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एडिटोरियल

  • 21 Nov, 2020
  • 17 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन से निपटने में वनों की भूमिका

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में जलवायु परिवर्तन की चुनौती और इससे निपटने के प्रयासों में वनों भूमिका व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

पिछले माह संयुक्त राष्ट्र महासभा की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता शिखर सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्त्व करते हुए केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री ने वर्ष 2030 तक बंजर तथा वनों की कटाई वाली 2.6 करोड़ हेक्टेयर भूमि को पुनर्स्थापित करने की भारत की प्रतिबद्धता को दोहराया था। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण जैव विविधता को हो रही क्षति को रोकने के लिये प्रदूषण तथा उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों के साथ पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार लाने पर विशेष ध्यान दिया जाना बहुत ही आवश्यक है। वर्ष 2021-30 को ‘संयुक्त राष्ट्र पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली दशक’ (UN Decade of Ecosystem Restoration-UNCCD) के रूप में घोषित किये जाने और ‘पोस्ट-2020 बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क’ (Post-2020 Biodiversity Framework) की तैयारी के बीच आने वाला दशक विभिन्न मानवीय तथा गैर-मानवीय गतिविधियों से प्रभावित हुए स्थलीय एवं जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों की पुनर्बहाली के प्रयासों में कई गुना वृद्धि की मांग करता है। 

वन परिदृश्य की पुनर्बहाली

(Forest Landscape Restoration-FLR):   

  • FLR पारिस्थितिकी कार्यक्षमता को पुनः प्राप्त करने, वनोन्मूलन से प्रभावित क्षेत्रों में मानव कल्याण को बढ़ावा देने और भिन्न-भिन्न भू-उपयोग से संबंधित सभी हितधारकों के लिये वस्तुओं एवं सेवाओं की एक विस्तृत शृंखला उपलब्ध कराने की एक लंबी प्रक्रिया है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में वनों की भूमिका:

  • पेड़ और अन्य वनस्पतियाँ प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से पर्यावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने में सहायता करती हैं साथ ही मृदा भी पशुओं और पौधों से मिलने वाले जैविक कार्बन को अवशोषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • हालाँकि मृदा में अवशोषित इस प्रकार के कार्बन की मात्रा भूमि प्रबंधन प्रथाओं, खेती के तरीकों, मिट्टी के पोषण और तापमान के साथ बदलती रहती है।   
  • जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर चुनौती से निपटने के अलावा वन हमारे दैनिक जीवन में कई तरह से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर लगभग 1.6 बिलियन लोग (वैश्विक आबादी का लगभग 25%) अपनी आजीविका के लिये वनों पर निर्भर हैं, जिनमें से बहुत से लोग विश्व के सबसे गरीब वर्ग से संबंधित हैं।  
  • वन प्रत्येक वर्ष स्वच्छ जल और स्वस्थ मिट्टी के अतिरिक्त लगभग 70-100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वस्तुएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं। 
  • विश्व की कुल स्थलीय जैव विविधता का लगभग 80% भाग वनों से संबंधित है।     

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु किये गए प्रयास:  

  • पेरिस समझौते (Paris Agreement) के अनुच्छेद-5 के तहत सदस्य देशों से ग्रीन हाउस गैसों  के उत्सर्जन को नियंत्रित करने हेतु वनोन्मूलन को रोकने पर विशेष ज़ोर देने की मांग की गई है।
  • साथ ही यह अधिकांश देशों द्वारा ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (Nationally Determined Contribution- NDC) की प्रतिबद्धताओं में भी परिलक्षित होता है।
  • गौरतलब है कि NDC में वन्य क्षेत्र के सुधारों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों को भी शामिल किया गया है।
  • जर्मनी द्वारा IUCN के साथ मिलकर वर्ष 2011 में बॉन चैलेंज (Bonn Challenge) की शुरुआत की गई जिसके तहत वर्ष 2020 तक 150 मिलियन हेक्टेयर और वर्ष 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर बंजर तथा वनोन्मूलन से प्रभावित क्षेत्र की पुनर्बहाली का लक्ष्य रखा गया।
  • भारत वर्ष 2015 में  ‘बॉन चैलेंज’ की पहल में शामिल हुआ और इसके तहत भारत द्वारा 21  मिलियन हेक्टेयर बंजर तथा वनोन्मूलन से प्रभावित क्षेत्र की पुनर्बहाली की बात कही गई थी, इस लक्ष्य को सितंबर 2019 में दिल्ली में आयोजित ‘मरुस्‍थलीकरण रोकथाम पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय’ सम्मेलन के दौरान बढ़ाकर वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर कर दिया गया।  
  • इसके साथ ही भारत द्वारा NDC के तहत वर्ष 2030 तक अतिरिक्त वन एवं वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्‍य अतिरिक्त कार्बन सिंक (Carbon Sink) तैयार करने का लक्ष्य रखा गया है।

