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जैव विविधता और पर्यावरण

IPCC: छठी आकलन रिपोर्ट का भाग तीन

  • 05 Apr 2022
  • 13 min read

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैन पैनल (IPCC), क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, ग्रीनहाउस गैसों की छठी आकलन रिपोर्ट।

मेन्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन (आईपीसीसी) पर अंतर-सरकारी पैनल की छठी आकलन रिपोर्ट, जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन उपाय, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान निकाय, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) ने अपनी छठी आकलन रिपोर्ट (AR6) का तीसरा भाग प्रकाशित किया।

  • रिपोर्ट का दूसरा भाग मार्च 2022 में प्रकाशित हुआ था जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, ज़ोखिमों और कमज़ोरियों एवं अनुकूलन विकल्पों से संबंधित है।
  • इस रिपोर्ट का पहला भाग वर्ष 2021 में जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान से संबंधित था। इसमें यह बताया गया था कि वर्ष 2040 से पहले ही वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि की संभावना है।

रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष:

  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन:
    • वर्ष 2019 में वैश्विक शुद्ध मानवजनित ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन 59 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड समकक्ष (Gigatonnes of Carbon Dioxide Equivalent- GtCO2e) था, जो वर्ष 1990 की तुलना में 54% अधिक था।
      • शुद्ध उत्सर्जन से तात्पर्य दुनिया के जंगलों और महासागरों द्वारा अवशोषित किये गए उत्सर्जन में कटौती के बाद होने वाले उत्सर्जन से है।
      • मानवजनित उत्सर्जन से तात्पर्य ऐसे उत्सर्जन से है जो ऊर्जा के लिये कोयले को जलाने या जंगलों को काटने जैसी मानव गतिविधियों के कारण होता है।
    • यह उत्सर्जन वृद्धि मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक क्षेत्र से CO2 उत्सर्जन के साथ-साथ मीथेन उत्सर्जन से प्रेरित है।
    • लेकिन वर्ष 2010-19 की अवधि में विकास की औसत वार्षिक दर 1.3% प्रतिवर्ष हो गई, जबकि वर्ष 2000-09 की अवधि में यह 2.1% प्रतिवर्ष थी।
    • कम-से-कम 18 देशों ने अपनी ऊर्जा प्रणाली के डीकार्बोनाइज़ेशन, ऊर्जा दक्षता उपायों और कम ऊर्जा मांग के कारण लगातार 10 वर्षों से अधिक समय तक GHG उत्सर्जन को कम किया है।

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  • सबसे कम विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन:
    • वर्ष 2019 में वैश्विक उत्सर्जन का केवल 3.3% उत्सर्जन करने वाले सबसे कम विकसित देशों (LDCs) के साथ कार्बन असमानता हमेशा की तरह व्याप्त है।
    • वर्ष 1990-2019 की अवधि में उनका औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन केवल 1.7 टन CO2 था, जबकि वैश्विक औसत 6.9 tCO2e था।
    • वर्ष 1850 से वर्ष 2019 की अवधि में LDC ने जीवाश्म ईंधन और उद्योग से कुल ऐतिहासिक CO2 उत्सर्जन में 0.4% से कम का योगदान दिया।
    • विश्व स्तर पर विश्व की 41% आबादी वर्ष 2019 में प्रति व्यक्ति 3 tCO2e से कम उत्सर्जन करने वाले देशों में रहती थी।

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  • पेरिस समझौते की प्रतिज्ञा:
    • अक्तूबर 2021 तक देशों द्वारा घोषित NDC को जोड़ने पर आईपीसीसी ने पाया कि इस सदी में ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियससे अधिक होने की संभावना है जो पेरिस समझौते के जनादेश को विफल कर देगा।
      • पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों द्वारा की गई वर्तमान प्रतिज्ञाओं को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDCs) के रूप में जाना जाता है।
    • इस योजना के विफल होने में कोयला, तेल और गैस जैसे मौजूदा और नियोजित जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढाँचों का योगदान ज़्यादा होगा।
    • सबसे बेहतर परिदृश्य के रूप में, जिसे C1 मार्ग के तौर पर जाना जाता है,आईपीसीसी इस बात की रूपरेखा तैयार करता है कि तापमान को सीमित या बिना किसी 'ओवरशूट' के 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिये दुनिया को क्या करने की आवश्यकता है।
      • ओवरशूट से तात्पर्य वैश्विक तापमान से है जो अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकता है, लेकिन फिर उन तकनीकों का उपयोग करके वापस लाया जाता है जो वातावरण से CO2अवशोषित करते हैं।
    • C1 मार्ग को प्राप्त करने के लिये वैश्विक GHG उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक 43% की गिरावट होनी चाहिये।

