भारतीय राजनीति
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का भरण-पोषण अधिकार
- 11 Jul 2024
- 12 min read
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय (SC), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, पारिवारिक न्यायालय मेन्स के लिये:तलाक पर अधिकारों का संरक्षण, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य, 2024 के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court- SC) ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला पर आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code- CrPC) की धारा 125 की प्रयोज्यता को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया।
याचिका किस बारे में थी?
- यह याचिका एक मुस्लिम व्यक्ति ने दायर की थी, जिसमें अंतरिम भुगतान के निर्देश को चुनौती दी गई थी।
- आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत अपनी तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने का आदेश दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 को CrPC की धारा 125 के धर्मनिरपेक्ष कानून पर हावी होना चाहिये।
- याचिकाकर्त्ता ने दावा किया कि 1986 का अधिनियम, एक विशेष कानून होने के कारण, अधिक व्यापक भरण-पोषण प्रावधान प्रदान करता है और इसलिये इसे CrPC की धारा 125 के सामान्य प्रावधानों पर वरीयता दी जानी चाहिये।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि 1986 के अधिनियम की धारा 3 और 4, एक गैर-अस्थायी खंड के साथ, प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को मेहर (विवाह के अवसर पर पति द्वारा अपनी पत्नी को दिया जाने वाला अनिवार्य उपहार) तथा निर्वाह भत्ते के मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार प्रदान करती है।
- उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पारिवारिक न्यायालयों के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है क्योंकि अधिनियम में इन मुद्दों को निपटाने के लिये मजिस्ट्रेट को अनिवार्य बनाया गया है। याचिकाकर्त्ता ने धारा 5 के अनुसार 1986 के अधिनियम के बजाय CrPC प्रावधानों को चुनने हेतु हलफनामा प्रस्तुत करने में पत्नी की विफलता पर ज़ोर दिया।
- यह तर्क दिया गया कि 1986 का अधिनियम अपने विशिष्ट प्रावधानों के कारण मुस्लिम महिलाओं के लिये धारा 125 CrPC को निरस्त कर देता है, जिससे उन्हें धारा 125 CrPC के तहत राहत मांगने से रोक दिया जाता है।
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 क्या है?
- उद्धेश्य: यह अधिनियम उन मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिये बनाया गया था, जिन्हें उनके पतियों ने तलाक दे दिया है या जिन्होंने अपने पतियों से तलाक ले लिया है। यह इन अधिकारों की सुरक्षा से जुड़े या उससे संबंधित मामलों के लिये प्रावधान करता है।
- यह अधिनियम मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम, 1985 के मामले का जवाब था। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि CrPC की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जो धर्म के बावजूद सभी पर लागू होता है।
- CrPC के तहत भरण-पोषण का अधिकार पर्सनल लॉ के प्रावधानों से नकारा नहीं जाता है।
- प्रावधान:
- एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पूर्व पति से उचित एवं न्यायसंगत भरण-पोषण पाने की हकदार है, जिसका भुगतान इद्दत अवधि के भीतर किया जाना चाहिये।
- इद्दत एक अवधि है, जो आमतौर पर तीन महीने की होती है, जिसे एक महिला को अपने पति की मृत्यु या तलाक के बाद दोबारा शादी करने से पहले मनाना होता है।
- इस अधिनियम में महर (मेहर) का भुगतान और शादी के समय महिला को दी गई संपत्ति की वापसी भी शामिल है।
- यह तलाकशुदा महिला और उसके पूर्व पति को CrPC, 1973 की धारा 125 से 128 के प्रावधानों द्वारा शासित होने का विकल्प चुनने की अनुमति देता है। यदि वे आवेदन की पहली सुनवाई में इस आशय की संयुक्त या अलग घोषणा करते हैं।
- एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पूर्व पति से उचित एवं न्यायसंगत भरण-पोषण पाने की हकदार है, जिसका भुगतान इद्दत अवधि के भीतर किया जाना चाहिये।
- उत्थान:
- सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ मामले में वर्ष 2001 में अपने फैसले में 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था और कहा था कि इसके प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन नहीं करते हैं।
- इसने मुस्लिम महिलाओं को इद्दत अवधि के बाद पुनर्विवाह करने तक भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया।
- शबाना बानो बनाम इमरान खान केस, 2009: सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएँ CrPC की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता मांग सकती हैं, यहाँ तक कि इद्दत अवधि के बाद भी, जब तक कि वे दोबारा शादी न कर लें। इसने इस सिद्धांत की पुष्टि की कि CrPC प्रावधान धर्म के बावजूद लागू होता है।
- सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ मामले में वर्ष 2001 में अपने फैसले में 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था और कहा था कि इसके प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन नहीं करते हैं।
CrPC की धारा 125 क्या कहती है?
