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आपदा प्रबंधन

चक्रवात के कारण पूर्वोत्तर भारत में भूस्खलन

  • 01 Jun 2024
  • 13 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भूस्खलन, चक्रवात रेमल, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA), पूर्वोत्तर क्षेत्र, भूकंप, भूस्खलन एटलस

मेन्स के लिये:

भूस्खलन के प्रति भारत की संवेदनशीलता, भूस्खलन के जोखिम को कम करने के लिये सरकारी पहल।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में चक्रवात रेमल के कारण भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में भूस्खलन हुआ, जिससे कई लोग प्रभावित हुए, जो अत्यधिक खतरे वाली आपदा के प्रबंधन की आवश्यकता को उजागर करता है। हालाँकि, चक्रवातों के लिये पूर्व चेतावनी से इसके प्रबंधन में सुधार हुआ है, लेकिन चक्रवात के आने वाला भूस्खलन अभी भी एक चुनौती बना हुआ है।

भूस्खलन क्या है?

  • परिचय:
    • भूस्खलन को चट्टान, मलबे या मृदा के ढेर को ढलान से नीचे खिसकने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
    • भूस्खलन एक प्रकार का मास वेस्टिंग है, जो गुरुत्वाकर्षण के प्रत्यक्ष प्रभाव के तहत मृदा और चट्टान के नीचे होने वाले किसी भी प्रकार के संचलन को दर्शाता है। भूस्खलन को चट्टान, मलबे या मृदा के ढेर के ढलान से नीचे खिसकने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
    • भूस्खलन में ढलान की पाँच गतिविधियाँ शामिल हैं: गिरना, लुढ़कना, खिसकना, फैलना और बहना।
  • कारण:
    • जब ढलान बनाने वाले पृथ्वी के घटकों की तीव्रता, मुख्य रूप से गुरुत्वाकर्षण के कारण, नीचे की ओर कार्य करने वाले बलों से अधिक हो जाती है, तो ढलान में गति उत्पन्न होती है।
    • भूस्खलन तीन प्रमुख कारकों के कारण होता है: भूविज्ञान, आकारिकी और मानवीय गतिविधियाँ।
      • भूविज्ञान पदार्थ की विशेषताओं को संदर्भित करता है। इस दौरान पृथ्वी या चट्टान कमज़ोर अथवा भंगुर हो सकती है। 
      • भू-आकृति विज्ञान भूमि की संरचना को संदर्भित करता है। उदाहरण के लिये, भूस्खलन की संभावना उन ढलानों पर अधिक होती है, जहाँ आग या सूखे के कारण वनस्पतियाँ नष्ट हो गई हों।
        • पेड़, पौधे और झाड़ियाँ अपनी जड़ों से मिट्टी को पकड़कर रखते हैं। अगर ये जड़ें नहीं हों, तो मिट्टी के बहने या खिसकने की संभावनाएँ अधिक होती हैं। 
      • खनन और निर्माण जैसी मानवीय गतिविधियों से भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।

भारत भूस्खलन के प्रति कितना संवेदनशील है?

  • भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र:
    • भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India- GSI) के अनुसार, भारत का लगभग 13% भूभाग, यानी लगभग 4.2 लाख वर्ग किलोमीटर, भूस्खलन के लिये प्रवण है। इसमें 15 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों में फैले लगभग सभी पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं।
      • भारत में भूस्खलन के लिये अत्यधिक वर्षा जैसे प्राकृतिक कारण प्रमुख हैं। भूकंप भी भूस्खलन को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • पूर्वोत्तर में उच्च संवेदनशीलता: 
    • भारत में पूर्वोत्तर क्षेत्र सर्वाधिक भूस्खलन की चपेट में आता है। देश के कुल भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र का लगभग 42% इसी का भाग है, जो मेघालय, मिज़ोरम, असम और नगालैंड जैसे पहाड़ी राज्यों में केंद्रित है। 
    • भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में भूस्खलन की अत्यधिक घटनाएँ घटित होती हैं। वर्ष 2015-2022 की अवधि के दौरान, भारत में सभी प्रमुख भूस्खलनों में से 10% पूर्वोत्तर क्षेत्रों में हुए, यानी इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष औसतन 54 भूस्खलन हुए।
  • सुभेद्यता के कारण:
    • पूर्वोत्तर हिमालय में नवीन, कमज़ोर चट्टानें एवं खड़ी ढलानें इसे भूस्खलन के लिये प्रवण बनाती हैं। अत्यधिक वर्षा मृदा को और कमज़ोर कर देती है, जो वनों की कटाई से ज्यादा प्रभावित होती है। कभी-कभी, भूकंप तथा जलवायु परिवर्तन इस क्षेत्र में भूस्खलन की समस्याओं को और बढ़ा देते हैं।
    • पहाड़ी क्षेत्रों में अनियमित विनिर्माण, बुनियादी ढाँचा विकास परियोजनाएँ और कुछ विशेष कृषि पद्धतियाँ जैसे मानवीय कारक भूस्खलन के जोखिम में वृद्धि कर सकते हैं। 
      • इसका एक हालिया उदाहरण मिज़ोरम के आइज़ोल में चक्रवात रेमल के दौरान एक पत्थर की खदान का ढह जाना है, जो इस बात को उजागर करता है कि अनियमित निर्माण कार्य किस हद तक भूस्खलन के दौरान जानलेवा साबित हो सकता है।

भूस्खलन के जोखिम को कम करने के लिये सरकार की क्या पहल हैं?

  • राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति (2019):
  • भारत का भूस्खलन एटलस:
    • वैज्ञानिकों ने भारत का भूस्खलन एटलस बनाने के लिये 17 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों के 147 ज़िलों में 1998 से 2022 के बीच दर्ज़ 80,000 भूस्खलनों के आधार पर जोखिम आकलन किया।
  • पूर्व चेतावनी प्रणाली का विकास: 
    • ये प्रणालियाँ संभावित घटनाओं की भविष्यवाणी करने के लिये अक्सर वर्षा के आँकड़ों (भूकंप से संबंधित भूस्खलन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती) और वास्तविक समय की निगरानी का उपयोग करती हैं।

    • उदाहरण के लिये, नगालैंड और सिक्किम जैसे राज्यों में वर्षा-आधारित पूर्व चेतावनी प्रणालियों के लिये पायलट प्रोजेक्ट चल रहे हैं।

    • केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान (Central Building Research Institute- CBRI) और IIT रुड़की सिक्किम, उत्तराखंड व केरल में विभिन्न स्थानों पर पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित कर रहे हैं।

भारत में भूस्खलन के जोखिम को कम करने में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की सीमित समझ: 
    • भारत में विस्तृत भूवैज्ञानिक मानचित्रण और जोखिम आकलन का अक्सर अभाव रहता है, जिससे शमन उपायों को प्राथमिकता देने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न होती है।
  • असंवहनीय भूमि-उपयोग प्रथाएँ:
    • वनों की कटाई, ढलानों पर अनियोजित विकास और खराब निर्माण पद्धतियाँ भूस्खलन के जोखिम में वृद्धि करती हैं।
  • संसाधनों का अभाव: 
    • ढलानों को बनाए रखने, जल निकासी प्रणालियों और ढलान स्थिरीकरण जैसे मज़बूत शमन उपायों को लागू करना महँगा हो सकता है।
    • भारत में भूस्खलन के प्रारंभिक चेतावनी संकेतों का पता लगाने के लिये सेंसरों (वर्षामापी, टिल्टमीटर आदि) के व्यापक नेटवर्क का अभाव है।
  • जन जागरूकता और प्रबंधन: 
    • भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों को जोखिमों और उनसे निपटने की तैयारी के तरीकों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है।

आगे की राह

  • माधव गाडगिल समिति (2010) और कस्तूरीरंगन समिति (2012) की रिपोर्टों ने पश्चिमी घाट पर ध्यान केंद्रित करते हुए कुछ सिफारिशें कीं, जिन्हें भारत में भूस्खलन शमन के लिये अधिक व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है:
    • पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना (Ecologically Sensitive Zones- ESZ): 
      • इस रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से को ESZ के रूप में वर्गीकृत करने का प्रस्ताव दिया गया है। इस वर्गीकरण का उद्देश्य खनन, उत्खनन और विस्तृत बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं जैसी गतिविधियों को प्रतिबंधित करना है जो ढलानों को अस्थिर कर सकती हैं तथा भूस्खलन में योगदान दे सकती हैं।
    • सतत् भूमि-उपयोग प्रथाओं पर ज़ोर देना: 
      • उन्होंने मृदा के कटाव को कम करने तथा ढलान स्थिरता बनाए रखने के लिये कृषि वानिकी और पारंपरिक कृषि विधियों जैसी सतत् भूमि-उपयोग प्रथाओं को बढ़ावा देने की वकालत की।
    • समुदाय की भागीदारी: 
      • रिपोर्ट में भूस्खलन जोखिम आकलन, शमन प्रयासों और आपदा प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को शामिल करने के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया।
  • मृदा कीलिंग और हाइड्रोसीडिंग विधि का उपयोग करके ढलान स्थिरीकरण:
    • तमिलनाडु राज्य राजमार्ग विभाग, नीलगिरी में पाँच स्थानों पर ढलान स्थिरीकरण का कार्य कर रहा है।
    • मृदा कीलिंग, एक जियोटेक्निकल इंजीनियरिंग तकनीक है जिसमें मृदा को मज़बूत करने के लिये उसमें प्रबलक तत्त्वों को डाला जाता है, इसका उपयोग ढलान स्थिरीकरण के लिये किया जा रहा है।
    • मृदा कीलिंग करके ढलान को मज़बूत करने के बाद, घास और पादपों की वृद्धि को सुविधाजनक बनाने के लिये ‘हाइड्रोसीडिंग (Hydroseeding)’ की प्रक्रिया का उपयोग किया जा रहा है, जो ऊपरी मृदा को एक साथ रखने तथा मृदा के अपरदन को रोकने में सहायता करेगा।

निष्कर्ष:

इन उपायों को लागू करके, भारत अत्यधिक खतरे वाली आपदाओं के लिये अपने प्रबंधन में सुधार कर सकता है और भूस्खलन के विनाशकारी प्रभावों को कम कर सकता है। दीर्घकालिक जीवन और बुनियादी ढाँचे की सुरक्षा के लिये कमज़ोर क्षेत्रों में लचीलेपन की संस्कृति को बढ़ाना और सतत् विकास को प्राथमिकता देना आवश्यक है। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. भूस्खलन के प्रति पूर्वोत्तर भारत की संवेदनशीलता के संदर्भ में, भूस्खलन के जोखिम को कम करने के लिये सरकार की पहलों पर चर्चा कीजिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

मेन्स:

प्रश्न. हिमालय क्षेत्र तथा पश्चिमी घाटों में भू-स्खलनों के विभिन्न कारणों का अंतर स्पष्ट कीजिये। (2021)

प्रश्न. “हिमालय भूस्खलनों के प्रति अत्यधिक प्रवण है।” कारणों की विवेचना कीजये तथा अल्पीकरण के उपयुक्त उपाय सुझाइए। (2016)

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