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डेली न्यूज़


जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन का अर्थशास्त्र

  • 26 Oct 2021
  • 8 min read

प्रिलिम्स के लिये 

COP26, पेरिस समझौता, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

मेन्स के लिये 

जलवायु परिवर्तन के आर्थिक प्रभाव

चर्चा में क्यों?

‘COP26’ जलवायु वार्ता ग्लासगो (स्कॉटलैंड) में होने जा रही है। दुनिया भर में होने वाली जलवायु परिवर्तन की घटनाओं की भयावह स्थिति को देखते हुए यह आगामी जलवायु समझौता वार्ता वर्ष 2015 के पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5-2 डिग्री सेल्सियस की ऊपरी सीमा पर ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।

  • इस संदर्भ में दुनिया भर में आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और वैश्विक वित्तीय प्रणाली की स्थिरता का विश्लेषण करना आवश्यक है।

प्रमुख बिंदु

  • जलवायु परिवर्तन लागत: यद्यपि इसके परिणाम को लेकर असहमति है, किंतु लगभग सभी अर्थशास्त्री वैश्विक उत्पादन पर ग्लोबल वार्मिंग के संभावित प्रभाव के बारे में निश्चित हैं।
  • सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र: यह सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाता है कि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होंगे।
    • वर्तमान में दुनिया के अधिकांश गरीब उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों या निचले इलाकों में रहते हैं, जो सूखे या बढ़ते समुद्र के स्तर जैसी जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से प्रभावित हैं।
    • इसके अलावा इन देशों के पास इस तरह के नुकसान को कम करने के लिये संसाधनों की भी कमी है।
  • सूक्ष्म स्तर पर प्रभाव: बीते वर्ष विश्व बैंक ने बताया था कि वर्ष 2030 तक जलवायु परिवर्तन से 132 मिलियन से अधिक लोग अत्यधिक गरीबी में चले जाएंगे।
    • इसके प्रमुख कारकों में कृषि आय में कमी; बाहरी श्रम उत्पादकता में कमी; खाद्य कीमतों में वृद्धि और चरम मौसम से आर्थिक नुकसान आदि शामिल हैं।
  • 'शुद्ध शून्य उत्सर्जन' परिदृश्य का विश्लेषण: 'शुद्ध शून्य उत्सर्जन' का तात्पर्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और वातावरण से निष्कासित ग्रीनहाउस गैस के बीच एक समग्र संतुलन की स्थिति प्राप्त करना है।
    • हालाँकि 'शुद्ध शून्य उत्सर्जन' के कारण कई आर्थिक परिणाम हो सकते हैं।
    • थिंक टैंक ‘कार्बन ट्रैकर’ की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि तेल और गैस क्षेत्र द्वारा सामान्य रूप से किये गए 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का निवेश वास्तव में कम कार्बन के दृष्टिकोण से व्यवहार्य नहीं होगा।
    • इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने सभी प्रकार की जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करने का आह्वान किया है, जो कि प्रतिवर्ष तकरीबन 5 ट्रिलियन डॉलर है।
    • इससे व्यापक पैमाने पर बेरोज़गारी का संकट पैदा हो सकता है।
  • कार्बन प्राइस से नीचे: टैक्स या परमिट योजनाएँ उत्सर्जन से होने वाले नुकसान की भरपाई करके पर्यावरण अनुकूलता को प्रोत्साहित करती हैं।
    • हालाँकि अभी तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का केवल पाँचवाँ हिस्सा ही ऐसे कार्यक्रमों द्वारा कवर किया जाता है, औसतन कार्बन प्राइस निर्धारण मात्र 3 अमेरिकी डॉलर प्रति टन है।
    • यह 75 डॉलर प्रति टन से काफी नीचे है, आईएमएफ का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की ज़रूरत है।
  • मुद्रास्फीति का जोखिम: जीवाश्म ईंधन की प्रदूषणकारी लागत बढ़ने से कुछ क्षेत्रों की कीमतों में वृद्धि की संभावना है।
  • ग्रीन डिकॉप्लिंग की विफलता: सतत् विकास का तात्पर्य है उत्सर्जन वृद्धि किये बिना आर्थिक गतिविधियाँ प्रोत्साहित करना।
    • हालाँकि यह अब तक वास्तविक रूप में सामने नहीं आया है।
    • वर्तमान में आर्थिक विकास की उच्च दर हासिल की जाती है, लेकिन इसके साथ उत्सर्जन वृद्धि भी देखी जा रही है।
  • अपर्याप्त हरित वित्त: वैश्विक स्तर पर अमीर देशों, जिन्होंने अपनी औद्योगिक क्रांतियों के बाद से भारी मात्रा में उत्सर्जन किया है, ने विकासशील देशों को 100 बिलियन अमेरीकी डाॅलर के वार्षिक हस्तांतरण के माध्यम से संक्रमण में मदद करने का वादा किया, यह अभी तक पूरा नहीं हुआ है।

आगे की राह 

  • शुद्ध शून्य उत्सर्जन के आर्थिक जोखिम को कवर करना: वैश्विक वित्तीय प्रणाली को जलवायु परिवर्तन के भौतिक जोखिमों और शुद्ध शून्य में संक्रमण के दौरान होने वाली अस्थिरता से संधारणीय विकास को साकार करना चाहिये।
    • सतत् विकास के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करने के लिये केंद्रीय बैंकों और राष्ट्रीय कोषागारों को एक संयुक्त रणनीति बनानी चाहिये।
    • ऊर्जा, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ सरकार के बजट में जलवायु शमन के लिये नीतियों को स्पष्ट रूप से शामिल करना एक महत्वपूर्ण कदम होना चाहिये।
  • हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था पर स्विच करना: हरित हाइड्रोजन द्वारा बिजली उत्पादन को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने के लिये 'शुद्ध-शून्य' उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करना एक व्यवहार्य समाधान होगा।
    • यह पारंपरिक जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करने की दिशा में भी एक प्रयास  होगा।
  • जलवायु वित्त जुटाना: जलवायु वित्त जुटाने के लिये एक प्रमुख अभियान शुरू करने की भी आवश्यकता है और ऊर्जा दक्षता, जैव ईंधन के उपयोग, कार्बन संग्रहण, कार्बन प्राइस निर्धारण पर ध्यान दिया जाना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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