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भारतीय राजनीति

भारतीय संविधान की गतिशील प्रकृति

  • 01 Oct 2024
  • 15 min read

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

भारत के मुख्य न्यायाधीश, संविधान, निजता का अधिकार, अनुच्छेद 368, संसद में बहुमत के प्रकार, संसद, मूल अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय

मुख्य परीक्षा के लिये:

संविधान एक जीवंत दस्तावेज के रूप में, संविधान संशोधन, संवैधानिक व्याख्या के संदर्भ में बदलते सामाजिक संदर्भ।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने संविधान की गतिशील प्रकृति पर बल देते हुए कहा कि कोई भी पीढ़ी इसकी व्याख्या पर एकाधिकार का दावा नहीं कर सकती है।

  • मुख्य न्यायाधीश ने बदलते सामाजिक, विधिक और आर्थिक संदर्भों के आलोक में संविधान की अनुकूलनशीलता की क्षमता पर बल देते हुए इसकी तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका के मौलिकतावाद के सिद्धांत से की।

संवैधानिक सिद्धांत समाज के अनुरूप क्यों विकसित होने चाहिये?

  • संविधान एक जीवंत दस्तावेज है: मुख्य न्यायाधीश ने "जीवंत संविधान" की अवधारणा पर प्रकाश डाला, जिसका तात्पर्य है कि इसकी व्याख्या बदलते सामाजिक मानदंडों के अनुरुप होनी चाहिये।
    • इससे संवैधानिक न्यायालयों को समय के साथ उत्पन्न होने वाली नई चुनौतियों के लिये न केवल समाधान ढूँढने में सहायता मिलती है बल्कि इससे संविधान की प्रासंगिकता बनी रहती है।
  • विभिन्न सामाजिक संदर्भ: मुख्य न्यायाधीश के अनुसार कोई भी दो पीढ़ियों के लिये संविधान का एक ही सामाजिक, विधिक या आर्थिक संदर्भ नहीं होता है। 
    • जैसे-जैसे समाज विकसित होता है, कुछ नई चुनौतियाँ सामने आती हैं जिनके लिये समकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के क्रम में संविधान की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता होती है, जैसे व्यभिचार को वैध बनाना
  • मौलिकतावाद के साथ तुलना: CJI चंद्रचूड़ ने मौलिकतावाद के उदाहरण के रूप में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2022 के डॉब्स बनाम जैक्सन महिला स्वास्थ्य संगठन के  फैसले का संदर्भ दिया, जिसमें अमेरिकी संविधान में स्पष्ट रूप से गर्भपात का उल्लेख न होने के कारण गर्भपात के अधिकार को अस्वीकार कर दिया गया था।
    • उन्होंने इसकी तुलना भारत के उभरते दृष्टिकोण से की तथा कहा कि मौलिकतावाद से नागरिक अधिकारों की कठोर एवं प्रतिबंधात्मक व्याख्या को बढ़ावा मिल सकता है।
  • अनुकूलन: CJI चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान की जटिल व्याख्या से संविधान की अनुकूलनशीलता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि इसका तात्पर्य है कि जटिल एवं कठोर प्रावधानों में समय के साथ बदलाव किया जाए। 
    • व्यक्तिपरक व्याख्याओं पर अत्यधिक निर्भरता से रूढ़िवादी व्याख्याओं को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे भावी पीढ़ियों की नई चुनौतियों का सामना करने की क्षमता सीमित हो सकती है।

शासन में संवैधानिक लचीलेपन/अनुकूलन की क्या भूमिका है?

