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सामाजिक न्याय

महिलाओं द्वारा भारतीय कानून लैंगिक आधार पर दुरुपयोग

  • 17 Dec 2024
  • 17 min read

प्रिलिम्स के लिये:

जनहित याचिका, सर्वोच्च न्यायालय, दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961, धारा 498A, भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005, विधि आयोग।

मेन्स के लिये:

दहेज़ और घरेलू हिंसा कानूनों का दुरुपयोग और संबंधित मुद्दे, लिंग तटस्थ कानून की आवश्यकता

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, बंगलूरू में एक तकनीकी विशेषज्ञ के आत्महत्या करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है, जिसमें दहेज़ और घरेलू हिंसा से जुड़े मौजूदा कानूनों की समीक्षा और सुधार का अनुरोध किया गया है ताकि उनका दुरुपयोग रोका जा सके।

भारतीय कानून किस प्रकार लिंग-पक्षपाती हैं?

  • IPC की धारा 304B (दहेज़ मृत्यु): समय के साथ लोगों को यह विश्वास दिलाया गया कि विवाहित भारतीय महिला की हर अप्राकृतिक या असामयिक रूप से हुई मृत्यु दहेज़ मृत्यु है
    • ऐसे मामलों में पति या रिश्तेदार को कम-से-कम सात वर्ष के कारावास की सज़ा दी जाएगी, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
  • IPC की धारा 498A (महिलाओं के प्रति क्रूरता): धारा 498A के तहत विवाहित महिला के प्रति क्रूरता या उत्पीड़न का दोषी पाए जाने पर पति या उसके रिश्तेदारों को तीन साल तक की कैद और ज़ुर्माने का प्रावधान है।
    • धारा 304B एक गैर-ज़मानती, गैर-समझौता योग्य और संज्ञेय अपराध है, जिसका अर्थ है कि यदि आरोप झूठा भी हो तब भी मुकदमा चलेगा और पति को निर्दोष साबित होने तक दोषी माना जाएगा।
    • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2012 में लगभग 200,000 लोगों को अप्रमाणित दहेज़ के आरोपों में गिरफ्तार किया गया, जिनमें से केवल 15% अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया।
  • IPC की धारा 375 (बलात्कार): IPC की धारा 375 के तहत केवल पुरुष ही अपराधी हो सकते हैं और महिलाएँ ही बलात्कार की शिकार हो सकती हैं। यह धारा पुरुषों और ट्रांसजेंडरों को बलात्कार पीड़ित के रूप में मान्यता नहीं देती है। 
    • भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पुरुष पीड़ितों के लिये एकमात्र विकल्प है, लेकिन इसमें कई चुनौतियाँ हैं तथा यह पुरुषों द्वारा पुरुषों पर किये जाने वाले यौन शोषण को बलात्कार के रूप में वर्गीकृत नहीं करती है।
  • BNS की धारा 69: यह "धोखे से यौन संबंध बनाने" को अपराध मानती है, जिसमें "बिना इरादे के किसी महिला से शादी करने का वादा करना" भी शामिल है, जिसके लिये 10 साल तक की कैद और ज़ुर्माना हो सकता है।
    • शादी के वादे पर सहमति से बनाया गया यौन संबंध तभी अपराध माना जाएगा जब पुरुष इससे मुकर जाए, महिला नहीं।
    • "शादी का वादा" करना गैरकानूनी है, जिससे किसी व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है, जबकि इस तथ्य की अनदेखी की जा सकती है कि महिला ने स्वेच्छा से इस रिश्ते में प्रवेश किया है।
  • IPC की धारा 354: यह महिला की मर्यादा और मान सम्मान को क्षति पहुँचाने के लिये उस पर किया गया हमला या उसके साथ गलत मंशा के साथ ज़ोर जबरदस्ती है। हालाँकि पुरुष और ट्रांसजेंडर की मर्यादा और मान सम्मान की रक्षा के लिये ऐसा कोई कानून नहीं बनाया गया है।
    • ऐसे मामले भी देखने को मिलते हैं जिनमें महिलाएँ पुरुषों को धमकाती हैं तथा इसके लिये उन पर कोई मुकदमा नहीं चलता (क्योंकि देश के कानून में ऐसे अपराधों से पुरुषों की रक्षा नहीं की गई है) है।
  • CrPC अधिनियम, 1973 की धारा 125: भारत में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत न केवल पत्नी बल्कि उसके माता-पिता एवं बच्चों के लिये भी भरण-पोषण की अवधारणा को निर्धारित किया गया है।
    • भरण-पोषण कानून का उद्देश्य पुरुषों को अपने आश्रितों के भरण-पोषण के लिये पूरी तरह ज़िम्मेदार बनाना (बिना इस बात पर विचार किए कि महिलाओं को वास्तव में वित्तीय सहायता की आवश्यकता है या नहीं) है।
  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005: इसमें पुरुषों तथा ट्रांसजेंडर को घरेलू दुर्व्यवहार के संभावित शिकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है।
    • अपने जीवनसाथियों से उत्पीड़न या दुर्व्यवहार का सामना करने वाले पुरुषों को इस अधिनियम के तहत कोई विधिक संरक्षण प्राप्त नहीं है और ऐसे मामलों की रिपोर्ट करने पर उन्हें अक्सर संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
  • हिरासत और तलाक की कार्यवाही: हिरासत विवादों में न्यायालय अक्सर प्राथमिक देखभालकर्त्ता के रूप में महिलाओं का पक्ष लेते हैं और इसमें पुरुषों को अक्सर हाशिये पर रखा जाता है। 
  • यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012: एकल महिला किसी भी बच्चे को गोद ले सकती है लेकिन एकल पुरुष बालिका को गोद नहीं ले सकता है। 
    • विवाहित संबंध होने की स्थिति में पति-पत्नी दोनों को गोद लेने के लिये सहमत होना आवश्यक है।

