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सामाजिक न्याय

वैवाहिक अधिकारों की बहाली को चुनौती

  • 19 Jul 2021
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 21,  सर्वोच्च न्यायालय,  हिंदू विवाह अधिनियम 1955

मेन्स के लिये:  

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के प्रमुख प्रावधान एवं वैवाहिक आधिकारों के समक्ष चुनौतियाँ 

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय (SC), हिंदू पर्सनल लॉ (हिंदू विवाह अधिनियम 1955) के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली (वापसी) की अनुमति देने वाले प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करने वाला है।

प्रमुख बिंदु 

वैवाहिक/दांपत्य अधिकार:

  • वैवाहिक अधिकार विवाह द्वारा स्थापित अधिकार हैं, अर्थात् पति या पत्नी दोनों को एक-दूसरे के प्रति साहचर्य का अधिकार होता है।
  • कानून इन अधिकारों को मान्यता देता है जिसके तहत  विवाह, तलाक आदि से संबंधित हिंदू पर्सनल लॉ तथा आपराधिक कानून में पति या पत्नी को भरण-पोषण और गुजारा भत्ता के भुगतान की आवश्यकता होती है।
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों के एक पहलू- साथ जीवन व्यतीत करने वाले अधिकार को मान्यता देती है तथा इस अधिकार को लागू करने के लिये पति या पत्नी को न्यायालय में जाने की अनुमति देती है।
  • वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अवधारणा को अब हिंदू पर्सनल लॉ में संहिताबद्ध किया गया है, लेकिन इसकी उत्पत्ति औपनिवेशिक काल की है। 
    • यहूदी कानून से उत्पन्न, वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रावधान ब्रिटिश शासन के माध्यम से भारत तथा अन्य समान कानून वाले देशों तक पहुँचा। 
    • ब्रिटिश कानून पत्नियों को पति की निजी संपत्ति/अधिकार मानता था, इसलिये उन्हें अपने पति को छोड़ने की अनुमति नहीं थी।
  • मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ-साथ तलाक अधिनियम, 1869 में भी इसी तरह के प्रावधान किये गए हैं, जो ईसाई समुदाय के कानून को नियंत्रित करते हैं।
    •  आकस्मिक रूप से वर्ष 1970 में ब्रिटेन ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के उपाय को समाप्त कर दिया।

चुनौतीपूर्ण प्रावधान:

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9, निम्नलिखित परिस्थितियों में वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है:
    • जब पति और पत्नी दोनों में से कोई एक, पक्ष की संगति से बिना उचित कारण के अलग हो जाता है तब पीड़ित पक्ष ज़िला अदालत में याचिका द्वारा आवेदन कर सकता है। 
    • दांपत्य/वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये  यदि अदालत याचिका में दिये गए बयानों की सच्चाई से संतुष्ट है और उसे आश्वासन दिया जाता है कि कोई ऐसा कानूनी आधार नहीं है कि इस तरह के आवेदन को क्यों खारिज किया जाना चाहिये, तो वह वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश दे सकता है।

कानून को चुनौती देने का कारण:

