छठी अनुसूची के तहत संरक्षित क्षेत्र
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में छठी अनुसूची में शामिल राज्यों व इनसे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत पूर्वोत्तर के चार राज्यों- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में ‘स्वायत्त ज़िला परिषदों’ (Autonomous District Councils- ADCs) की स्थापना की गई। ये स्वायत्त ज़िला परिषद आदिवासी संस्कृति की रक्षा और उसके संरक्षण की परिकल्पना करते हैं। ADCs की स्थापना के पीछे तर्क यह है कि ‘भूमि के साथ संबंध आदिवासी या जनजातीय पहचान का आधार है।’ भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनजातीय लोगों का नियंत्रण सुनिश्चित कर उनकी संस्कृति तथा पहचान को संरक्षित किया जा सकता है, क्योंकि ये कारक काफी हद तक जनजातीय लोगों की जीवन-शैली एवं संस्कृति को निर्धारित करते हैं।
हालाँकि इस प्रकार की व्यवस्था के परिणामस्वरूप विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष उत्पन्न हुआ है, उदाहरण के लिये आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के बीच संघर्ष। इसके अलावा यह राज्य और क्षेत्र के सामाजिक सद्भाव, स्थिरता तथा आर्थिक विकास को कमज़ोर करता है।
छठी अनुसूची में शामिल क्षेत्रों को विशेष दर्जा:
- छठी अनुसूची मूल रूप से अविभाजित असम के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों (90% से अधिक आदिवासी आबादी) के लिये लागू की गई थी। ऐसे क्षेत्रों को ‘भारत सरकार अधिनियम, 1935’ के तहत "बहिष्कृत क्षेत्रों" (Excluded Areas) के रूप में वर्गीकृत किया गया था
- ये क्षेत्र राज्यपाल के सीधे नियंत्रण में थे।
- संविधान की छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय आबादी के अधिकारों की रक्षा के लिये इन जनजातीय क्षेत्रों के स्वायत्त स्थानीय प्रशासन का अधिकार प्रदान करती है।
- यह विशेष प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 244 (2) और अनुच्छेद 275 (1) के तहत प्रदान किया गया है।
- छठी अनुसूची ‘स्वायत्त ज़िला परिषदों’ (ADCs) के माध्यम से इन क्षेत्रों के प्रशासन में स्वायत्तता प्रदान करती है।
- इन परिषदों को अपने अधिकार क्षेत्र के तहत आने वाले क्षेत्रों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार है, जिनमें भूमि, जंगल, खेती, विरासत, आदिवासियों के स्वदेशी रीति-रिवाज़ों और परंपराओं आदि से संबंधित कानून शामिल हैं, साथ ही इन्हें भूमि राजस्व तथा कुछ अन्य करों को इकट्ठा करने का भी अधिकार प्राप्त है।
- ADCs शासन की तीनों शाखाओं (विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के संबंध में विशिष्ट शक्तियाँ और ज़िम्मेदारियाँ रखते हुए एक लघु राज्य की तरह कार्य करते हैं।
छठी अनुसूची से जुड़ी समस्याएँ:
- संवैधानिक सिद्धांतों का अवमूल्यन: छठी अनुसूची गैर-आदिवासी निवासियों के खिलाफ विभिन्न तरीकों से भेदभाव करती है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी करती है। जैसे-कानून के समक्ष समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), भेदभाव के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 15), तथा भारत में कहीं भी बसने का अधिकार (अनुच्छेद 19)।
- यह भेदभाव आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच लंबे समय से संघर्ष तथा दंगों की पुनरावृत्ति का कारण रहा है। इसके कारण कई गैर-आदिवासियों को पूर्वोत्तर राज्यों से बाहर निकालना पड़ा है।
- गौरतलब है कि वर्ष 1972 ( 20%) के बाद से मेघालय में गैर-आदिवासी आबादी में तीव्र गिरावट (वर्ष 2011 की जनगणना में मात्र 14%) देखने को मिली है।
- अभी भी इन क्षेत्रों में कई गैर-आदिवासी परिवार हिंसा के भय के वातावरण में जीवन जी रहे हैं। इन परिवारों की यह स्थिति संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्राप्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी के अधिकार का उपहास है।