नोट: प्रवीण कुमार जैन-अंजू जैन तलाक मामला, 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने पत्नी के लिये गुजारा भत्ता निर्धारित करने हेतु आठ कारक निर्धारित किये। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • पक्षों की सामाजिक और वित्तीय स्थिति
  • पत्नी और आश्रित बच्चों की उचित आवश्यकताएँ
  • पक्षों की व्यक्तिगत योग्यताएँ एवं रोज़गार की स्थिति
  • आवेदक के स्वामित्व वाली स्वतंत्र आय या संपत्ति
  • वैवाहिक घर में पत्नी का जीवन स्तर
  • पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के लिये किये गए रोज़गार का त्याग
  • गैर-कामकाजी पत्नी के लिये उचित मुकदमेबाज़ी लागत
  • पति की वित्तीय क्षमता, उसकी आय, भरण-पोषण दायित्व एवं देयताएँ

झूठे आरोपों तथा विधिक रूप से उत्पीड़न के क्या प्रभाव होते हैं? 

  • अवसाद और चिंता: झूठे आरोप या विधिक रूप से उत्पीड़न द्वारा गंभीर मनोवैज्ञानिक संकट उत्पन्न हो सकता है जिससे विश्वासघात, असहायता और दीर्घकालिक चिंता की भावना उत्पन्न हो सकती है।
  • सामाजिक कलंक: विधिक उत्पीड़न या झूठे आरोपों का सामना करने वाले पुरुषों को दोषी या अविश्वसनीय के रूप में संदर्भित किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप ये परिवार एवं दोस्तों के साथ सामाजिक नेटवर्क से अलग-थलग हो सकते हैं।
  • दमित भावनाएँ: पुरुषों से दृढ़ एवं लचीला होने की सामाजिक अपेक्षाएँ उन्हें अपनी कमज़ोरी व्यक्त करने या सहायता मांगने से हतोत्साहित करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप आंतरिक संकट एवं अनुचित मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • वैवाहिक आत्महत्या दर: NCRB के आँकड़े दर्शाते हैं कि विवाहित पुरुषों में महिलाओं की तुलना में आत्महत्या की दर काफी अधिक है, जिसका आंशिक कारण विधिक एवं सामाजिक चुनौतियाँ हैं। 
  • वित्तीय भार: कई पुरुषों के लिये कानूनी प्रक्रियाओं की फीस का भार तथा रोज़गार की संभावित हानि, वित्तीय रूप से विनाशकारी हो सकती है।

झूठे आरोपों के मामले में निवारण

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के अंतर्गत पति, मानहानि का मुकदमा दायर कर सकता है।
  • CrPC की धारा 9 के तहत पति उस क्षतिपूर्ति की वसूली के लिये दावा दायर कर सकता है, जो उसे और उसके परिवार को क्रूरता एवं दुर्व्यवहार के झूठे आरोपों के कारण हुई है।
  • IPC की धारा 182 के तहत 498A से संबंधित झूठे मामलों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान की गई है। झूठे बयान देने पर न्यायपालिका को गुमराह करने के आरोप में व्यक्ति को 6 महीने की कैद, ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं।

भारतीय कानून में लैंगिक पूर्वाग्रह से संबंधित न्यायिक दृष्टिकोण क्या है?

