अंतर्राष्ट्रीय संबंध
ग्लोबल साउथ की बदलती गतिशीलता
- 18 Sep 2023
- 14 min read
प्रिलिम्स के लिये:ग्लोबल साउथ, ग्रुप ऑफ 77 (G-77), ग्लोबल नॉर्थ, ग्रीन एनर्जी फंड, G20 समिट, UN ऑफिस फॉर साउथ-साउथ कोऑपरेशन (UNOSSC), यूरोपियन यूनियन (EU), शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (SCO), क्वाड , इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फोरम, ब्रिक्स शिखर सम्मेलन, G7 शिखर सम्मेलन, ब्रांट लाइन मेन्स के लिये:ग्लोबल साउथ का इतिहास, ग्लोबल साउथ के बढ़ते प्रभाव का परिदृश्य, ग्लोबल राजनीति में ग्लोबल साउथ का प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2023 में भारत के प्रधानमंत्री ने "वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ" पर एक आभासी शिखर सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें लगभग 125 देश शामिल हुए। इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य क्षेत्र के लिये प्राथमिकताओं को निर्धारित करने हेतु ग्लोबल साउथ के देशों की राय और इनपुट प्राप्त करना था।
ग्लोबल साउथ का इतिहास:
- ऐतिहासिक संदर्भ: "ग्लोबल साउथ" शब्द का प्रयोग प्रायः उपनिवेशवाद की ऐतिहासिक विरासत और पूर्व उपनिवेशित देशों एवं विकसित पश्चिमी देशों के बीच आर्थिक असमानताओं को उजागर करने के लिये किया जाता है।
- यह आर्थिक वृद्धि और विकास में इन देशों के सामने आने वाली चुनौतियों को रेखांकित करता है।
- G-77 का गठन: वर्ष 1964 में 77 देशों का समूह (G-77) तब अस्तित्व में आया जब इन देशों ने जिनेवा में व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCTAD) के पहले सत्र के दौरान एक संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किये।
- G-77 उस समय विकासशील देशों का सबसे बड़ा अंतर-सरकारी संगठन बन गया।
- G-77 का उद्देश्य: इसे विकासशील देशों के आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मुद्दों पर चर्चा करने की उनकी क्षमता में सुधार करने के लिये बनाया गया था।
- इसमें अब एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, कैरेबियन और ओशिनिया के 134 देश शामिल हैं। चीन तकनीकी रूप से इस समूह का हिस्सा नहीं है, इसलिये बहुपक्षीय मंचों पर इस समूह को अक्सर "जी-77+चीन" कहा जाता है।
- UNOSSC: दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिये संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNOSSC) की स्थापना वर्ष 1974 में की गई थी। इसकी भूमिका G-77 के सहयोग से ग्लोबल साउथ के देशों और विकसित देशों या बहुपक्षीय एजेंसियों के बीच सहयोग का समन्वय करना है।
ग्लोबल साउथ के पुनरुद्धार का कारण:
- 21वीं सदी के शुरुआती दशकों में ग्लोबल साउथ के प्रति रुचि और ध्यान में उल्लेखनीय गिरावट आई थी।
- यह प्रवृत्ति विशेष रूप से भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों में स्पष्ट थी, जिन्हें अपनी 'तीसरी दुनिया' की उत्पत्ति से दूर जाने और वैश्विक मंच पर अधिक प्रमुख भूमिका की तलाश करने वाला माना जाता था क्योंकि इन देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में सुधार एवं विस्तार किया था।
- हालाँकि हाल के दिनों में ग्लोबल साउथ ने अपना महत्त्व और प्रासंगिकता फिर से हासिल कर ली है, जो उभरती वैश्विक व्यवस्था को आयाम देने में क्षेत्र के महत्त्व की बढ़ती मान्यता को दर्शाता है। इस पुनरुत्थान में योगदान देने वाले कई प्रमुख कारकों का उल्लेख किया गया है:
- कोविड-19 महामारी का प्रभाव: सार्वजनिक स्वास्थ्य और आर्थिक चुनौतियों दोनों के संदर्भ में कोविड-19 महामारी का वैश्विक दक्षिण के कई देशों पर गंभीर प्रभाव पड़ा। इस संकट ने इन देशों की कमज़ोरियों और ज़रूरतों पर फिर से ध्यान केंद्रित किया।
- आर्थिक मंदी: महामारी के कारण उत्पन्न आर्थिक मंदी ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समर्थन की आवश्यकता को उजागर करते हुए ग्लोबल साउथ के देशों पर असमान रूप से प्रभाव डाला।
- रूस-यूक्रेन संघर्ष का परिणाम: रूस-यूक्रेन संघर्ष का वैश्विक आर्थिक प्रभाव पड़ा। इसका विकासशील दुनिया पर तीव्र प्रभाव देखा गया, जिसने वैश्विक मामलों की परस्पर संबद्धता एवं अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में ग्लोबल साउथ के महत्त्व पर और अधिक ध्यान आकृष्ट किया।
‘ग्लोबल साउथ’ शब्द की आलोचना का कारण:
- शब्द की अशुद्धि: ‘ग्लोबल साउथ’ शब्द की उन देशों का प्रतिनिधित्व करने में अशुद्धि के लिये आलोचना की जाती है जिनका वर्णन करना इसका उद्देश्य था।
- यह बताया गया है कि कुछ देश जिन्हें आमतौर पर ग्लोबल साउथ का हिस्सा माना जाता है, जैसे भारत, वास्तव में उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है, जबकि अन्य जैसे ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी गोलार्द्ध में हैं लेकिन प्रायः उन्हें ग्लोबल साउथ के हिस्से के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
- अधिक सटीक वर्गीकरण की आवश्यकता: 1980 के दशक में इस अशुद्धि की पहचान के कारण ‘ब्रांट लाइन (Brandt Line) (एक वक्र जिसने केवल सामान्य तौर पर भौगोलिक स्थिति के आधार की बजाय आर्थिक विकास और धन वितरण जैसे कारकों के आधार पर दुनिया को आर्थिक उत्तर एवं दक्षिण के रूप में अधिक सटीक रूप से विभाजित किया) का विकास हुआ।
ग्लोबल साउथ की मांग:
- वैश्विक स्तर पर आनुपातिक मत: ग्लोबल साउथ, जिसमें बड़ी आबादी वाले देश शामिल हैं, यह मानता है कि विश्व के भविष्य को आयाम देने में उनकी सबसे अधिक भागीदारी है।
- इन देशों में रहने वाली वैश्विक आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा होने के कारण उनका तर्क है कि वैश्विक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनका आनुपातिक और सार्थक मत होना चाहिये।
- न्यायसंगत प्रतिनिधित्व: ग्लोबल साउथ वैश्विक शासन में न्यायसंगत प्रतिनिधित्व की मांग करता है। वैश्विक शासन का वर्तमान मॉडल विश्व की जनसांख्यिकीय और आर्थिक वास्तविकताओं को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं कर सकता है तथा यह सुनिश्चित करने के लिये बदलाव का आह्वान करता है कि ग्लोबल साउथ के विचार सुने और माने जाएँ।
वैश्विक राजनीति में ग्लोबल साउथ का प्रभाव:
- ग्लोबल साउथ को प्राथमिकता देना: भारत की G20 की अध्यक्षता ग्लोबल साउथ की प्राथमिकताओं से प्रेरित थी। यह उन मुद्दों और चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता के विषय में बढ़ती जागरूकता का सुझाव देता है जो विशेष रूप से ग्लोबल साउथ के विकासशील देशों के लिये प्रासंगिक हैं।
- ग्लोबल साउथ नेतृत्व: यह तथ्य कि इंडोनेशिया, भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देश निरंतर G20 शिखर सम्मेलन की मेज़बानी कर रहे हैं, वैश्विक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में ग्लोबल साउथ के अधिक नेतृत्व तथा प्रभाव को इंगित करता है।
- ये देश विश्व की आबादी और अर्थव्यवस्थाओं के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- समावेशिता: "वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ" शिखर सम्मेलन ग्लोबल साउथ के देशों की एक विस्तृत शृंखला के साथ समावेशिता और परामर्श के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करता है।