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  • कम उत्सर्जन प्रौद्योगिकियाँ:
    • 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ऊर्जा, भवन, परिवहन, भूमि और अन्य क्षेत्रों में व्यापक 'सिस्टम ट्रांसफॉर्मेशन' की आवश्यकता है तथा इसमें प्रत्येक क्षेत्र में विकास के कम उत्सर्जन या शून्य कार्बन के मार्ग को अपनाना और सस्ती कीमत पर समाधान उपलब्ध कराना शामिल होगा।
    • कम उत्सर्जन प्रौद्योगिकियों की लागत में वर्ष 2010 से लगातार गिरावट आई है। एक इकाई लागत के आधार पर सौर ऊर्जा में 85%, पवन में 55% और लिथियम-आयन बैटरी में 85% की गिरावट दर्ज की गई है।
    • उनकी तैनाती या उपयोग वर्ष 2010 के बाद से कई गुना बढ़ गया है अर्थात् सौर ऊर्जा के लिये 10 गुना तथा इलेक्ट्रिक वाहनों के लिये 100 गुना
    • ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करना, औद्योगिक क्षेत्र में मांग प्रबंधन और ऊर्जा दक्षता तथा भवनों के निर्माण में 'पर्याप्तता' एवं दक्षता के सिद्धांतों को अपनाना समाधानों में से एक है।
  • मांग-पक्ष शमन:
    • रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मांग-पक्ष शमन (Demand-Side Mitigation) अर्थात् व्यवहार परिवर्तन जैसे पौधे-आधारित आहार को अपनाना या पैदल चलना और साइकिल चलाना "आधारभूत परिदृश्यों की तुलना में वर्ष 2050 तक वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन के अंतिम उपयोग क्षेत्रों में 40-70% तक कमी ला सकता है।
      • वर्तमान में मांग-पक्ष शमन की अधिकांश संभावनाएंँ विकसित देशों में निहित हैं।
  • सकल घरेलू उत्पाद पर प्रभाव:
    • IPCC के अनुसार, कम लागत वाले जलवायु शमन विकल्प वर्ष 2030 तक वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन को आधा कर सकते हैं। वास्तव में वार्मिंग को सीमित करने के दीर्घकालिक लाभ, लागत से कहीं अधिक हैं।
    • डीकार्बोनाइज़ेशन (Decarbonisation) में निवेश का वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर न्यूनतम प्रभाव पड़ेगा।
  • सूक्ष्म स्तर पर वित्त में कमी: 
    • हालांँकि महत्त्वाकांक्षी शमन लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु आवश्यक स्तरों पर वित्तीय प्रवाह में कमी देखी जाती है।
    • यह अंतराल कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग (Agriculture, Forestry and Other Land Uses- AFOLU) क्षेत्र तथा  विकासशील देशों के लिये सबसे अधिक है।
      • लेकिन वैश्विक वित्तीय प्रणाली काफी बड़ी है और इन अंतरालों को समाप्त करने के लिये "पर्याप्त वैश्विक पूंजी और तरलता" मौजूद है।
    • विकासशील देशों के लिये यह सार्वजनिक अनुदानों को बढ़ाने की सिफारिश करता है, साथ ही "सार्वजनिक वित्त के स्तर में वृद्धि और सार्वजनिक रूप से जुटाए गए निजी वित्तीय प्रवाह को विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों में 100 बिलियन अमेंरिकी डालर के लक्ष्य को संदर्भित करता है जिसके द्वारा जोखिम को कम करने, कम लागत पर निजी प्रवाह का लाभ उठाने हेतु सार्वजनिक गारंटी के उपयोग में वृद्धि, स्थानीय पूंजी बाज़ार का विकास और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्रक्रियाओं में अधिक विश्वास उत्पन्न किया जाता है।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल:

  • यह जलवायु परिवर्तन से संबंधित विज्ञान का आकलन करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था है।
  • IPCC की स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organisation- WMO) द्वारा वर्ष 1988 में की गई थी। यह जलवायु परिवर्तन पर नियमित वैज्ञानिक आकलन, इसके निहितार्थ और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा शमन के विकल्प भी उपलब्ध कराता है।
  • IPCC आकलन जलवायु संबंधी नीतियों को विकसित करने हेतु सभी स्तरों पर सरकारों के लिये एक वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हैं और वे संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन- जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) में इस पर परिचर्चा करते हैं।

IPCC आकलन रिपोर्ट:

  • आकलन रिपोर्ट, जो कि पहली बार वर्ष 1990 में सामने आई थी, पृथ्वी की जलवायु की स्थिति का सबसे व्यापक मूल्यांकन है।
    • प्रत्येक सात वर्षों में IPCC मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करता है।
  • बदलती जलवायु को लेकर एक सामान्य समझ विकसित करने हेतु सैकड़ों विशेषज्ञ प्रासंगिक, प्रकाशित वैज्ञानिक जानकारी के हर उपलब्ध स्रोत का अध्ययन करते हैं।
  • अन्य चार मूल्यांकन रिपोर्ट्स वर्ष 1995, वर्ष 2001, वर्ष 2007 और वर्ष 2015 में प्रकाशित हुईं।
    • ये रिपोर्ट्स जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया का आधार हैं।
  • प्रत्येक मूल्यांकन रिपोर्ट में पिछली रिपोर्ट के काम पर अधिक सबूत, सूचना और डेटा एकत्रित किया जाता है।
    • ताकि जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों के विषय में अधिक स्पष्टता, निश्चितता और नए साक्ष्य मौजूद हों।
  • इन्हीं वार्ताओं ने पेरिस समझौते और क्योटो प्रोटोकॉल को जन्म दिया था।
    • पाँचवीं आकलन रिपोर्ट के आधार पर पेरिस समझौते पर वार्ता हुई थी।
  • आकलन रिपोर्ट- वैज्ञानिकों के निम्नलिखित तीन कार्यकरी समूहों द्वारा तैयार की जाती है:
    • कार्यकारी समूह- I: जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार से संबंधित है। 
    • कार्यकारी समूह- II : संभावित प्रभावों, कमज़ोरियों और अनुकूलन मुद्दों को देखता है।
    • कार्यकारी समूह-III: जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये की जा सकने वाली कार्रवाइयों से संबंधित है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

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