  • साक्षी बनाम भारत संघ मामला, 1999: सर्वोच्च न्यायालय ने विधि आयोग को लिंग-तटस्थ बलात्कार कानून के मुद्दे से निपटने का निर्देश दिया।   
    • परिणामस्वरूप, विधि आयोग की वर्ष 2000 की 172वीं रिपोर्ट में बलात्कार के अपराध के स्थान पर "यौन हमले" के रूप में लिंग-तटस्थ अपराध को शामिल करने की सिफारिश की गई।
  • प्रिया पटेल बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामला, 2006: इस मामले में, अपराधी की पत्नी ने बलात्कार को देखा, पीड़िता को थप्पड़ मारा, दरवाज़ा बंद किया और आपराधिक मंशा में संलिप्तता को प्रदर्शित किया। 
    • हालाँकि न्यायालय ने फैसला दिया कि उसे बलात्कार का दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह एक महिला थी।
  • सुशील कुमार शर्मा केस, 2005: याचिकाकर्त्ता ने समानता का उल्लंघन करने के लिये IPC की धारा 498A को चुनौती दी।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस प्रावधान के दुरुपयोग से विधिक अतिवाद को बढ़ावा मिल सकता है, लेकिन इसकी संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि इसका मुख्य उद्देश्य दहेज़ हत्याओं को रोकना है।
  • चंद्रभान केस, 1954: चंद्रभान केस, 1954 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पति-पत्नी के बीच मतभेद और शत्रुता के दौरान सबसे अधिक नुकसान बच्चों को होता है, क्योंकि पति-पत्नी के खिलाफ अधिकांश शिकायतें क्षणिक आवेश में आकर व्यर्थ बहस के कारण की जाती हैं।
  • अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य, 2014: सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 498A के तहत अभियुक्त की गिरफ्तारी के समय सावधानी बरतने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, क्योंकि यह एक गैर-ज़मानती और संज्ञेय अपराध है।

भारतीय कानूनों में लैंगिक तटस्थता कैसे प्राप्त की जाए?

  • लैंगिक पूर्वाग्रह को स्वीकार करना: यह पुराना दृष्टिकोण कि पुरुष अपराधी होते हैं और महिलाएँ पीड़ित होती हैं, इस तथ्य की अनदेखी करता है कि पुरुष भी घरेलू हिंसा, उत्पीड़न तथा झूठे आरोपों के शिकार हो सकते हैं।
    • विधिक सुधारों को इन वास्तविकताओं को स्वीकार करना चाहिये तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि कानून पुरुषों, महिलाओं तथा अन्य लिंगों को समान रूप से संरक्षण प्रदान करें।
  • आपराधिक न्याय प्रणाली को संवेदनशील बनाना: न्यायाधीशों, विधिक पेशेवरों और पुलिस को लैंगिक रूढ़िवादिता पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों तथा कार्यशालाओं के माध्यम से अपने स्वयं के अचेतन पूर्वाग्रहों को पहचानने एवं चुनौती देने के लिये संवेदनशील बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये।
  • मौजूदा कानूनों में संशोधन: लैंगिक रूप से तटस्थ भाषा को अपनाना आवश्यक है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि पुरुष और महिला (यहाँ तक कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति भी) समान रूप से संरक्षित हों। 
    • उदाहरण के लिये, "पति" या "पत्नी" के स्थान पर "जीवनसाथी" जैसे शब्दों का प्रयोग यह सुनिश्चित करता है कि कानून लैंगिक दृष्टिकोण से एक को दूसरे पर वरीयता नहीं देता है।
  • पुरुषों कल्याण के लिये संस्थाएँ: संस्थाओं को लैंगिक रूप से तटस्थ होना चाहिये। महिला मंत्रालय का नाम बदलकर मानव विकास कल्याण मंत्रालय करने की ज़रूरत है ताकि हर व्यक्ति की सुरक्षा हो सके।
  • समाज को संवेदनशील बनाना: लैंगिक तटस्थता प्राप्त करने के लिये उन रूढ़िवादिताओं को चुनौती देने की आवश्यकता है जो पुरुषों को मज़बूत और भावनाहीन तथा महिलाओं को कमज़ोर और पोषण करने वाली के रूप में देखती हैं। 
    • पुरुष और महिला दोनों ही पीड़ित या अपराधी हो सकते हैं तथा उनके साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिये।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

Q. लैंगिक समानता के संदर्भ में, भारतीय कानूनों में पूर्वाग्रहों की जाँच कीजिये। भारत में लैंगिक-तटस्थ कानून बनाने के लिये कौन से सुधार आवश्यक हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा विश्व के देशों के लिये 'सार्वभौमिक लैंगिक अंतराल सूचकांक' का श्रेणीकरण प्रदान करता है? (2017)

(a) विश्व आर्थिक मंच
(b) संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद
(c) संयुक्त राष्ट्र महिला
(d) विश्व स्वास्थ्य संगठन

उत्तर: (a)


मेन्स

प्रश्न 1 ''महिला सशक्तीकरण जनसंख्या संवृद्धि को नियंत्रित करने की कुंजी है।'' चर्चा कीजिये। (2019)

प्रश्न 2. भारत में महिलाओं पर वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (2015)

प्रश्न 3. महिला संगठनों को लिंग-भेद से मुक्त करने के लिये पुरुषों की सदस्यता को बढ़ावा मिलना चाहिये। टिप्पणी कीजिये। (2013)

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