चुनौतियाँ:    

  • जलवायु परिवर्तन, सूखा एवं बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि, भूस्खलन आदि के कारण उपजाऊ भूमि का तीव्र क्षरण हो रहा है।
  • UNCCD के अनुसार, भोजन, चारा, ईंधन और कच्चे माल की बढ़ती मांग से भूमि पर दबाव तथा प्राकृतिक संसाधनों के लिये प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई है।  
  • विश्व की कुल मानव आबादी का लगभग 18% और पशुओं की आबादी का 15% हिस्सा भारत में पाया जाता है जबकि विश्व के कुल भू-भाग का मात्र 2.4% हिस्सा ही भारत के अंतर्गत है, ऐसे में देश में नागरिकों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है।
  • आंध्रप्रदेश में वर्षा की कमी के कारण किसानों की बोरवेल पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जिससे मिट्टी की शुष्कता में भी वृद्धि देखी गई है।
  • झारखंड राज्य में अनियंत्रित खनन के कारण मृदा अपरदन और जल संकट में काफी वृद्धि हुई है, केंद्रीय भू-जल बोर्ड के आँकड़ों के अनुसार, राज्य के गिरिडीह ज़िले के एक ब्लॉक में जलस्तर वर्ष 2013-17 के बीच 8 मीटर से गिरकर 10 मीटर तक पहुँच गया।
  • वहीं गोवा राज्य में खनन और बढ़ते शहरीकरण तथा गुजरात में चारागाह एवं कृषि के लिये भू-अतिक्रमण के नकारात्मक प्रभाव देखने को मिले हैं।     

वनोन्मूलन: 

  • भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2019 के अनुसार, पूर्वोत्तर भारत के वनावरण क्षेत्रफल में लगभग 765 वर्ग किमी. की कमी आई है। असम और त्रिपुरा को छोड़कर पूर्वोत्तर के बाकी सभी राज्यों के वनावरण क्षेत्रफल में कमी आई है।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कुल वन क्षेत्रफल लगभग 195.44 वर्ग किमी. है, जो इसके कुल क्षेत्रफल का 13.18% ही है। 
  • रिपोर्ट के अनुसार, देश का कुल वन क्षेत्र 7,12,249 वर्ग किमी. का है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.67% है, गौरतलब है कि ‘राष्ट्रीय वन नीति, 1988’ के तहत इसे देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का कम-से-कम एक -तिहाई ( ⅓) रखने का लक्ष्य रखा गया था।   
  • महाराष्ट्र में प्रतिवर्ष राज्य वन विभाग से प्राप्त परमिट का उपयोग करते हुए वर्ष 2005-14 के बीच 10 लाख से अधिक वृक्ष काटे जा चुके हैं जबकि इसी दौरान लगभग 2.6 लाख पेड़ अवैध रूप से काट दिये गए।  
  • नगालैंड में झूम कृषि और अन्य दैनिक ज़रूरतों के लिये वनोंन्मूलन से तेज़ी से लुप्त हो रहे वानस्पतिक आवरण ने राज्य में मिट्टी के कटाव की घटनाओं में वृद्धि की है। 

मरुस्थलीकरण:  

  • UNCCD के अनुसार, मरुस्थलीकरण प्रतिवर्ष विश्व भर में लगभग 12 मिलियन हेक्टेयर उपजाऊ भूमि को प्रभावित करता है।   
  • मरुस्थलीकरण से प्रभावित शुष्क भूमि न सिर्फ अपनी उपजाऊ क्षमता बल्कि जल प्रणालियों के प्रबंधन और कार्बन संरक्षित करने जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की अपनी क्षमता को भी खो देती हैं।    
  • मानव इतिहास में मरुस्थलीकरण की घटना कोई नई बात नहीं है परंतु चिंता का कारण यह है कि हाल के दशकों में इसकी गति में 30-35 गुना वृद्धि देखी गई है।  
  • पिछले दो दशकों के दौरान विश्व में लगभग एक-चौथाई भूमि का क्षरण देखने को मिला है।   
  • इसरो के अहमदाबाद स्थित ‘अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र’ (Space Application Centre- SAC) द्वारा वर्ष 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 30% या 96.40 मिलियन हेक्टेयर हिस्सा भू-क्षरण से प्रभावित है।  
  • ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (TERI) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भू-क्षरण के कारण प्रतिवर्ष सरकार को लगभग 48.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर की क्षति होती है। 

