आर्थिक नियोजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था।
- भूमि सुधार, श्रम अधिकार और आर्थिक नियोजन पर उनके विचार हाशिये पर पड़े समुदायों के उत्थान पर केंद्रित थे।
- आर्थिक दर्शन: बी.आर. अंबेडकर ने अनियमित पूंजीवाद और चरम समाजवाद दोनों को अस्वीकार कर दिया तथा एक मध्यम मार्ग का समर्थन किया, जिसमें राज्य आर्थिक नियोजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था।
- लैंगिक न्याय: बी.आर. अंबेडकर लैंगिक समानता के प्रबल समर्थक थे तथा जाति और पितृसत्ता के बीच अंतर्संबंध को मान्यता देते थे।
- उन्होंने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य विवाह, उत्तराधिकार और तलाक से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करना था।
- उन्होंने समतावादी समाज के निर्माण में महिला शिक्षा और सशक्तीकरण के महत्त्व पर बल दिया।
- गांधीवाद पर विचार: अंबेडकर गांधीवाद के कट्टर आलोचक थे, उन्होंने इसके जाति सुधारों को अपर्याप्त बताया और कानूनी उन्मूलन का समर्थन किया। जाति, धर्म और दलित प्रतिनिधित्व में मतभेदों के बावजूद, दोनों ने सामाजिक न्याय और राष्ट्र निर्माण की मांग की।
नोट: नवयान (नया वाहन) बौद्ध धर्म, जिसकी स्थापना 1956 में बी.आर. अंबेडकर ने की थी, बौद्ध धर्म की एक पुनर्व्याख्या है, जो पारंपरिक आध्यात्मिक सिद्धांतों की तुलना में सामाजिक समानता और वर्ग संघर्ष पर ज़ोर देती है।
- यह चार आर्य सत्य, कर्म, पुनर्जन्म, निर्वाण और मठजीवन जैसे प्रमुख बौद्ध सिद्धांतों को अस्वीकार करतें हैं, तथा उन्हें निराशावादी और सामाजिक न्याय के लिये अप्रासंगिक मानते हैं।
- दलितों का नवयान में सामूहिक धर्मांतरण वर्ष 1956 में शुरू हुआ, तथा 14 अक्तूबर को धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस के रूप में मनाया गया।
गांधी और अंबेडकर के दर्शन की तुलना
पहलू |
महात्मा गांधी |
डॉ. बी.आर. अंबेडकर |
जाति प्रथा |
महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था में विश्वास तथा अस्पृश्यता का विरोध करते थे, और दलितों को समाज में उनकी स्थिति सुधारने के लिये उन्हें "हरिजन" (भगवान की संतान) कहकर पुकारा। |
जाति और अस्पृश्यता को अविभाज्य मानते हुए, उन्होंने जाति के पूर्ण उन्मूलन का समर्थन किया। उन्होंने " दलित" शब्द को प्राथमिकता दी, जो आत्म-सम्मान और प्रतिरोध का प्रतीक है। |
लोकतंत्र और शासन |
नैतिक अनुनय और अहिंसा के माध्यम से क्रमिक सुधार की मांग की। |
दमनकारी संरचनाओं को ध्वस्त करने के लिये कानूनी और संस्थागत सुधारों की वकालत की। |
उत्थान की विधि |
उच्च जातियों से दलितों का उत्थान करने और उन्हें हिंदू धर्म में एकीकृत करने की अपील की |
शिक्षा, आरक्षण और आत्मनिर्भरता के माध्यम से दलितों को सशक्त बनाना। |
आर्थिक दृष्टिकोण |
ग्राम अर्थव्यवस्था (ग्रामराज), आत्मनिर्भरता और सादा जीवन को प्राथमिकता दी गई। |
आर्थिक प्रगति के लिये औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का समर्थन किया |
धर्म |
अंतर-धार्मिक सद्भाव में विश्वास के साथ गांधीजी एक हिंदू सुधारवादी रहे। |
समानता के लिये हिंदू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। |
विभाजन के भय से पृथक निर्वाचिका का विरोध किया। |
दलितों के राजनीतिक अधिकारों की संरक्षा हेतु पृथक निर्वाचिका की मांग की। |
|
विरासत |
अहिंसा और नैतिक नेतृत्व के लिये जाने के साथ राष्ट्रपिता के रूप में स्मरण किया जाता है। |
भारतीय संविधान के निर्माता और “भारतीय संविधान के जनक” के रूप में संदर्भित किया जाता है। अंबेडकर दलित अधिकारों और सामाजिक न्याय के समर्थक थे। |
समकालीन विश्व में अंबेडकर के दर्शन की प्रासंगिकता क्या है?
- सामाजिक न्याय: अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिये आरक्षण नीतियाँ (सकारात्मक कार्रवाई) सामाजिक उत्थान के लिये उनके दृष्टिकोण से प्रेरित हैं।
- जाति आधारित हिंसा और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन वर्तमान में भी सामाजिक न्याय की उनकी वकालत से प्रेरित हैं।
- संवैधानिक लोकतंत्र: बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकों पर हमले और नागरिक स्वतंत्रता का हनन जैसी बढ़ती चुनौतियाँ संवैधानिक नैतिकता के उनके आह्वान को पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक बनाती हैं।
- सशक्तीकरण के लिये शिक्षा: अंबेडकर का कथन "शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो" सशक्तीकरण के लिये शिक्षा और अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध पर ज़ोर देता है।
- उपांतिकीकृत छात्रों के लिये छात्रवृत्ति, कौशल विकास कार्यक्रम और सुविधा वंचितों के लिये निःशुल्क शिक्षा जैसी प्रोत्साहनकारी नीतियाँ।
- लैंगिक समानता: अंबेडकर महिला सशक्तीकरण के प्रबल समर्थक थे, उनका कार्य समान वेतन और वैयक्तिक कानून सुधार सहित महिला अधिकारों संबंधी चर्चाओं में वर्तमान में भी प्रासंगिक है।
- आर्थिक समानता और श्रम अधिकार: अंबेडकर के अनुसार सामाजिक असमानता का उन्मूलन करने की दृष्टि से आर्थिक न्याय अत्यावश्यक है।
- बढ़ती बेरोज़गारी, धन असमानता और श्रम शोषण के बीच राज्य-नेतृत्व वाले औद्योगीकरण, भूमि सुधार तथा श्रम अधिकारों के लिये उनकी वकालत प्रासंगिक बनी हुई है ।
निष्कर्ष
डॉ. बी.आर. अंबेडकर का दर्शन सामाजिक न्याय, जाति प्रथा उन्मूलन और लैंगिक समानता संबंधी समस्याओं का निवारण करने की दृष्टि से वर्तमान में भी अत्यंत प्रासंगिक है। भेदभाव, आर्थिक असमानता और राजनीतिक बहुसंख्यकवाद जैसी चुनौतियों के बावजूद, अंबेडकर के विचारों में एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की अभिकल्पना है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. अंबेडकर का सामाजिक लोकतंत्र, आर्थिक न्याय और संवैधानिक नैतिकता का दर्शन समकालीन चुनौतियों के समाधान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बना हुआ है। चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से किस पार्टी की स्थापना डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने की थी? (2012)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. अलग-अलग दृष्टिकोण और रणनीतियों के बावजूद महात्मा गांधी तथा डॉ. बी.आर. अंबेडकर का दलितों के उत्थान का एक सामान्य लक्ष्य था। स्पष्ट कीजिये। (2015) |