- CrPC की धारा 125 के अनुसार प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट पर्याप्त साधन संपन्न व्यक्ति को निम्नलिखित के भरण-पोषण के लिये मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है:
- यदि उसकी पत्नी स्वयं अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
- उसका वैध या नाजायज़ नाबालिग बच्चा, चाहे वह विवाहित हो या न हो, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो।
- उसका वैध या नाजायज़ वयस्क बच्चा शारीरिक या मानसिक असामान्यताओं या चोटों से ग्रस्त हो, जो उसे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ बनाती हैं।
- उसका पिता या माता, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या रहा?
- सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि CrPC की धारा 125 न केवल विवाहित स्त्रियों अपितु सभी स्त्रियों पर लागू होती है। उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह प्रावधान सार्वभौमिक रूप से लागू होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने विधिक समता सुनिश्चित करते हुए और संविधान के समता एवं गैर-भेदभाव की गारंटी का संरक्षण करते हुए विच्छिन्न-विवाह मुस्लिम स्त्रियों द्वारा CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने के अधिकारों की पुष्टि की।
- सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया और पुष्टि की कि मुस्लिम स्त्रियाँ 1986 के अधिनियम के अस्तित्त्व के बावजूद CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकती हैं।
- न्यायालय ने कहा कि 1986 के अधिनियम की धारा 3, जो एक सर्वोपरि खंड (Non-Obstante Clause) से शुरू होती है, धारा 125 CrPC की प्रयोज्यता को प्रतिबंधित करने के बजाय एक अतिरिक्त उपाय प्रदान करती है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय पुरुषों के लिये अपनी पत्नियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की आवश्यकता पर बल दिया, जिनके पास स्वतंत्र आय का अभाव है। इसने आर्थिक रूप से स्वतंत्र या नौकरीपेशा विवाहित महिलाओं और उन महिलाओं के बीच अंतर को उजागर किया, जो अपने निजी खर्चों को पूरा करने के लिये किसी भी साधन के बिना घर पर रहती हैं।
- न्यायालय ने पुष्टि की कि विच्छिन्न-विवाह मुस्लिम स्त्रियाँ, जिनमें तीन तलाक (अब विधि-विरुद्ध) के माध्यम से तलाक लेने वाली स्त्रियाँ भी शामिल हैं, पर्सनल लॉ के बावजूद भी धारा 125 CrPC के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं।
- तीन तलाक को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित किया गया है तथा मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 द्वारा इसे अपराध घोषित किया गया है।
नोट: तत्काल तीन तलाक या तलाक-ए-बिद्दत, मुस्लिम समुदाय में प्रचलित एक प्रथा है, जिसमें एक पुरुष अपनी पत्नी को एक बार में तीन बार "तलाक" बोलकर, फोन पर या फिर टेक्स्ट मैसेज के माध्यम से तलाक दे सकता है। यह तलाक तत्काल और अपरिवर्तनीय होता है तथा तलाक के बाद संबद्ध व्यक्ति यदि सुलह करने को भी इच्छुक हो तो नहीं कर सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के बीच अंतर्संबंध का परीक्षण कीजिये। विवादों का समाधान करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टिकोण का विश्लेषण कीजिये। |
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UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के किसी व्यक्ति के अधिकार को संरक्षण देता है? (2019) (a) अनुच्छेद 19 उत्तर: (b) व्याख्या:
अतः विकल्प (b) सही उत्तर है। मेन्स:प्रश्न. रीति-रिवाज़ और परंपराओं द्वारा तर्क को दबाने से प्रगतिविरोध उत्पन्न हुआ है। क्या आप इससे सहमत हैं? (2020) |