अपर्याप्त प्रतिपूरक वनीकरण: 

  • हाल ही में हिमधारा एनवायरमेंट रिसर्च एंड एक्शन कलेक्टिव द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के विकास के लिये किये गए वन व्यपवर्तन (Forest Diversion) के बदले प्रतिपूरक वनीकरण (Compensatory Afforestation) के तहत केवल 10% पौधे ही लगाए गए तथा लगाये गए पौधों की उत्तरजीविता की दर मात्र 3.6% ही थी।

समाधान: 

  • FSI के एक अध्ययन के अनुसार, यदि देश में प्रभावित हुए कुल वन क्षेत्र के 50% हिस्से की पुनर्स्थापना की जाती है तो वर्ष 2030 तक इससे 1.63 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के समतुल्य कार्बन सिंक को बढ़ाया जा सकता है, जबकि 70% की पुनर्स्थापना से कार्बन सिंक में 3.39 बिलियन टन की वृद्धि की जा सकती है।
  • देश में वनावरण को बढ़ाने के लिये निम्नलिखित उपायों को अपनाया जा सकता है।
    • गंभीर रूप से प्रभावित और खुले वनों (वृक्षों का घनत्त्व 10-40%) की पुनर्स्थापना।
    • बंजर भूमि का वनीकरण 
    • कृषि वानिकी
    • हरित गलियारों का विकास,  रेलवे लाइन, नहरों, नदियों और सड़कों के किनारे वृक्षारोपण।   
  • वर्तमान में भारत में वन प्रबंधन के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं, जिन्हें वन परिदृश्य की पुनर्बहाली का मार्गदर्शन करना चाहिये।
  1. जल के लिये वनों का प्रबंधन: इसके तहत भूजल पुनर्भरण को बढ़ाने के साथ-साथ नदियों और झरनों में सतही प्रवाह और उप-सतही प्रवाह को बनाए रखना शामिल है। इसके माध्यम से कई अन्य लाभ जैसे- वनाग्नि के मामलों में गिरावट आदि के लक्ष्य को भी प्राप्त किया जा सकता है।
  2. कार्बन सिंक के रूप में वनों का प्रबंधन: पेड़ पौधों द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड के संग्रह के अतिरिक्त वन उस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को मज़बूत करते हैं, जिसके माध्यम से इसके विभिन्न घटक पर्यावरण में कार्बन उत्सर्जन को कम करने में सहायता करते हैं।
  3. आजीविका के लिये वनों का प्रबंधन:  विश्व में लाखों लोग अपनी आजीविका के लिये प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वनों पर निर्भर करते हैं ऐसे में नीतियों के निर्माण के दौरान  वन संरक्षण और इस पर आश्रित लोगों के हितों के बीच संतुलन को बनाए रखने पर ध्यान देना बहुत ही आवश्यक होगा।   

आगे की राह:      

  • देश में वन परिदृश्य की पुनर्बहाली की पहल के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये सभी हितधारकों के बीच इसके विभिन्न घटकों (जैसे-FLR के लिये चयनित क्षेत्र की परिभाषा और इसके चयन की प्रक्रिया, योजना की निगरानी हेतु एक मानक का निर्धारण आदि) के मामलों में समान समझ और मज़बूत समन्वय का होना बहुत ही आवश्यक है।  
  • वर्तमान में ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ के तहत बॉन चैलेंज की निगरानी के लिये स्थापित समिति को इस परियोजना के मार्गदर्शन और समन्वय का कार्य दिया जा सकता है।
  • योजना के क्रियान्वयन की निगरानी हेतु ग्रीन इंडिया मिशन (Green India Mission- GIM) के निगरानी फ्रेमवर्क और व्यापक संकेतकों को आधार के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
  • पिछले तीन दशकों के दौरान ज़िला और राज्य स्तरीय समन्वय समितियों के अलावा  संरक्षण समिति, वन पंचायतों और ग्राम सभाओं के माध्यम से संयुक्त वन प्रबंधन के तहत जमीनी स्तर पर सभी हितधारकों को साथ लाने के लिये कई संस्थानों का विकास किया गया है, ऐसे में पुनर्बहाली के प्रयासों को स्थायित्त्व प्रदान करने के लिये सभी हितधारकों की भागीदारी के साथ उनके बीच उत्तरदायित्वों को साझा करने पर विशेष ध्यान देना होगा।

अभ्यास प्रश्न: जलवायु परिवर्तन से निपटने में वनों की भूमिका की समीक्षा करते हुए वर्तमान में भारत में वन संरक्षण की चुनौतियों  और इसके समाधान के विकल्पों पर चर्चा कीजिये।


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