भारतीय राजव्यवस्था
राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति
- 26 Apr 2023
- 14 min read
प्रिलिम्स के लिये:राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति, सर्वोच्च न्यायालय, विधानसभाएँ, अनुच्छेद 200, अनुच्छेद 201, राज्यपाल द्वारा विलंब, अनुच्छेद 355 मेन्स के लिये:राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति, राज्यपाल द्वारा विलंब और इससे संबंधित मुद्दे. |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल की सहमति के लिये भेजे गए विधेयकों को "जितनी जल्दी हो सके" वापस कर दिया जाना चाहिये, उन्हें रोकना नहीं चाहिये, क्योंकि राज्यपाल की शिथिलता के कारण राज्य विधानसभाओं को अनिश्चित काल तक इंतजार करना पड़ता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने तेलंगाना राज्य द्वारा दायर एक याचिका में अपने न्यायिक आदेश में कहा कि राज्यपाल के पास भेजे गए कई महत्त्वपूर्ण विधेयकों को लंबित रखा गया है।
राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्तियाँ:
- अनुच्छेद 200:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को सहमति के लिये राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जो या तो सहमति दे सकता है, सहमति को रोक सकता है या राष्ट्रपति द्वारा विचार के लिये विधेयक को आरक्षित कर सकता है।
- राज्यपाल सदन या सदनों द्वारा पुनर्विचार का अनुरोध करने वाले संदेश के साथ विधेयक को वापस भी कर सकता है।
- अनुच्छेद 201:
- इसमें कहा गया है कि जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित होता है, तो राष्ट्रपति विधेयक पर सहमति दे सकता है या उस पर रोक लगा सकता है।
- राष्ट्रपति विधेयक पर पुनर्विचार करने के लिये राज्यपाल को उसे सदन या राज्य के विधानमंडल के सदनों को वापस भेजने का निर्देश भी दे सकता है।
- राज्यपाल के पास उपलब्ध विकल्प:
- वह सहमति दे सकता है या विधेयक के कुछ प्रावधानों या विधेयक पर स्वयं पुनर्विचार करने का अनुरोध करते हुए इसे विधानसभा को वापस भेज सकता है।
- वह राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयक को आरक्षित कर सकता है, लेकिन ऐसा केवल तभी किया जा सकता है जब राज्यपाल की यह राय है कि विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति को जोखिम में डाल सकता है।
- वह राष्ट्रपति के विचार हेतु विधेयक को आरक्षित कर सकता है। आरक्षण अनिवार्य है जहाँ राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक राज्य उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता है। हालाँकि राज्यपाल विधेयक को आरक्षित भी कर सकता है यदि यह निम्नलिखित प्रकृति का हो:
- संविधान के प्रावधानों के खिलाफ
- नीति निदेशक तत्त्वों का विरोध
- देश के व्यापक हित के खिलाफ
- गंभीर राष्ट्रीय महत्त्व का,
- संविधान के अनुच्छेद 31A के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित हो।
- एक अन्य विकल्प सहमति को रोकना है, लेकिन ऐसा सामान्य रूप से किसी भी राज्यपाल द्वारा नहीं किया जाता है क्योंकि यह एक अत्यंत अलोकप्रिय कार्यवाही होगी।
सर्वोच्च न्यायालय की सलाह:
- संविधान के अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि विधानसभाओं द्वारा पारित किये जाने के बाद उन्हें सहमति के लिये भेजे गए विधेयकों पर राज्यपालों को देरी नहीं करनी चाहिये।
- "जितनी जल्दी हो सके" उन्हें लौटा दिया जाना चाहिये और अपने पास लंबित नहीं रखना चाहिये। इस अनुच्छेद में अभिव्यक्ति "जितनी जल्दी हो सके" का महत्त्वपूर्ण संवैधानिक उद्देश्य है और संवैधानिक प्राधिकारी को इसे ध्यान में रखना चाहिये।
राज्यपाल द्वारा विलंब के हाल के उदाहरण:
- तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें केंद्र सरकार और राष्ट्रपति से आग्रह किया गया है कि सदन में लाए गए विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति के लिये एक समय-सीमा निर्धारित की जाए।
- उदाहरण के लिये तमिलनाडु के राज्यपाल ने राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) से छूट वाले विधेयक को काफी विलंब के बाद राष्ट्रपति को भेजा।
- केरल में राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक रूप से की गई घोषणा कि वह लोकायुक्त संशोधन विधेयक और केरल विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को स्वीकृति नहीं देंगे, की वजह से अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है ।
विलंबित सहमति के खिलाफ कानूनी तर्क:
- राज्यों का संवैधानिक दायित्त्व:
- विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की निष्क्रियता एक ऐसी स्थिति पैदा करती है जहाँ राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होती है।
- यदि राज्यपाल संविधान के अनुसार कार्य करने में विफल रहता है, तो राज्य सरकार का संवैधानिक दायित्त्व है कि वह अनुच्छेद 355 को लागू करे और यह अनुरोध करते हुए राष्ट्रपति को सूचित करे कि सरकार की प्रक्रिया संविधान के अनुसार संचालित हो, यह सुनिश्चित करने के लिये राज्यपाल को उचित निर्देश जारी किये जाएँ।
- सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:
- संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को अपनी शक्तियों का प्रयोग कर किये गए किसी भी कार्य के लिये अदालती कार्यवाही से पूर्ण छूट प्राप्त है।
- यह प्रावधान तब एक अजीब स्थिति उत्पन्न करता है जब किसी सरकार को किसी विधेयक पर सहमति रोकने की राज्यपाल की कार्रवाई को चुनौती देने की आवश्यकता हो सकती है।
- अत: राज्यपाल को यह घोषणा करते हुए कि वह किसी विधेयक पर सहमति नहीं देता/देती है, उसे इस तरह की अस्वीकृति के कारण का खुलासा करना होगा, एक उच्च संवैधानिक प्राधिकारी होने के नाते वह मनमाने ढंग से कार्य नहीं कर सकता/सकती है।
- यदि इनकार करने का आधार दुर्भावनापूर्ण या बाहरी विचार या अधिकारातीत प्रतीत होता है, तो राज्यपाल के इनकार करने की कार्रवाई को असंवैधानिक करार दिया जा सकता है।
- रामेश्वर प्रसाद और ओआरएस बनाम भारत संघ एवं एएनआर मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने इन बिंदुओं को तय किया है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि "अनुच्छेद 361(1) द्वारा प्रदान की गई प्रतिरक्षा दुर्भावना के आधार पर कार्रवाई की वैधता की समीक्षा करने की न्यायालय की क्षमता को सीमित नहीं करती है।
- संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को अपनी शक्तियों का प्रयोग कर किये गए किसी भी कार्य के लिये अदालती कार्यवाही से पूर्ण छूट प्राप्त है।
विदेशों में उपयोग में लाई जाने वाली प्रथाएँ:
- यूनाइटेड किंगडम:
- किसी विधेयक को कानून बनाने के लिये शाही सहमति की आवश्यकता की प्रथा यूनाइटेड किंगडम में मौजूद है, लेकिन अभ्यास और उपयोग से क्राउन के पास कानून को खत्म करने का अधिकार नहीं है। विवादास्पद आधारों पर शाही सहमति को अस्वीकार करना असंवैधानिक के रूप में देखा जाता है।
- अमेरिका:
- संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति किसी विधेयक को स्वीकृति देने से इनकार कर सकता है, लेकिन इसे प्रत्येक सदन के दो-तिहाई सदस्यों के साथ फिर से पारित किये जाने के बाद यह विधेयक कानून बन जाता है।
नोट:
- अन्य लोकतांत्रिक देशों में सहमति से इनकार की प्रथा देखने को नहीं मिलती है और कुछ मामलों में संविधान द्वारा एक उपाय प्रदान किया जाता है ताकि सहमति से इनकार के बावजूद विधायिका द्वारा पारित विधेयक कानून बन सके।
आगे की राह
- संविधान निर्माताओं को इस बात का अनुमान नहीं था कि अनुच्छेद 200 के तहत राजपाल किसी विधेयक पर कोई कार्रवाई किये बिना अनिश्चितकाल तक के लिये उसे अपने पास रख सकता है।
- राज्यपाल की ओर से टालमटोल एक नई घटना है जिसके लिये संविधान के ढाँचे में कुछ नए बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय को देश में संघवाद के हित में विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर निर्णय लेने के लिये राज्यपालों हेतु एक उचित समय सीमा निर्धारित करनी चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न:प्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सी किसी राज्य के राज्यपाल को दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ हैं? (2014)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा सही है? (2013) (a) भारत में एक ही व्यक्ति को एक समय में दो या अधिक राज्यों में राज्यपाल नियुक्त नहीं किया जा सकता। उत्तर: (c) प्रश्न. क्या उच्चतम न्यायालय का फैसला (जुलाई 2018) दिल्ली के उपराज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच राजनीतिक कशमकश को निपटा सकता है? परीक्षण कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2018) प्रश्न. 69वें संविधान संशोधन अधिनियम के उन अत्यावश्यक तत्त्वों और विषमताओं, यदि कोई हों, पर चर्चा कीजिये, जिन्होंने दिल्ली के प्रशासन में निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं उप-राज्यपाल के बीच हाल में समाचारों में आए मतभेदों को पैदा कर दिया है। क्या आपके विचार में इससे भारतीय परिसंघीय राजनीति के प्रकार्यण में एक नई प्रवृत्ति का उदय होगा? (मुख्य परीक्षा, 2016) |