- यह पश्चिमी देशों के प्रभुत्व वाली पारंपरिक शक्ति संरचनाओं से दूर जाने का संकेत देता है।
- बहुपक्षवाद: ग्लोबल साउथ की प्राथमिकताओं पर ज़ोर और G20 एजेंडा की मेज़बानी एवं आकार देने में इन देशों की भागीदारी बहुपक्षवाद के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाती है, जहाँ निर्णय राष्ट्रों के विविध समूह द्वारा सामूहिक रूप से लिये जाते हैं।
- विकासशील विश्व का बढ़ता प्रभाव: यह G20, BRICS, शंघाई सहयोग संगठन (SCO), क्वाड, हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा (Indo-Pacific Economic Framework- IPEF) और अन्य वैश्विक संगठनों की भागीदारी के माध्यम से स्पष्ट है, जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में ग्लोबल साउथ में देशों से सक्रिय रूप से भागीदारी चाहते हैं।
ग्लोबल साउथ के बढ़ते प्रभाव का प्रमाण:
- 'नुकसान और क्षति कोष' की स्थापना: मिस्र में COP27 जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में 'नुकसान और क्षति कोष' की स्थापना को ग्लोबल साउथ के लिये एक महत्त्वपूर्ण जीत माना गया।
- यह ग्लोबल साउथ के देशों द्वारा वहन किये जाने वाले अनुपातहीन बोझ की मान्यता का प्रतीक है।
- COP28 में ग्लोबल साउथ: ऐसा अनुमान है कि संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित होने वाले आगामी UNFCCC COP 28 में देश जलवायु परिवर्तन को कम करने पर चर्चा हेतु ग्लोबल साउथ के देशों की भूमिका अग्रणी होगी।
- G7 समावेशिता: G7 शिखर सम्मेलन के मेज़बान के रूप में जापान ने भारत, ब्राज़ील, वियतनाम, इंडोनेशिया, कोमोरोस और कुक द्वीप समूह जैसे विकासशील देशों को इस वार्ता में शामिल करने के लिये उल्लेखनीय प्रयास किया।
- इसे ग्लोबल साउथ तक पहुँचने तथा विश्व के सबसे धनी देशों के बीच अधिक समावेशी संवाद की आवश्यकता के रूप में देखा जा सकता है।
- ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का विस्तार: दक्षिण अफ्रीका में आयोजित ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में इसकी सदस्यता को पाँच से बढ़ाकर 11 कर दिया गया। इस विस्तार का प्रमुख कारण ग्लोबल साउथ के अधिक देशों को ब्रिक्स समूह में शामिल करना है, जो ग्लोबल साउथ के बढ़ते महत्त्व को रेखांकित करता है।
- क्यूबा में G-77 शिखर सम्मेलन: हाल ही में क्यूबा के हवाना में आयोजित G-77 शिखर सम्मेलन वैश्विक मंच पर ग्लोबल साउथ के महत्त्व को प्रदर्शित करता है, इसमें अहम मुद्दों पर चर्चा करने के लिये पर्याप्त संख्या में विकासशील देश एक मंच पर एकजुट हुए।
- G20 में अफ्रीकी संघ का समावेश: 55 देशों वाले अफ़्रीकी संघ को G20 में शामिल करना इस सम्मेलन के एक महत्त्वपूर्ण परिणाम के रूप में देखा जाता है जो वैश्विक मामलों में अफ्रीकी देशों की बढ़ती मान्यता तथा उभरती वैश्विक व्यवस्था को आकार देने में उनके दृष्टिकोण व योगदान को शामिल करने की आवश्यकता का संकेत देता है।
निष्कर्ष:
जैसे-जैसे विश्व में नई-नई चुनौतियाँ और अवसर उत्पन्न हो रहे है, ग्लोबल साउथ का प्रभाव तथा इसकी भूमिका में लगातार वृद्धि हो रही है, वैश्विक शासन में न्यायसंगत प्रतिनिधित्व की इसकी मांग सबसे महत्त्वपूर्ण विषय है। पूरे विश्व में शक्ति के पुनर्संतुलन का दौर है, जिसमें भविष्य की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति व सहयोग को आकार देने में ग्लोबल साउथ भूमिका प्रमुख होती जा रही है।
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