भारतीय अर्थव्यवस्था
फुल-रिज़र्व बैंकिंग बनाम फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग
- 28 Jul 2023
- 7 min read
प्रिलिम्स के लिये:फुल-रिज़र्व बैंकिंग, फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग, बैंक संचालन, जमा बीमा और क्रेडिट गारंटी निगम मेन्स के लिये:भारत में बैंकिंग क्षेत्र से संबंधित मुद्द |
चर्चा में क्यों?
अर्थशास्त्रियों के बीच फुल-रिज़र्व बैंकिंग (100% रिज़र्व बैंकिंग) बनाम फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है।
- हालाँकि दोनों प्रणालियों के अपने समर्थक और आलोचक हैं, आर्थिक विकास तथा वित्तीय स्थिरता पर उनके संभावित प्रभाव का आकलन करने के लिये उनके बीच महत्त्वपूर्ण अंतर को समझना आवश्यक है।
फुल-रिज़र्व बैंकिंग बनाम फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग:
- फुल-रिज़र्व बैंकिंग: जमा की सुरक्षा
- फुल-रिज़र्व बैंकिंग के तहत बैंकों को ग्राहकों से प्राप्त मांग जमा को उधार देने से सख्ती से प्रतिबंधित किया जाता है जिससे प्रतिबंध के जोखिम को कम किया जा सकता है।
- इसके बजाय उन्हें केवल संरक्षक के रूप में कार्य करते हुए इन जमाओं का 100% हमेशा अपने कक्ष (Vaults) में रखना चाहिये।
- बैंक इस सेवा के लिये शुल्क लेकर जमाकर्ताओं के पैसे के सुरक्षित रक्षक के रूप में कार्य करते हैं।
- बैंक केवल सावधि जमा के रूप में प्राप्त धन को उधार दे सकते हैं।
- फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग: क्रेडिट और जोखिम का विस्तार:
- फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग प्रणाली, जो वर्तमान में चलन में है, बैंकों को उनकी रिज़र्व में रखी नकदी से अधिक धन उधार देने की अनुमति देती है।
- यह प्रणाली उधार देने के लिये इलेक्ट्रॉनिक मनी पर बहुत अधिक निर्भर करती है।
- यदि कई जमाकर्ता एक साथ नकदी की मांग करते हैं तो बैंक बंद होना एक संभावित जोखिम है।
- बैंक बंद होने से कई जमाकर्ताओं द्वारा एक साथ नकदी की मांग करने का संभावित जोखिम है।
- हालाँकि केंद्रीय बैंक तत्काल संकट को टालने के लिये आपातकालीन नकदी प्रदान कर सकता है।
- फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग प्रणाली, जो वर्तमान में चलन में है, बैंकों को उनकी रिज़र्व में रखी नकदी से अधिक धन उधार देने की अनुमति देती है।
- अलग-अलग दृष्टिकोण:
- फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग के समर्थकों का तर्क है कि यह अर्थव्यवस्था को केवल जमाकर्ताओं की वास्तविक बचत पर निर्भर होने से मुक्त करके निवेश तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है।
- दूसरी ओर, फुल-रिज़र्व बैंकिंग के समर्थकों का तर्क है कि यह फ्रैक्शनल-रिज़र्व प्रणाली में निहित संकटों को रोकता है तथा अधिक स्थिर अर्थव्यवस्था की ओर ले जाता है।
- फ्रैक्शनल-रिज़र्व बैंकिंग के समर्थकों का तर्क है कि यह अर्थव्यवस्था को केवल जमाकर्ताओं की वास्तविक बचत पर निर्भर होने से मुक्त करके निवेश तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है।