- यह भेदभाव आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच लंबे समय से संघर्ष तथा दंगों की पुनरावृत्ति का कारण रहा है। इसके कारण कई गैर-आदिवासियों को पूर्वोत्तर राज्यों से बाहर निकालना पड़ा है।
- शक्ति के कई केंद्र: संविधान के इस प्रावधान ने इन क्षेत्रों में स्वायत्तता की वास्तविक शुरुआत के बजाय शक्ति के कई केंद्रों की स्थापना को बढ़ावा दिया है।
- शासन में समन्वय की कमी के कारण ज़िला परिषदों और राज्य विधानसभाओं के बीच लगातार हितों के टकराव की स्थिति बनी रहती है।
- उदाहरण के लिये मेघालय के एक राज्य के रूप में गठन के बावजूद अभी भी पूरा राज्य (राजधानी शिलॉन्ग में कुछ हिस्से को छोड़कर) छठी अनुसूची के तहत आता है, जो राज्य सरकार के साथ लगातार संघर्ष का एक प्रमुख कारण।
- एक्ट ईस्ट नीति से टकराव: छठी अनुसूची के तहत इस क्षेत्र में लागू प्रतिबंध एक्ट ईस्ट नीति की सफलता के मार्ग में एक अवरोधक के रूप में कार्य करते हैं, जिसके लिये पूर्वोत्तर राज्यों के भीतर निर्बाध कनेक्टिविटी और विनिमय आवश्यक है।
- इसी प्रकार ‘इनर लाइन परमिट प्रणाली’ (Inner Line Permit- ILP) निवेशकों और पर्यटकों को रोकते हुए इस क्षेत्र के आर्थिक विकास को बाधित करती है।
‘इनर लाइन परमिट प्रणाली’
(Inner Line Permit- ILP):
- इनर लाइन परमिट प्रणाली की अवधारणा ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान प्रस्तुत की गई थी।
- इनर लाइन परमिट एक दस्तावेज़ है और ILP प्रणाली के तहत संरक्षित क्षेत्र में जाने या रहने के लिये किसी भी भारतीय नागरिक (इस क्षेत्र से बाहर शेष भारत से संबंधित) को इसे प्राप्त करना अनिवार्य है।
- इनर लाइन परमिट की शुरुआत ब्रिटिश सरकार ने ‘बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन एक्ट, 1873’ [Bengal Eastern Frontier Regulation Act (BEFR), 1873] के तहत बंगाल के पूर्वी हिस्से की जनजातियों की सुरक्षा के लिये की थी।
- वर्ष 1873 के कानून के तहत ILP पूर्वोत्तर के केवल तीन राज्यों- मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड पर लागू था। परंतु वर्ष 2019 में मणिपुर चौथा ऐसा राज्य बना जहाँ ILP प्रणाली लागू होती है।
- विदेशी पर्यटकों को उन पर्यटन स्थलों की यात्रा करने के लिये एक संरक्षित क्षेत्र परमिट (पीएपी) की आवश्यकता होती है जो घरेलू पर्यटकों के लिये आवश्यक इनर लाइन परमिट से भिन्न होता है।
- ‘विदेशी (संरक्षित क्षेत्रों) आदेश, 1958’ के तहत 'इनर लाइन' में पड़ने वाले सभी क्षेत्रों (जैसा कि उक्त आदेश में परिभाषित किया गया है) को राज्य की अंतर्राष्ट्रीय सीमा के तहत संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है।
अन्य चुनौतियाँ:
- मेघालय राज्य की स्थापना के बाद से ही वहाँ 85% नौकरियों को आदिवासी लोगों के लिये आरक्षित कर दिया गया, साथ ही किसी भी गैर-आदिवासी व्यक्ति को भूमि का हस्तांतरण प्रतिबंधित कर दिया गया।
- इस प्रकार की कानूनी बाधाओं का प्रभाव राज्य में दशकों से रह रही गैर-आदिवासी आबादी के आर्थिक और सामाजिक विकास पर पड़ा है।
निष्कर्ष:
जनजातीय समूह जैसे समाज के सीमांत वर्गों के लिये विशेष संवैधानिक सुरक्षा बहुत ही आवश्यक है ताकि उनके साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की भरपाई सुनिश्चित की जा सके और उनके साथ इस प्रकार के अन्याय के दोहराव को रोका जा सके। परंतु इसने उन गैर-आदिवासी परिवारों को न्याय पाने से वंचित किया है, जो स्वायत्त ज़िला परिषद प्रशासित क्षेत्रों में पीढ़ियों से रह रहे हैं और इस भेदभाव के परिणामस्वरूप बिल्कुल हाशिये पर पहुँच गए हैं।
ऐसे में सरकार और अन्य एजेंसियों को इस संवेदनशील मुद्दे से निपटने के लिये इन क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों और गैर-आदिवासियों का विश्वास जीतना होगा तथा उनमें सुरक्षा एवं विश्वास की भावना जगाने के लिये सभी हितधारकों के साथ मिलकर कार्य करना होगा।
अभ्यास प्रश्न: संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी संस्कृति और समावेशिता की रक्षा करने में सफल रही है। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।