  • प्रगतिशील सुधार हेतु समर्थन: संविधान की अनुकूलनशीलता से वर्तमान सामाजिक मांगों के अनुरूप सुधारों (तकनीकी प्रगति से लेकर डेटा संरक्षण कानूनों जैसे मानव अधिकारों तक) को बढ़ावा मिलता है।
  • विधिक क्षेत्रों में में नवाचार को बढ़ावा मिलना: एक जीवंत संविधान से नवीन विधिक व्याख्याओं का मार्ग प्रशस्त होने के साथ डिजिटल युग में निजता संबंधी चिंताओं जैसी उभरती चुनौतियों का समाधान हो सकता है।
  • नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा: संविधान की गतिशील व्याख्या से रूढ़िवादी व्याख्याओं (जिनसे स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है) को चुनौती मिलती है।
  • अनुकूलनशीलता: अनुकूल संवैधानिक सिद्धांत से यह सुनिश्चित होता है कि विभिन्न संस्थाएँ तेज़ी से विकसित हो रहे विश्व में (विशेष रूप से ज्ञान अर्थव्यवस्था में) प्रासंगिक बनी रहें।
  • नई वास्तविकताओं का समावेशन: जीवंत संवैधानिक सिद्धांत से न्यायालयों को अपनी व्याख्याओं में नए सामाजिक, आर्थिक तथा विधिक संदर्भों को शामिल करने की प्रेरणा मिलती है

भारतीय संविधान की प्रकृति क्या है?

  • हाइब्रिड संरचना: भारतीय संविधान नम्य तथा अनम्य दोनों ही प्रकृति का है। इससे संविधान के मूल ढाँचे में स्थिरता बनाए रखते हुए अनुकूलनशीलता सुनिश्चित होती है।
    • आधारभूत मूल्यों की सुरक्षा: इसकी अनम्यता की प्रकृति से मूल अधिकारों एवं बुनियादी ढाँचे में मनमाने परिवर्तनों के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
    • संघवाद का संरक्षण: यद्यपि संघीय ढाँचे को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है फिर भी समवर्ती सूची जैसी नई वास्तविकताओं के अनुकूलन के क्रम में इसमें आवश्यक परिवर्तन किये जा सकते हैं।
    • संतुलित कल्याणकारी दृष्टिकोण: अधिकारों की अनम्यता एवं राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) की नम्यता के संयोजन से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सामूहिक कल्याण के साथ संतुलित करने में सहायता मिलती है।
    • स्थिरता सुनिश्चित होना: अनम्यता से जल्दबाजी में होने वाले संशोधनों को रोकने से स्थिरता को बढ़ावा मिलता है।
    • लोकतंत्र सशक्त होना: विधायी प्रक्रियाओं में अनुकूलन से निर्वाचित प्रतिनिधि संवैधानिक सीमाओं का पालन करते हुए लोगों की आवश्यकताओं पर प्रतिक्रिया देने हेतु प्रेरित रहते हैं, जिससे लोकतांत्रिक शासन को बढ़ावा मिलता है।
  • संशोधन प्रक्रिया:
    • अनुच्छेद 368 में संशोधन के दो मुख्य तरीके बताए गए हैं:
      • संसद का विशेष बहुमत: मूल अधिकारों में संशोधन जैसे कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिये संसद के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, जिसके लिये प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ प्रत्येक सदन की कुल सदस्यता का बहुमत भी आवश्यक होता है। 
        • इससे यह सुनिश्चित होता है कि प्रमुख परिवर्तनों को पर्याप्त संसदीय समर्थन प्राप्त हो।
      • राज्य अनुसमर्थन: राष्ट्रपति चुनाव और उसके तरीके जैसे अन्य प्रावधानों के लिये संसद के विशेष बहुमत के साथ कुल राज्यों में से कम से कम आधे राज्यों का अनुसमर्थन  आवश्यक होता है।
        • यह प्रक्रिया भारत के संघीय ढाँचे को रेखांकित करती है तथा यह सुनिश्चित करती है कि राज्यों को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण संवैधानिक संशोधनों में राज्यों की भागीदारी हो।
  • साधारण बहुमत से संशोधन: नवीन राज्यों के गठन जैसे कुछ प्रावधानों को संसद में साधारण बहुमत द्वारा संशोधित किया जा सकता है। 
    • ये संशोधन अनुच्छेद 368 के दायरे में नहीं आते हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि संविधान के कुछ पहलुओं को अपेक्षाकृत आसानी से बदला जा सकता है।

