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एडिटोरियल

  • 17 Jun, 2021
  • 8 min read
शासन व्यवस्था

भारतीय चुनाव फंडिंग प्रणाली

यह एडिटोरियल दिनांक 16/06/2021 को 'द हिंदू' में प्रकाशित लेख “Needed: full disclosure on electoral bonds” पर आधारित है। इसमें राजनीतिक पार्टियों को प्राप्त होने वाली विदेशी एवं गुमनाम फंडिंग से जुड़े मुद्दे पर चर्चा की गई है।

संदर्भ

लोकतंत्र में सैद्धांतिक रूप से राजनीतिक शक्तियाॅं लोकप्रियता के आधार पर या जनता की स्वीकृति से प्रवाहमान होती है, जिसे कि चुनावों के परिणामों से जाना जाता है। हालाॅंकि व्यवहार में यह प्रणाली अक्सर कई कारकों से विकृत होती है, जिनमें वित्तीय शक्ति सबसे प्रमुख होती है।

  • इस कारण राजनीतिक दल अपने मतदाताओं की इच्छा के अनुसार नहीं बल्कि उन्हें चुनाव हेतु वित्त उपलब्ध कराने वालों के अनुसार नीति बनाते हैं।
  • इसके अलावा, सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA), 1976, कंपनी अधिनियम, 2013 में कई कानूनी बदलाव लाए हैं, जो चुनावों में गुमनाम कॉर्पोरेट फंडिंग के प्रभाव को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • इसके साथ ही राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता की कमी चिंता का कारण है और चुनावी बॉण्ड ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है। पिछले कुछ समय में हुए बदलाव s3 भारत की चुनावी फंडिंग प्रणाली में अधिक समस्याएॅं पैदा हो गई हैं, जिससे ऐसे हित समूहों, जिनके पास धन बल है, राजनीतिक दलों को गुप्त रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

भारत की चुनावी फंडिंग प्रणाली से संबंधित मुद्दे

  • चुनावी बॉण्ड: 2017 में चुनावी बॉण्ड की शुरूआत ने बिना नाम या पहचान जारी किये हजारों करोड़ दान देने के लिये नया मार्ग खोल दिया।
    • चुनावी बॉण्ड योजना के तहत, भारतीय स्टेट बैंक (SBI) के माध्यम से केवल सत्ताधारी पार्टी के पास चुनावी बॉण्ड के माध्यम से किये जा रहे सभी दान का पूरा लेखा-जोखा होता है।
    • संसद, चुनाव आयोग और विपक्षी दलों के पास यह जानकारी नहीं है और न ही जनता को।
    • वास्तव में चुनावी बॉण्ड कंपनियों, धनी व्यक्तिगत दान कर्त्ताओं और विदेशी संस्थाओं को अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक शक्ति प्रदान करते हैं। इस प्रकार एक मतदाता-एक वोट के सार्वभौमिक मताधिकार कमज़ोर होता है।
  • FCRA, 1976 में संशोधन: वर्ष 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि दो राष्ट्रीय राजनीतिक दल भारत में पंजीकृत दो कंपनियों से अवैध रूप से चंदा स्वीकार करने के दोषी थे, लेकिन उन कंपनियों के नियंत्रक शेयरधारक एक विदेशी कंपनी थी।
    • वर्ष 2016 एवं 2018 में, सरकार ने इससे जुड़े उल्लंघनों को पूर्वव्यापी रूप से वैध बनाने के लिये, वार्षिक वित्त विधेयकों के माध्यम से FCRA में संशोधन किया।
    • संशोधन के अनुसार, पहले विदेशी कंपनियाॅं या ऐसी कंपनियाॅं जिसकी मूल कंपनी विदेश में स्थित हो, वे दान नही कर सकती थीं किंतु, संशोधन के पश्चात वे ऐसा कर सकती हैं।
    • भारतीय निर्वाचन आयोग के अनुसार, इससे भारत में राजनीतिक दलों को अनियंत्रित विदेशी वित्त पोषण की अनुमति मिल जाती है, जिससे भारत की संप्रभुता प्रभावित हो सती है साथ ही, भारत की नीतियाॅं विदेशी कंपनियों से प्रभावित हो सकती हैं।
  • कंपनी अधिनियम, 2013 में संशोधन: वर्ष 2017 के वित्त विधेयक ने राजनीतिक दलों को प्राप्त दान को अलग-अलग शीर्षक के अंतर्गत घोषित करने की आवश्यकता को दूर करने के लिये कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 182 में संशोधन किया।
    • पहले केवल लाभ कमाने वाली घरेलू कंपनियाॅं ही राजनीतिक दलों को योगदान दे सकती थीं; अब घाटे में चल रही कंपनियाॅं भी ऐसा कर सकती हैं।
    • इसके अलावा, राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट चंदे की अधिकतम सीमा 7.5% को हटा दिया गया है।
    • इस संशोधन के साथ कंपनियाॅं कोई भी राशि दान करने के लिये स्वतंत्र हैं एवं किसे दान किया गया इसे घोषित करने के लिये उत्तरदायी नहीं हैं।
  • आरटीआई प्रभाव को रद्द करना: वर्ष 2005 का सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा रखी जाने वाली जानकारी तक पहुॅंच को आसान बनाता है। भले ही राजनीतिक दल सूचना के अधिकार (RTI) के दायरे में आते हों लेकिन उपरोक्त परिवर्तनों के कारण पारदर्शिता नकारात्मक रूप से प्रभावित होगी ।