  • अधिकारों का उल्लंघन:
    • कानून को अब इस मुख्य आधार पर चुनौती दी जा रही है कि यह निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
    • वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी थी।
      • निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत जीवन के अधिकार तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता के रूप में संरक्षित है।
    • वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने समलैंगिकता के अपराधीकरण, वैवाहिक बलात्कार, वैवाहिक अधिकारों की बहाली, बलात्कार की जांँच में टू-फिंगर टेस्ट जैसे कई कानूनों हेतु संभावित चुनौतियों के लिये एक आधार निर्मित किया है।
    • याचिका में तर्क दिया गया है कि न्यायालय द्वारा दाम्पत्य अधिकारों की अनिवार्य बहाली राज्य की ओर से एक "ज़बरदस्ती अधिनियम" (Coercive Act) है, जो किसी की यौन और निर्णयात्मक स्वायत्तता तथा निजता एवं गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है।
  • महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण :
    • यद्यपि यह कानून लैंगिक रुप से तटस्थ है क्योंकि यह पत्नी और पति दोनों को वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देता है, अत: प्रावधान महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करते हैं।
    • प्रावधान के तहत महिलाओं को अक्सर अपने पति के घर वापस आना पड़ता है और यह देखते हुए कि वैवाहिक बलात्कार एक अपराध नहीं है, इच्छा न होने के बावजूद उन्हें पति के साथ रहना होता है।
    • यह भी तर्क दिया जाता है कि क्या विवाह को सुरक्षित करने में राज्य की इतनी अधिक रुचि हो सकती है कि राज्य कानून द्वारा पति-पत्नी को एक साथ रहने के लिये बाध्य कर सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुरूप नहीं:
    • वर्ष 2019 के जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (Joseph Shine v Union of India) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया निर्णय में विवाहित महिलाओं की निजता के अधिकार और दैहिक स्वायत्तता पर ज़ोर दिया है जिसमें न्यायालय ने कहा है कि शादी महिलाओं की यौन स्वतंत्रता और उनकी पसंद के अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती है।
    • अगर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक स्वायत्तता, पसंद और निजता का  अधिकार है तो न्यायालय कैसे दो वयस्कों को सहवास करने हेतु बाध्य कर सकता है यदि उनमें से एक ऐसा नहीं करना चाहता है।
      • न्यायालय दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन कैसे कर सकता है या इन अधिकारों से अलग अन्यथा आदेश दे सकता है।
  • प्रावधान का दुरुपयोग:
    • विचार करने के लिये एक और प्रासंगिक मामला तलाक की कार्यवाही तथा गुज़ारा भत्ता भुगतान के खिलाफ ढाल के रूप में इस प्रावधान का दुरुपयोग है।
    • अक्सर पीड़ित पति या पत्नी अपने निवास स्थान से तलाक के लिये अर्जी देते हैं और उनके पत्नी या पति अपने यहाँ से मुआवज़ा हेतु मांग करते हैं।

पूर्व के निर्णय:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1984 में सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (Saroj Rani v Sudarshan Kumar Chadha) मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि यह प्रावधान विवाह को टूटने से रोककर एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है।
  • आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने वर्ष 1983 में इस प्रावधान को पहली बार टी. सरिता बनाम टी. वेंकटसुब्बैया (T. Sareetha vs T. Venkatasubbaiah) मामले में शून्य घोषित कर दिया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य कारणों के साथ निजता के अधिकार का हवाला दिया। अदालत ने यह भी माना कि "पत्नी या पति से इतने घनिष्ठ रूप से संबंधित मामले में पक्षकारों को राज्य के हस्तक्षेप के बिना अकेला छोड़ दिया जाता है"।
    • अदालत ने यह भी माना था कि "सेक्स" के लिये मज़बूर किये जाने के कारण  "महिलाओं के लिये गंभीर परिणाम" होंगे।
  • हालाँकि उसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने इस कानून के बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण अपनाया और हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह चौधरी (Harvinder Kaur vs Harmander Singh Chaudhary) के मामले में इस प्रावधान को बरकरार रखा।

आगे की राह

  • हम लैंगिक समानता और कानून की लिंग तटस्थ गुणवत्ता के विषय में बात करते हैं, लेकिन भारतीय समाज में महिलाएँ अभी भी प्रतिकूल परिस्थिति में हैं जिसे ऐसे प्रावधान बढ़ावा देते हैं।
  • दहेज़ हत्याएँ समाज पर कलंक हैं, जिसके लिये महिलाओं को भावनात्मक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है।
  • जब पत्नियाँ क्रूरता से थक और टूट जाती हैं तो पति का घर छोड़ देती हैं, फिर अपने दाम्पत्य अधिकारों के लिये लड़ना इनके लिये बहुत मुश्किल हो जाता है।
  • यह समय भारतीय न्यायपालिका और समाज को विवाह के प्रगतिशील सिद्धांत के साथ ही अधिक प्रगतिशील विचारों को अपनाने का है। विवाह, समारोहों के आधार पर नहीं बल्कि दो व्यक्तियों की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता पर निर्मित होता है, जिसे नए दंपत्ति एक-दूसरे के साथ साझा करने के लिये सहमत होते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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