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जैव विविधता और पर्यावरण

स्वतंत्र पर्यावरण नियामक

  • 11 Mar 2021
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने सरकार से ग्रीन क्लीयरेंस (Green Clearance) की निगरानी के लिये "स्वतंत्र पर्यावरण नियामक" (Independent Environment Regulator) की स्थापना नहीं करने के कारणों को स्पष्ट करने के लिये कहा है।

प्रमुख बिंदु

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने लाफार्ज उमियम माइनिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (Lafarge Umiam Mining Private Limited v. Union of India Case), 2011 जिसे आमतौर पर ‘लाफार्ज माइनिंग केस‘ (Lafarge Mining Case) के रूप में जाना जाता है, मामले की सुनवाई के दौरान ग्रीन क्लीयरेंस की स्वतंत्र निगरानी सुनिश्चित करने के लिये  पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत एक राष्ट्रीय पर्यावरण नियामक संस्था की स्थापना का आदेश दिया था।

नियामक के कार्य:

  • मूल्यांकन और अनुमोदन:
    • यह नियामक परियोजनाओं का स्वतंत्र, वस्तुनिष्ठ और पारदर्शी मूल्यांकन तथा पर्यावरणीय स्वीकृति प्रदान करेगा।
  • निगरानी और कार्यान्वयन:
    • यह नियामक पर्यावरणीय स्वीकृति हेतु निर्धारित शर्तों के कार्यान्वयन की निगरानी के साथ-साथ इन शर्तों का उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना भी लगाएगा। ऐसी शक्तियों का प्रयोग करते हुए नियामक राष्ट्रीय वन नीति (National Forest Policy), 1988 को विधिवत लागू करेगा।

वर्तमान मुद्दे:

  • पर्यावरण प्रभाव आकलन (2006) से संबंधित:
    • क्षमता का अभाव:
      • राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणीय मंज़ूरी एक विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (Expert Appraisal Committee) द्वारा दी जाती है। यह समिति बिना किसी नियामक क्षमता के तदर्थ आधार पर कार्य करती है।
      • राज्य स्तरीय मूल्यांकन समितियाँ विनियामक सहायता के अभाव में इस मंज़ूरी की देखरेख करती हैं।
    • विशेषज्ञता का अभाव:
      • इन समितियों के सदस्यों और अध्यक्षों में विशेषज्ञता की कमी के कारण इनके द्वारा किये जाने वाले पर्यावरणीय प्रभाव आकलन पर प्रश्नचिह्न लगाया जाता रहा है।
    • उचित विधान का अभाव:
      • प्रभावी विधायी शक्ति और संस्थागत क्षमता के बिना विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति और राज्य स्तरीय समितियों को दाँत रहित की संज्ञा दी गई है।
  • विनियमन और बढ़ती लागत:
    • एक ही चीज़ के लिये बहुत सारी मंज़ूरियों की अवश्यकता होती है, जिनमें से कोई भी मंज़ूरी पर्यावरण या समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिये नहीं होती। ऐसी उच्च लागत वाली मंज़ूरियों से उद्योग पर बोझ बढ़ता है।
    •  नियमों तथा नियामकों की बहुलता उद्योगों और सरकार के बीच असंगत तत्त्वों की वृद्धि में सहायक होती है।

आवश्यकता:

  • निष्पक्ष निर्णय:
    • संपूर्ण पर्यावरणीय विनियामक प्रक्रिया की देखरेख करने के लिये एक स्वतंत्र निकाय का अभाव निर्णय लेने में राजनीतिक हित को जन्म दे सकता है।
  • उचित अनुपालन:
    • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन मानदंडों के अनुपालन की निगरानी जैसी प्रमुख चिंताओं से एक नियामक द्वारा उचित मानक स्थापित करके निपटा जा सकता है।
  • क्षमता और स्वतंत्रता:
    • भारत में वर्तमान पर्यावरण विनियमन संस्थागत तंत्र में नियामक क्षमता तथा स्वतंत्रता का अभाव है।
  • विनियामक स्तर पर होने वाली देरी को रोकना:
    • विनियामक स्तर पर होने वाली देरी को कम करना भी महत्त्वपूर्ण है। यह एक विश्वसनीय स्वतंत्र नियामक की मदद से संभव हो सकता है लेकिन पर्यावरण संरक्षण के लिये नियामक प्रक्रिया और मानकों में कठोरता का एक इष्टतम स्तर महत्त्वपूर्ण हो सकता है।

अस्थायी समाधान:

  • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, जब तक एक स्वतंत्र नियामक स्थापित नहीं किया जाता है, तब तक पर्यावरण मंत्रालय को मान्यता प्राप्त संस्थानों का एक पैनल तैयार करना चाहिये, ताकि परियोजनाओं का तत्काल पर्यावरणीय प्रभाव आकलन किया जा सके।

आगे की राह

  • मानकों के निर्धारण, निगरानी और प्रवर्तन की स्वतंत्रता एक प्रभावी नियामक निकाय की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं। एक स्वतंत्र नियामक की स्थापना पर्यावरण कानूनों में सुधार से पहले किया जाना चाहिये।
  • पर्यावरणीय विनियमन हेतु द्वितीय स्तर का सुधार अति आवश्यक है जिससे पर्यावरण के साथ-साथ सामुदायिक अधिकारों की भी रक्षा होगी तथा ऐसे मामलों में उद्योगों की स्थापना में लगने वाले समय एवं लागत दोनों में कमी होगी।
  • अतः वर्तमान में पुरातन कानूनों को हटाकर कानून की बहुलता को कम और नियामक प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने की ज़रूरत है।

स्रोत: द हिंदू

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