आगे की राह

  • चुनावी बॉण्ड में पारदर्शिता: भले ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉण्ड की संवैधानिकता को बरकरार रखा हो, लेकिन यह पारदर्शिता और जवाबदेही को बनाए रखने के लिये इसके पूर्ण और वास्तविक समय में प्रकटीकरण का आदेश दे सकता है।
  • नैतिक दायित्व: कंपनियाॅं और राजनीतिक दल नैतिक दायित्व को समझते हुए स्वेच्छा से प्राप्तकर्ताओं और दान कर्त्ताओं की पहचान का खुलासा कर सकते हैं, जैसा कि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने हाल ही में किया था।
  • राज्य द्वारा चुनावों का वित्त पोषण: कई उन्नत देशों में, चुनावों का सार्वजनिक रूप से वित्त पोषण किया जाता है। इससे समानता के सिद्धांत सुनिश्चित होते हैं और सत्ता- पक्ष एवं विपक्ष के बीच संसाधनों की आपूर्ति में बहुत अधिक अंतर नहीं रहता है।
    • द्वितीय एआरसी, दिनेश गोस्वामी समिति, और कई अन्य ने भी चुनावों के लिये राज्य द्वारा वित्त पोषण की सिफारिश की है।
    • इसके अलावा, जब तक चुनावों को सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित नहीं किया जाता है, तब तक राजनीतिक दलों के वित्तीय योगदान पर सीमाएॅं लागू की जा सकती हैं।
  • नागरिक संस्कृति की ओर: भारत लगभग 75 वर्षों से लोकतंत्र के रूप में अच्छी तरह से कार्य कर रहा है। अब सरकार को और अधिक जवाबदेह बनाने के लिये मतदाताओं को स्वयं जागरूक होकर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों और पार्टियों को खारिज़ करना चाहिये।

निष्कर्ष

प्रत्येक वोट समान रूप से मूल्यवान नहीं है यदि कंपनियाॅं छिपे हुए दान के माध्यम से नीतियों को प्रभावित कर सकती हैं। इस व्यवस्था का विजेता सत्तारूढ़ दल होता है, चाहे वह केंद्र में हो या राज्य में और हारती है जनता।

अभ्यास प्रश्न: भारत की चुनावी फंडिंग प्रणाली में हाल के बदलावों ने और अधिक कामियाॅं पैदा की हैं। इससे ऐसे समूहों, जिनके पास धन बल है, राजनीतिक दलों को गुप्त रूप से प्रभावित कर सकते हैं। चर्चा कीजिये।


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