मांग जमा और सावधि जमा के बीच अंतर:
- मांग जमा:
- मांग जमा से तात्पर्य बैंक खाते में रखी धनराशि से है जिसे बिना किसी नोटिस या जुर्माने के किसी भी समय निकाला जा सकता है।
- इन्हें "चालू खाते" के रूप में भी जाना जाता है।
- यह रोज़मर्रा के लेन-देन और भुगतान के लिये उच्च तरलता तथा अनुकूलन प्रदान करता है।
- चूँकि ग्राहक मांग पर धनराशि निकाल सकते हैं, बैंक आमतौर पर इन खातों पर बहुत कम या कोई ब्याज नहीं देते हैं।
- मांग जमा से तात्पर्य बैंक खाते में रखी धनराशि से है जिसे बिना किसी नोटिस या जुर्माने के किसी भी समय निकाला जा सकता है।
- सावधि जमा:
- सावधि जमा एक निश्चित अवधि के लिये बैंक खाते में रखी गई धनराशि है, जिसे आमतौर पर "अवधि" या "कार्यकाल" के रूप में जाना जाता है।
- खाताधारक अवधि समाप्त होने तक धनराशि नहीं निकालने के लिये सहमत होते हैं।
- पैसे को लॉक करने के बदले में बैंक खाताधारक को मांग जमा की तुलना में अधिक ब्याज दर से पुरस्कृत करता है।
- हालाँकि परिपक्वता तिथि से पहले धनराशि निकालने पर आमतौर पर जुर्माना लगता है।
- सावधि जमा एक निश्चित अवधि के लिये बैंक खाते में रखी गई धनराशि है, जिसे आमतौर पर "अवधि" या "कार्यकाल" के रूप में जाना जाता है।
बैंक से धन निकालने की होड़
- परिचय:
- बैंक संचालन उस स्थिति को संदर्भित करता है जहाँ बड़ी संख्या में जमाकर्ता एक साथ बैंक से अपना धन बैंक की सॉल्वेंसी या स्थिरता संबंधी चिंताओं के कारण निकालते हैं।
- प्रभाव:
- चलनिधि संकट: आकस्मिक और बड़े पैमाने पर धन की निकासी से बैंक के लिये चलनिधि संकट (Liquidity Crisis) उत्पन्न हो सकता है।
- बैंक के पास सभी निकासी अनुरोधों को पूर्ण करने हेतु पर्याप्त नकदी भंडार नहीं हो सकता है, जिससे जमाकर्ताओं के बीच घबराहट बढ़ सकती है।
- संक्रामक प्रभाव: किसी एक बैंक पर निर्भर रहने वाला बैंक प्रभावित हो सकता है, जिससे सिस्टम में शामिल अन्य बैंकों में भय उत्पन्न हो सकता है।
- यदि इस संक्रामक प्रभाव पर तुरंत काबू नहीं पाया गया तो यह व्यापक वित्तीय संकट का कारण बन सकता है।
- भरोसे की कमी: एक बैंक के दिवालिया होने से संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली से आम जनता का भरोसा गिर सकता है, जिससे वित्तीय संस्थानों में भरोसे की कमी हो सकती है।
- इसके परिणामस्वरूप जमा पूंजी में दीर्घकालिक कमी हो सकती है, जिससे बैंकों को ऋण प्रदान करना और आर्थिक विकास का समर्थन करना कठिन हो जाएगा।
- इससे अर्थव्यवस्था के अनौपचारिकीकरण में वृद्धि हो सकती है।
- चलनिधि संकट: आकस्मिक और बड़े पैमाने पर धन की निकासी से बैंक के लिये चलनिधि संकट (Liquidity Crisis) उत्पन्न हो सकता है।
नोट:
भारत में जमा बीमा और ऋण गारंटी निगम (DICGC) एक निश्चित सीमा (वर्तमान में प्रति बैंक पर प्रति जमाकर्त्ता 5 लाख रुपए) तक बैंक जमा के लिये जमा बीमा प्रदान करता है। हालाँकि बैंक के विफल होने की स्थिति में इस सीमा से अधिक धनराशि वाले जमाकर्ताओं को नुकसान का सामना करना पड़ सकता है।