भारतीय संविधान के लचीलेपन से संबंधित मामले

  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामला, 1967: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 368 से केवल संविधान में संशोधन की प्रक्रिया निर्धारित होती है, जिसमें कहा गया कि संसद नागरिकों के मूल अधिकारों में कमी नहीं कर सकती है और सभी संशोधन न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला, 1973: इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति है लेकिन वह इसके मूल ढाँचे में बदलाव नहीं कर सकती है। 
    • यह मामला इसके लचीलेपन का उदाहरण है क्योंकि इसमें संशोधन की अनुमति दी गई है लेकिन यह सुनिश्चित किया गया है कि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल सिद्धांत बने रहें।

नम्य और कठोर संविधान के बीच क्या अंतर हैं?

पहलू

नम्य संविधान

कठोर संविधान

संशोधन प्रक्रिया

संशोधन प्रक्रिया सामान्य कानून पारित करने की तरह आसान हो सकती हैं, जैसा कि यूनाइटेड किंगडम के संविधान में देखा जाता है।

संशोधन के लिये एक जटिल, विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में देखा जाता है। 

बदलती ज़रूरतों के अनुसार समायोजन क्षमता

इस तरह के संविधान में सामाजिक परिवर्तनों और बदलती परिस्थितियों के साथ आसानी से संतुलन स्थापित किया जा सकता है। इसे एक जीवंत दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है जो सामाजिक प्रगति के साथ विकसित होता है।

परिवर्तन का विरोध करता है, अनुकूलनशीलता की अपेक्षा स्थिरता को प्राथमिकता देता है। 

जनमत का प्रतिबिंब

बदलती जनमत और सामाजिक उपागम को प्रतिबिंबित करता है।

इसमें संविधान निर्माताओं के विचारों को प्रतिबिंबित करने की अधिक संभावना है, तथा परिवर्तनों के प्रति कम संवेदनशील होने की संभावना है।

पूर्णता की धारणा

यह मान लिया गया है कि कोई भी संविधान पूर्णतया परिपूर्ण नहीं है तथा उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

मान लिया गया है कि संविधान सभी परिस्थितियों के लिये एक आदर्श मार्गदर्शक है।

संघीय प्रणालियों में अनुकूलनशीता

संघीय इकाइयों की विविध आवश्यकताओं को समायोजित करना और सहयोग को बढ़ावा देना।

संघीय प्रणालियों में संतुलन बनाए रखने के लिये स्थिरता और जाँच प्रदान करता है।

अल्पसंख्यक अधिकारों का संरक्षण

निरंतर होने वाले परिवर्तन, जो कभी-कभी भीड़तंत्र ( जनता द्वारा वर्चस्व ) से प्रभावित होते हैं, अल्पसंख्यक अधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं

यह अधिक मज़बूत सुरक्षा प्रदान करता है, तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

निष्कर्ष:

एक कठोर और नम्य संविधान के बीच संतुलन एक गतिशील कानूनी ढाँचे को बढ़ावा देने के लिये महत्त्वपूर्ण है जो समकालीन चुनौतियों के लिये प्रासंगिक और उत्तरदायी है। अंततः एक निरंतर बदलते समाज में न्याय, समानता और लोकतांत्रिक शासन को बढ़ावा देने के लिये संवैधानिक के लचीलेपन को अपनाना आवश्यक है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय संविधान में नम्यता और कठोरता के बीच संतुलन तथा समकालीन सामाजिक मुद्दों के निराकरण में इसके महत्त्व का परीक्षण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक संवैधानिक स्थिति क्या थी? (2021)

(a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(b) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(c) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(d) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य

उत्तर: (b)


मुख्य:

Q. धर्मनिरपेक्षता को भारत के संविधान के उपागम से फ्राँस क्या सीख सकता है? (2019)

Q. निजता के अधिकार पर उच्चतम न्यायालय के नवीनतम निर्णय के आलोक में, मौलिक अधिकारों के विस्तार का परीक्षण कीजिये। (2017)

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