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भारतीय राजव्यवस्था

विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की भूमिका

  • 14 Dec 2021
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

राज्यपाल, अनुच्छेद 153, पुंछी आयोग, सरकारिया आयोग

मेन्स के लिये:

राज्यपाल एवं संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गोपीनाथ रवींद्रन को कन्नूर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में फिर से नियुक्त करने को लेकर केरल में विवाद छिड़ गया है।

  • यह नियुक्ति राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल के निर्णय के खिलाफ थी।
  • जबकि कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की शक्तियाँ और कार्य एक विशेष राज्य सरकार के तहत विश्वविद्यालयों को संचालित करने वाली विधियों में निर्धारित किये गए हैं, कुलपतियों की नियुक्ति में उनकी भूमिका ने अक्सर राजनीतिक कार्यपालिका के साथ विवाद को जन्म दिया है।

प्रमुख बिंदु

  • राज्य विश्वविद्यालयों में राज्यपालों की भूमिका:

    • ज़्यादातर मामलों में, राज्य के राज्यपाल उस राज्य के विश्वविद्यालयों के पदेन कुलाधिपति होते हैं।
    • राज्यपाल के रूप में वह मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से कार्य करता है, कुलाधिपति के रूप में वह स्वतंत्र रूप से मंत्रिपरिषद से कार्य करता है तथा विश्वविद्यालय के सभी मामलों पर निर्णय लेता है।
  • केंद्रीय विश्वविद्यालयों का मामला:

    • केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 2009 और अन्य विधियों के तहत, भारत के राष्ट्रपति एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष होंगे।
    • दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता करने तक सीमित उनकी भूमिका के साथ, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलाधिपति नाममात्र के प्रमुख होते हैं, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा आगंतुक के रूप में नियुक्त किया जाता है।
    • कुलपति को भी केंद्र सरकार द्वारा गठित खोज और चयन समितियों द्वारा चुने गए नामों के पैनल से विज़िटर द्वारा नियुक्त किया जाता है।
    • अधिनियम में यह भी कहा गया है कि राष्ट्रपति को कुलाध्यक्ष के रूप में विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक पहलुओं के निरीक्षण को अधिकृत करने और पूछताछ करने का अधिकार होगा।
  • राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

    • संविधान के मुताबिक, राज्य का राज्यपाल दोहरी भूमिका अदा करता है:
      • वह राज्य के मंत्रिपरिषद (CoM) की सलाह मानने को बाध्य राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है।
      • वह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल का प्रावधान किया गया है। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
      • राज्यपाल केंद्र सरकार का एक नामित व्यक्ति होता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
    • अनुच्छेद 163: कुछ विवेकाधीन शक्तियों के अतिरिक्त राज्यपाल को उसके अन्य सभी कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद का गठन किये जाने का प्रावधान है।
    • अनुच्छेद 200: राज्यपाल, राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को अनुमति देता है, अनुमति रोकता है अथवा राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयक को सुरक्षित रखता है।
    • अनुच्छेद 213: राज्यपाल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अध्यादेशों को प्रख्यापित कर सकता है।
  • राज्यपाल की भूमिका संबंधित विवाद

    • केंद्र सरकार द्वारा सत्ता का दुरुपयोग: प्रायः केंद्र में सत्ताधारी दल के निर्देश पर राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।
      • राज्यपाल की नियुक्ति की प्रकिया को इसमें एक प्रमुख कारण माना जाता है।
    • पक्षपाती विचारधारा: कई मामलों में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा वाले राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के रूप में नियुक्त किया जाता है।
      • यह संवैधानिक रूप से अनिवार्य तटस्थ पद के पूर्ण विरुद्ध है और यह पक्षपात को जन्म देता है, जैसा कि कर्नाटक तथा गोवा के मामलों में देखा गया।
    • कठपुतली शासक: हाल ही में राजस्थान के राज्यपाल पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है।
      • केंद्रीय सत्ताधारी दल के प्रति उनका समर्थन गैर-पक्षपात की भावना के विरुद्ध है जिसकी अपेक्षा संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति से की जाती है।
      • ऐसी घटनाओं के कारण ही राज्य के राज्यपाल के लिये केंद्र के एजेंट, कठपुतली और रबर स्टैम्प जैसे नकारात्मक शब्दों का उपयोग किया जाता है।
    • एक विशेष राजनीतिक दल का पक्ष लेना: चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी/गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने की राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रायः किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया जाता है।
    • शक्ति का अनुचित उपयोग: प्रायः यह देखा गया है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के लिये राज्यपाल की सिफारिश सदैव 'तथ्यों' पर आधारित न होकर राजनीतिक भावना और पूर्वाग्रह पर आधारित होती है।
  • राज्यपाल के पद से संबंधित सिफारिशें:

    • राज्यपाल की नियुक्ति और निष्कासन के संबंध में
      • ‘पुंछी आयोग’ (2010) ने सिफारिश की थी कि राज्य विधायिका द्वारा राज्यपाल पर महाभियोग चलाने का प्रावधान संविधान में शामिल किया जाना चाहिये।
      • राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य के मुख्यमंत्री की राय भी ली जानी चाहिये।
    • अनुच्छेद 356 के संबंध में
      • ‘पुंछी आयोग’ ने अनुच्छेद 355 और 356 में संशोधन करने की सिफारिश की थी।
      • ‘सरकारिया आयोग’ (1988) ने सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 356 का उपयोग बहुत ही दुर्लभ मामलों में विवेकपूर्ण तरीके से ऐसी स्थिति में किया जाना चाहिये जब राज्य में संवैधानिक तंत्र को बहाल करना अपरिहार्य हो गया हो।
      • इसके अलावा प्रशासनिक सुधार आयोग (1968), राजमन्नार समिति (1971) और न्यायमूर्ति वी. चेलैया आयोग (2002) आदि ने भी इस संबंध में सिफारिशें की हैं।
    • अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संबंध में
      • एस.आर. बोम्मई मामला (1994): इस मामले के तहत केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों की मनमानी बर्खास्तगी को समाप्त कर दिया गया।
      • निर्णय के मुताबिक, विधानसभा ही एकमात्र ऐसा मंच है, जहाँ तत्कालीन सरकार के बहुमत का परीक्षण करना चाहिये, न कि राज्यपाल की व्यक्तिपरक राय के आधार पर।
    • विवेकाधीन शक्तियों के संबंध में
      • नबाम रेबिया मामले (2016) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग सीमित है और राज्यपाल की कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक तथ्यों के आधार पर नहीं होनी चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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